गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

“दूर कहीं उजाला”

 

कहानी: “दूर कहीं उजाला”

(एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा)




पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव—टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छतों से भरा, जहाँ सूरज की रोशनी भी गरीबी को चीरकर नहीं निकल पाती थी।
वहाँ रहती थी गौरी—रधुआ काका और रामबती की इकलौती बेटी।

गौरी का बचपन पहाड़ी झरनों, कच्ची पगडंडियों और सूखे खेतों के बीच बीता।
नंगे पैर खेतों में दौड़ना, माँ के साथ जंगल से लकड़ियाँ लाना, और हर शाम पिता को चाय पर दाल-चावल परोसना—यही उसका संसार था।

पूरे गाँव में लोग कहते—

“रधुआ की लड़की बड़ी सुहागन सी है, आँखों में जैसे कोई उजली किरण चमकती हो…”

पर उम्र बढ़ने के साथ वही चमक धीरे-धीरे धुँधली हो गई।
सोलह की होते-होते उसके चेहरे से वह कंचन जैसी हँसी गायब होने लगी।
दिन-प्रतिदिन उसके शरीर में कमजोरी बढ़ रही थी।

माँ बार-बार उसके माथे पर हाथ रखकर कहती—

“बिटिया, तू दिन-ब-दिन दुबली क्यों होती जा रही है?”

गौरी केवल मुस्कुरा देती—
“कुछ नहीं अम्मा, बस थक जाती हूँ…”

पर असलियत यह थी कि उसके भीतर कोई बीमारी घर कर चुकी थी।
गाँव का झोला-छाप डॉक्टर हर बार वही दवा देता—पीली टिकिया, लाल सिरप।
पर हालत बिगड़ती ही गई।

और जैसे भगवान ने उसी समय उसकी किस्मत मोड़ने का निश्चय किया हो, गाँव में पहुँचा जगमोहन—रधुआ काका का दूर का रिश्तेदार।
शहर में छोटा-मोटा बिज़नेस करता था, उम्र करीब चालीस, देह से मजबूत, आवाज़ भारी और आँखों में अजीब-सी चमक।

गौरी को खाट पर पड़ी देखकर वह बोला—

“काका, इसे शहर ले चलिए। यहाँ इलाज नहीं मिलेगा।
मैं ले जाऊँ? अच्छा डॉक्टर दिखा दूँगा।”

रधुआ काका ने अपनी गरीबी की चादर समेट ली।
वह बोले—

“बेटा, तुम्हारा बहुत अहसान होगा। पर खर्चा…?”

“मेरा है न काका। चिंता मत कीजिए।”

रामबती की आँखों में डर था।
पर उम्मीद भी।

और एक दिन, बस इतना ही कहना काफी था कि गौरी की जिंदगी ने करवट बदल ली।


शहर…
गौरी के लिए यह किसी दूसरे ग्रह जैसा था।
चारों ओर ट्रैफिक, रोशनी, अजनबी चेहरे, और हवा में धूल-मिट्टी की जगह पेट्रोल का धुआँ।

जगमोहन उसे एक छोटे से कमरे में ले आया—एक ऐसा कमरा जहाँ बस एक लोहे की चारपाई, एक अलमारी और एक गैस चूल्हा रखा था।

पहले हफ्ते में वह सचमुच उसे डॉक्टरों के पास ले गया।
दवाएँ मिलीं, इंजेक्शन लगे, कई तरह के टेस्ट हुए।
धीरे-धीरे गौरी की हालत सुधरने लगी।

पर समय के साथ उसके सामने सच्चाई खुलने लगी।

“चाचा, घर कब चलेंगे?” उसने एक दिन हिम्मत करके पूछा।

जगमोहन ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा—

“तेरे माँ-बाप को अभी पैसे भेजूँगा। तू यहाँ आराम कर। घर जाकर क्या करेगी?
तेरा इलाज अभी बाकी है।”

गौरी देखती रही—उसकी बातों में झूठ का धुआँ घुला हुआ था।

धीरे-धीरे वह उससे घर के काम करवाने लगा—खाना बनाना, कपड़े धोना, पोछा लगाना…
और फिर एक दिन वह उसके सामने यह कहते हुए खड़ा था—

