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गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

“दूर कहीं उजाला”

 

कहानी: “दूर कहीं उजाला”

(एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा)




पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव—टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छतों से भरा, जहाँ सूरज की रोशनी भी गरीबी को चीरकर नहीं निकल पाती थी।
वहाँ रहती थी गौरी—रधुआ काका और रामबती की इकलौती बेटी।

गौरी का बचपन पहाड़ी झरनों, कच्ची पगडंडियों और सूखे खेतों के बीच बीता।
नंगे पैर खेतों में दौड़ना, माँ के साथ जंगल से लकड़ियाँ लाना, और हर शाम पिता को चाय पर दाल-चावल परोसना—यही उसका संसार था।

पूरे गाँव में लोग कहते—

“रधुआ की लड़की बड़ी सुहागन सी है, आँखों में जैसे कोई उजली किरण चमकती हो…”

पर उम्र बढ़ने के साथ वही चमक धीरे-धीरे धुँधली हो गई।
सोलह की होते-होते उसके चेहरे से वह कंचन जैसी हँसी गायब होने लगी।
दिन-प्रतिदिन उसके शरीर में कमजोरी बढ़ रही थी।

माँ बार-बार उसके माथे पर हाथ रखकर कहती—

“बिटिया, तू दिन-ब-दिन दुबली क्यों होती जा रही है?”

गौरी केवल मुस्कुरा देती—
“कुछ नहीं अम्मा, बस थक जाती हूँ…”

पर असलियत यह थी कि उसके भीतर कोई बीमारी घर कर चुकी थी।
गाँव का झोला-छाप डॉक्टर हर बार वही दवा देता—पीली टिकिया, लाल सिरप।
पर हालत बिगड़ती ही गई।

और जैसे भगवान ने उसी समय उसकी किस्मत मोड़ने का निश्चय किया हो, गाँव में पहुँचा जगमोहन—रधुआ काका का दूर का रिश्तेदार।
शहर में छोटा-मोटा बिज़नेस करता था, उम्र करीब चालीस, देह से मजबूत, आवाज़ भारी और आँखों में अजीब-सी चमक।

गौरी को खाट पर पड़ी देखकर वह बोला—

“काका, इसे शहर ले चलिए। यहाँ इलाज नहीं मिलेगा।
मैं ले जाऊँ? अच्छा डॉक्टर दिखा दूँगा।”

रधुआ काका ने अपनी गरीबी की चादर समेट ली।
वह बोले—

“बेटा, तुम्हारा बहुत अहसान होगा। पर खर्चा…?”

“मेरा है न काका। चिंता मत कीजिए।”

रामबती की आँखों में डर था।
पर उम्मीद भी।

और एक दिन, बस इतना ही कहना काफी था कि गौरी की जिंदगी ने करवट बदल ली।


शहर…
गौरी के लिए यह किसी दूसरे ग्रह जैसा था।
चारों ओर ट्रैफिक, रोशनी, अजनबी चेहरे, और हवा में धूल-मिट्टी की जगह पेट्रोल का धुआँ।

जगमोहन उसे एक छोटे से कमरे में ले आया—एक ऐसा कमरा जहाँ बस एक लोहे की चारपाई, एक अलमारी और एक गैस चूल्हा रखा था।

पहले हफ्ते में वह सचमुच उसे डॉक्टरों के पास ले गया।
दवाएँ मिलीं, इंजेक्शन लगे, कई तरह के टेस्ट हुए।
धीरे-धीरे गौरी की हालत सुधरने लगी।

पर समय के साथ उसके सामने सच्चाई खुलने लगी।

“चाचा, घर कब चलेंगे?” उसने एक दिन हिम्मत करके पूछा।

जगमोहन ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा—

“तेरे माँ-बाप को अभी पैसे भेजूँगा। तू यहाँ आराम कर। घर जाकर क्या करेगी?
तेरा इलाज अभी बाकी है।”

गौरी देखती रही—उसकी बातों में झूठ का धुआँ घुला हुआ था।

धीरे-धीरे वह उससे घर के काम करवाने लगा—खाना बनाना, कपड़े धोना, पोछा लगाना…
और फिर एक दिन वह उसके सामने यह कहते हुए खड़ा था—

“गौरी, अब तू यहीं रहेगी। तेरे माँ-बाप को भी समझा दिया है कि तू ठीक है।”

गौरी के पैरों के तले ज़मीन खिसक गई।

“पर… मैं वापस जाना चाहती हूँ चाचा… मेरी माँ—”

“बस!”
जगमोहन का स्वर ऐसा था कि गूँज कमरे की दीवारों से टकराने लगी।

“तुझसे अच्छा कौन है यहाँ