“गौरी, अब तू यहीं रहेगी। तेरे माँ-बाप को भी समझा दिया है कि तू ठीक है।”

गौरी के पैरों के तले ज़मीन खिसक गई।

“पर… मैं वापस जाना चाहती हूँ चाचा… मेरी माँ—”

“बस!”
जगमोहन का स्वर ऐसा था कि गूँज कमरे की दीवारों से टकराने लगी।

“तुझसे अच्छा कौन है यहाँ? खाना-पीना मिल रहा है, इलाज हुआ।
अब ज्यादा दिमाग मत चलाया कर।”

गौरी पहली बार रो पड़ी।
रोते-रोते ही उसे लगा—उसका बचपन, उसका घर, उसकी माँ की गोद… सब उससे छिन गया है।

और यहीं से शुरू हुआ वह दौर जहाँ गौरी का जीवन किसी और की मुट्ठी में कैद था।


दिन महीने बने, और महीने साल।
गौरी ने चुपचाप सब सहना सीख लिया—दर्द, मजबूरी, अकेलापन, और जगमोहन की कठोरता।

समय के साथ वह माँ भी बनी—दो बच्चों की।
उनके जन्म से पहले उसने कितनी रातें आँसू पोंछकर बिताई थीं, यह वह खुद भी भूल गई थी।

पर बच्चों के आने से उसका सूना जीवन थोड़ा भरने लगा।

वह उनकी छोटी-छोटी उँगलियों में प्यार खोज लेती,
उनकी मासूम मुस्कान में अपना भविष्य।

पर जगमोहन बूढ़ा हो रहा था, कमजोर हो रहा था।
वह पहले जैसा हावी नहीं रह पाया।
आर्थिक संकट बढ़ रहा था।

एक दिन उसने कहा—

“गौरी, यहाँ गुज़र नहीं होता।
हम दूसरे शहर चलेंगे। वहाँ कुछ काम मिलेगा।”

गौरी को फर्क नहीं पड़ता था।
क्योंकि उसके लिए हर शहर, हर गली, हर घर एक जैसा ही था—
कैदखाना।


नया शहर पिछली जगह से बड़ा था।
भरी हुई गलियाँ, ऊँचे मकान, और बीच में एक छोटा-सा मजदूरों का मोहल्ला—जहाँ उन्हें एक कमरे का घर मिला।

यहीं रहती थी कॉलोनी नं. 14
यहीं पहली बार गौरी की मुलाकात हुई विराज से।

विराज लगभग गौरी की उम्र का था—शांत, जिम्मेदार, और गहरी आँखों वाला इंसान।
घर में पत्नी, एक बेटी, और बूढ़ी माँ।
घर ठीक-ठाक चलता था, पर परिवार में प्यार का वो ताप नहीं था जो जीवन को अर्थ देता है।

पहली मुलाकात साधारण थी—
पानी की लाइन में।

“दीदी, आपकी बाल्टी मेरी बाल्टी से पहले है। आप रख लीजिए,”
विराज ने मुस्कुराते हुए कहा।

गौरी ने धीरे से कहा—
“नहीं, आप पहले भर लीजिए… मेरे पास समय है।”

उसकी आवाज़ में एक ऐसी विनम्रता थी जो हमेशा मजबूर लोगों में होती है—संकोची, दबा हुआ, पर सच्चा।

धीरे-धीरे रोज़ की वही लाइन एक अजीब-सी सहजता में बदल गई—

संक्षिप्त बातें,
हल्की मुस्कानें,
और गौरी की आँखों में पहली बार कोई ऐसा दिखा जो उसे देखता था।


गौरी हर दिन पानी की लाइन में विराज से मिलती।
उनकी मुलाकातें छोटी थीं, पर उनमे अपनापन भरा होता—जैसे दोनों एक-दूसरे से अनकही बातों की सांझ लेने लगे हों।

एक दिन विराज ने पूछा—

“आपका नाम क्या है?”

“गौरी,” उसने बमुश्किल मुस्कुराकर कहा।

“अच्छा नाम है,”
विराज बोला, “आप यहाँ नई आई हैं शायद?”

“हाँ… कुछ महीनों पहले आए थे।”

विराज ने कुछ पल उसे देखा।

“आप… ठीक हैं?”

यह प्रश्न सामान्य था,
लेकिन उन तीन शब्दों में एक सच्ची चिंता थी,
जो गौरी को वर्षों बाद मिली थी।

गौरी की आँखें अनायास भर आईं।
पर उसने तुरंत पलकें झुका लीं—

“हाँ, मैं ठीक हूँ।”

उस दिन गौरी को पता चला कि कोई अनजान भी आपके दुख को पढ़ सकता है।

धीरे-धीरे कॉलोनी के लोग नोटिस करने लगे कि विराज और गौरी अक्सर एक ही वक्त पानी भरने आते हैं।
कोई कुछ नहीं कहता, पर निगाहों में सवाल तैरते रहते।

मगर दोनों के लिए यह मुलाकातें किसी दवा से कम नहीं थीं।


विराज का अपना घर भी टूटा हुआ था, बस लोग उससे देखते नहीं थे।

उसकी पत्नी रेखा, आपस में तालमेल बिल्कुल नहीं था।
रेखा हमेशा नाराज़, चिड़चिड़ी, और बात-बात पर लड़ने को तैयार।
विराज अपने दर्द मन में दबाकर चुपचाप नौकरी करता, घर खर्च चलाता, और रात को थककर सो जाता।

उसकी माँ कई बार कहती—

“बेटा, तेरी आँखों की चमक क्यों कम हो गई है?”

विराज बस मुस्कुरा देता—
“थक जाता हूँ, माँ।”

लेकिन सच्चाई यह थी कि घर में कोई उसे समझता नहीं था।

गौरी उससे बात करती तो वह खुल जाता।
उसे लगता जैसे वह किसी पुराने दोस्त से बात कर रहा हो—जो बिना बोले भी सब समझ लेता हो।

उधर गौरी की जिंदगी भी आसान नहीं थी।

जगमोहन बीमारी से ग्रस्त और उदासीन होकर कोने में पड़ा रहता।
कभी-कभार खाँसता, कभी चिढ़कर चिल्ला देता।

गौरी उसकी दवा, खाना और बच्चों की देखभाल अकेले करती।
उसका जीवन एक अटूट जिम्मेदारी बन चुका था।

विराज से मुलाकातें उसे कुछ पल की राहत देती थीं—
एक ऐसा सहारा जिसकी उसे ज़रूरत थी,
पर वह किसी से कह नहीं सकती थी।


कभी-कभी भाग्य दो लोगों को एक ही पथ पर ला खड़ा करता है,
जहाँ शब्द नहीं बोलते—दिल बोलता है।

एक शाम, जब गौरी सब्ज़ी लेकर लौट रही थी, अचानक बिजली चली गई।
गली अँधेरे में डूब गई।
वह घबराई—बच्चे घर में अकेले थे।

तभी विराज पहुँचा।
उसने मोबाइल की टॉर्च जलाकर कहा—

“आइए, मैं छोड़ देता हूँ।”

गौरी कुछ कह पाती इससे पहले ही उसकी आँखों में डर देखकर विराज ने समझ लिया कि वह चिंतित है।

“चलिए, अंधेरा है… रास्ता खराब है,”
विराज ने सहज भाव से कहा।

दोनों साथ चलते रहे।
गौरी को लगा जैसे किसी ने उसके जीवन की अनगिनत परतों में जमा डर को हल्का कर दिया है।

दरवाज़े तक पहुँचकर उसने धीमे स्वर में कहा—

“धन्यवाद।”

विराज बोला—

“कभी भी… अकेली मत आया कीजिए, ठीक है?”

उसकी आँखों में चिंता थी—सच्ची।

उस रात गौरी देर तक सो नहीं सकी।
वह सोचती रही—
क्यों एक अजनबी उसके लिए इतना भाव रखता है?
क्यों उसकी एक मुस्कान उसके दिन भर के दर्द पर मरहम लगा देती है?

उधर विराज भी सोच रहा था—
गौरी की आँखों में जो दर्द है,
क्या वह कभी खत्म होगा?

धीरे-धीरे, ये भावनाएँ किसी नाम की भूख नहीं रखती थीं—बस अपनापन चाहती थीं।


कॉलोनी में बातें बनने लगीं।

“गौरी और वह विराज… रोज़ बातें करते हैं।”
“अरे, दोनों की उम्र भी बराबर है… कुछ न कुछ तो चल रहा होगा।”

लोगों के पास काम भले न हो,
पर दूसरों के जीवन में झाँकने का हुनर खूब था।

जगमोहन, जो अब लाचार और कमजोर हो चुका था,
इन बातों को सुनता तो चुप रहता।
शायद उसे पता था कि उसने गौरी को कभी जीने का मौका ही नहीं दिया।
लोगों की नजरें अब उसे भी चुभने लगी थीं,
पर विरोध की ताकत उसमें बची नहीं थी।

एक दिन उसने बस इतना कहा—

“गौरी… मोहल्ले में लोग बातें बना रहे हैं।
और… तू भी कुछ सोच-समझकर किया कर।”

गौरी ने सिर झुका लिया।

उसने कहा—

“मैं कुछ गलत नहीं करती… बस बातें होती हैं।”

जगमोहन ने लंबी साँस ली—

“गलत क्या है… सही क्या है… इसका फैसला दुनिया जल्दी कर देती है।”

उसकी आवाज़ में पछतावा था या ईर्ष्या—गौरी कभी समझ नहीं पाई।

पर उसके बाद गौरी और विराज की मुलाकातें और भी खामोश हो गईं।
बातें कम, आँखों का आदान-प्रदान ज्यादा।

पर भावनाएँ…
वे किसी पर रुकती नहीं थीं।


वह शहर की वही पुरानी कॉलोनी… वही शाम की हल्की धूप…
लेकिन अब जीवन कुछ बदलने लगा था।

गौरी, जिसका जीवन सालों से कर्तव्यों की जंजीरों में उलझा हुआ था—
अंदर से टूट चुकी थी, पर बाहर से कठोर बनकर जीना उसने सीख लिया था।

विराज उससे उम्र में बराबर, पर दिल से कहीं अधिक समझदार था।
गौरी जब पहली बार उससे मिली थी, बस नमस्ते तक ही रिश्ता था,
लेकिन धीरे-धीरे बातों की ये डोर बढ़कर एक सहारे में बदल गई।

गौरी को पहली बार महसूस हुआ कि कोई उसे समझ रहा है—
उसकी चुप्पी, उसके डर, उसके भीतर की बरसों पुरानी थकान को।

और विराज…
वो तो जैसे किसी अनकहे वादे की तरह उसके आस-पास रहने की वजह ढूँढ ही लेता था।

दोनों के बीच कोई सीमा पार नहीं हुई थी,
पर भावनाएँ
वह तो सीमाएँ देखती ही नहीं थीं।


गौरी के बच्चे अब बड़े हो गए थे।
उन्होंने अपनी माँ के जीवन को हमेशा एक “जिम्मेदारी” के रूप में देखा था,
कभी एक इंसान के रूप में नहीं।

बच्चों को लगता—
उनकी माँ को बस वही करना चाहिए जो घर की इज्ज़त बनाए रखे,
उनके फैसलों के हिसाब से चले।

जब उन्होंने देखा कि विराज अक्सर घर आता है,
तो कानाफूसियां शुरू हो गईं।

“माँ की उम्र में लोग ऐसा करते हैं क्या?”
“पड़ोस में बदनामी हो रही है…”

ऐसी बातें गौरी के दिल में तीर बनकर चुभतीं।
वह कुछ नहीं कह पाती—
क्योंकि उम्रभर कहा ही क्या था?


कॉलोनी की औरतें तो जैसे बस मौका तलाश रही थीं।

“विराज को देखो, दिन-दिन घर आता है…”
“गौरी भी न, उम्र भूल गई है क्या?”
“शर्म तो करनी चाहिए…”

गौरी हर बार पीछे मुड़कर देखती—
क्या सच में उसने कुछ गलत किया है?

क्या अकेली औरत को दोस्ती का हक नहीं?
क्या उसे सहारे की ज़रूरत नहीं?
और सबसे बड़ा सवाल—
क्या वह इंसान नहीं?

लेकिन समाज के जवाब हमेशा एक जैसे थे—
औरत का दिल नहीं होता, सिर्फ़ कर्तव्य होते हैं।


समाज, परिवार, पड़ोस—
सबकी बातों का भार गोरी के चेहरे पर उतरने लगा।
खामोशी बढ़ती जा रही थी।

विराज समझ रहा था।

एक दिन उसने साफ-साफ कहा—

“गौरी, मैं तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं बनना चाहता।
अगर तुम कहो तो मैं आना बंद कर दूँगा…”

गौरी ने सिर झुका लिया।
वह क्या कहती?

वह बोलना चाहती थी—
“मत जाओ… तुम्हारे बिना मैं और टूट जाऊँगी…”

पर उसके होंठ अटक गए।

उसके जीवन में क्या कभी किसी ने उसकी इच्छा पूछी थी?


एक दिन बात हद से आगे बढ़ गई।

गौरी के बड़े बेटे ने गुस्से में कहा—

“माँ! आज के बाद वह आदमी इस घर में कदम नहीं रखेगा!
हमारी बदनामी हो रही है।
अगर आपने उससे बात भी की, तो हमारा रिश्ता खत्म समझिए।”

गौरी पत्थर बन गई।
उसका दिल धड़कना भूल चुका था।

वह जानती थी—
अब वह कुछ नहीं कह पाएगी।
यह वही बच्चा था जिसे उसने  खुद खाना खाकर नहीं, बल्कि खुद भूखी रहकर पाला।
जिसके लिए वर्षों संघर्ष किए…

आज वही बेटा उसे चरित्र के तराजू पर तौल रहा था।


बच्चों के डर से विराज ने आना बंद कर दिया।
लेकिन भावनाएँ कहाँ रुकती हैं?

गौरी कभी किसी पड़ोसन के फोन से बात कर लेती,
कभी चुपके से गेट के पास खड़ी हो जाती—
बस विराज को देखने के लिए।

पर एक दिन यह भी पकड़ा गया।

उसकी बहू ने तानों की बरसात कर दी—

“हमने रोका था न!
अब उम्र में इश्क़ करेंगी?”
“हमें लोगों को क्या जवाब देना है?”

गौरी शांत रही।
उसकी आँखों में सिर्फ़ एक ही सवाल था—
“मेरा अपना जीवन मेरा क्यों नहीं?”


उस दिन गौरी देर शाम बाहर निकली।
कॉलोनी के पार्क की बेंच पर विराज पहले से बैठा था।

दोनों एक-दूसरे को चुपचाप देखते रहे।
बहुत देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।

फिर विराज बोला—

“गौरी…
अब तुम्हारी हालत मैं और नहीं देख सकता।
तुम्हें उम्रभर किसी ने अपना जीवन चुनने नहीं दिया।
पहले पति… फिर बच्चे… फिर समाज…”

गौरी के आँसू गिरने लगे।

वो लंबे समय बाद किसी के सामने टूटी थी।

विराज ने धीरे से कहा—

“अगर तुम चाहो…
तो हम कहीं दूर चल सकते हैं।
जहाँ न कोई जानने वाला हो,
न कोई रोकने वाला.”

गौरी ने सिर उठाया।
उसकी आँखों में पहली बार—
उम्मीद थी।


उस रात गौरी ने कोई बात नहीं की।
वह बस सोचती रही…

कितने साल बीत गए?
जीवन दिया किसके लिए?
और मिला क्या?
अपनी खुशी का एक कतरा भी नहीं।

क्या उसे जीने का हक नहीं?
क्या वह एक इंसान नहीं?

सुबह होते-होते फैसला साफ हो गया।

उसने एक छोटा-सा बैग उठाया,
घर के मंदिर के सामने खड़ी हुई,
और धीरे से कहा—

“हे भगवान…
आज पहली बार मैं अपने लिए जीने जा रही हूँ।
गलत हूँ या सही…
फैसला आपका।
पर मेरी आत्मा आज आज़ाद होना चाहती है।”

वह बाहर आई।
गेट पर विराज खड़ा था।

दोनों ने पीछे मुड़कर एक बार देखा—
वह घर, जिसने उसे सिर्फ़ कर्तव्य दिए,
कभी खुशी नहीं दी।

उसने अंतिम बार अपने आँगन को देखा और कहा—

“अब बस।
अब मैं अपने लिए जिऊँगी।”

और दोनों चल दिए—
एक नए शहर की ओर,
एक नई शुरुआत की ओर।


समाज कहता है—
“यह रिश्ता गलत है।”
पर दिल कहता है—
“गलत तो वह जीवन था जिसमें वह खुद के लिए जी ही नहीं पाई।”

समाज कहता है—
“बच्चों की इज्ज़त खराब।”
पर सच यह है—
बच्चों ने उसकी इज्ज़त कभी समझी ही नहीं।

समाज कहता है—
“उम्र ढल चुकी है।”
दिल कहता है—
“खुशी की कोई उम्र नहीं।”

और यही प्रश्न कहानी का केंद्र बन जाता है—

क्या समाज के अनुसार सब कुछ सही होना चाहिए?
या इंसान की आत्मा के अनुसार?


गौरी और विराज सुबह की पहली बस से किसी दूर शहर पहुँचे।
दोनों ने शहर का नाम भी बिना पूछे चुन लिया था—
क्योंकि अब उनके लिए नामों से ज्यादा मायने रखती थी आज़ादी

बस से उतरते ही दोनों ने एक हल्की-सी राहत महसूस की—
यहाँ उन्हें कोई नहीं जानता।
कोई यह नहीं पूछेगा कि “रिश्ता क्या है?”
कोई ताना नहीं मारेगा कि “उम्र में यह सब शोभा नहीं देता।”

यह पहली बार था
जब गौरी ने अपने कदमों को अपने निर्णयों के साथ आगे बढ़ते महसूस किया।


दोनों के पास बहुत पैसे नहीं थे।
विराज ने किराए पर एक छोटा-सा कमरा लिया—
कमरा छोटा था, पर दोनों के सपनों से बड़ा।

गौरी ने घरों में खाना बनाने और सिलाई का काम पकड़ लिया।
विराज ने एक दुकान में सहायक का काम शुरू कर दिया।

काम कठिन था—
लंबे घंटे, कम पैसे, अपरिचित लोग…

लेकिन एक बात अलग थी—
यह जीवन उन्होंने खुद चुना था।
पहली बार किसी ने उन्हें मजबूर नहीं किया था।

हर शाम दोनों थक कर लौटते,
एक-दूसरे को देखते,
और मुस्कुरा देते।
बस यही मुस्कान पूरे दिन की थकान मिटा देती।


धीरे-धीरे पड़ोसियों ने उन्हें सिर्फ़ “पति-पत्नी” मान लिया।
किसी ने यह नहीं पूछा कि शादी कब हुई थी,
क्यों हुई थी,
किसने कराई थी।

लोगों ने बस इतना देखा—
दो लोग साथ रहते हैं, शांत रहते हैं, काम पर जाते हैं और एक-दूसरे की इज्ज़त करते हैं।

गौरी ने महसूस किया—
इज्ज़त रिश्ते के नाम से नहीं,
व्यवहार से मिलती है।

और यही बात उसे उसकी पुरानी ज़िंदगी की याद दिलाती,
जहाँ वह सबके लिए “कर्तव्यनिष्ठ पत्नी और माँ” थी,
पर किसी की नज़र में “इंसान” नहीं।


अब दोनों के बीच वह संकोच नहीं था,
न डर, न चोरी-छुपी बातचीत,
न कोई दीवार।

अब वह खुलकर हँसते थे,
खुलकर बातें करते,
और एक-दूसरे की थकान मिटा देते।

गौरी अक्सर कहती—

“विराज, मुझे लगता है मैं पहली बार जी रही हूँ।”

विराज मुस्कुरा देता—

“मुझे लगता है मैं पहली बार खुश हूँ।”

उनका प्यार किसी फिल्मी रोमांस जैसा नहीं था—
यह शांत, पर गहरा था…
ठहरे हुए पानी की तरह—
जो बाहर शांत दिखता है,
पर अंदर अथाह है।


लेकिन अतीत इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता।

एक दिन गौरी के मोबाइल पर उसके बेटे का कॉल आया।
बहुत समय से कोई संपर्क नहीं था।

“माँ… आप ठीक हो?”
आवाज़ में गुस्सा नहीं था, बस पछतावा था।

गौरी चुप रही।
उसने पूछा—

“तुम ठीक हो?”

“हाँ माँ… पर घर वैसा नहीं रहा।
आपके बिना खाली-खाली है।”

गौरी की आँखें भर आईं,
पर उसने दिल कड़ा किया।

“मैं खुश हूँ बेटा।
जहाँ हूँ, ठीक हूँ।”

बेटा कुछ कहना चाहता था,
लेकिन गौरी ने बात वहीं खत्म कर दी।

फिर कई दिनों तक वह बेचैन रही।

विराज ने समझाया—

“अतीत छाया जैसा होता है गौरी…
पीछे रहता है, पर आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता।”

और गौरी ने महसूस किया कि
कभी-कभी दूरी ही बेहतर होती है—
खुद के लिए भी, और रिश्तों के लिए भी।


समय के साथ विराज की सेहत कमजोर होने लगी।
काम की थकान, उम्र, और पुरानी परेशानियाँ अपना असर दिखाने लगी थीं।

गौरी उसकी दवा, खाना, और हर ज़रूरत का ध्यान रखती।

एक दिन डॉक्टर ने कहा—

“उन्हें आराम की ज़रूरत है।
टेंशन बिल्कुल मत लेने दीजिए।”

गौरी ने मुस्कुराकर जवाब दिया—

“डॉक्टर साहब,
अब इनके पास टेंशन देने वाला कोई नहीं…
और संभालने वाली मैं हूँ।”

विराज ने उसकी ओर देखा,
और उसकी आँखों में एक गहरा अपनापन उतर आया।

उन्होंने धीरे से कहा—

“जीवन बचा कितना है पता नहीं…
पर जो भी है,
अब उसी के साथ जीना है।”

गौरी ने उसका हाथ थाम लिया।

“हम दोनों मिलकर जितना है, उतना अच्छा जी लेंगे।”


वर्ष बीत गए।
उनका छोटा-सा घर अब यादों से भर चुका था।
गौरी रोज़ सुबह खिड़की खोलती,
धूप अंदर आती, और उसे लगता कि जीवन अब भी मुस्कुरा रहा है।

एक सुबह विराज नींद में ही शांत हो गया।
कोई दर्द नहीं, कोई आह नहीं—
बस एक धीमी-सी साँस के साथ जैसे कह गया—

“धन्यवाद… मुझे जीवन देने के लिए।”

गौरी ने उसे शांत चेहरा देखकर
पहली बार महसूस किया कि
प्यार का अंत मृत्यु नहीं होता—
यादों के रूप में वह हमेशा जिंदा रहता है।

उसने उसकी चीज़ें संभालीं,
तस्वीरें उठाईं,
और अपने दिल में एक शांत सुकून महसूस किया।

वह अकेली थी—
पर इस बार अकेलापन बोझ नहीं था।
यह एक ऐसी संगत का परिणाम था
जो मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होती।


विराज के जाने के बाद
गौरी ने वही शहर नहीं छोड़ा।

क्यों?

क्योंकि यहीं उसने पहली बार
अपने लिए जीना सीखा था।

यहीं उसे बिना सवालों के इज्ज़त मिली थी।
यहीं उसे प्यार मिला था—
पवित्र, शांत, बिना किसी दिखावे का।

गौरी ने एक चीज़ और तय की—
अब वह दूसरों की दया या रिश्ता माँगकर नहीं जिएगी।
वह अब उतनी ही मजबूत हो चुकी थी
कि खुद का जीवन संभाल सके।

हर शाम वह खिड़की पर बैठती,
बिल्कुल वहीं जहाँ विराज बैठा करता था,
और फुसफुसाकर कहती—

“हमने जिंदगी को आखिरकार जी ही लिया, विराज…”
“और यही हमारी जीत है।”


यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती—
क्योंकि प्यार कभी खत्म नहीं होता।

समाज ने शायद उन्हें गलत कहा,
लेकिन इंसानियत ने उन्हें सही ठहराया।
दो टूटे हुए लोग,
जिन्होंने एक-दूसरे के सहारे
जीवन को जीने का नया अर्थ दिया।

“दूर कहीं उजाला”

  कहानी: “दूर कहीं उजाला” (एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा) पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव —टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी...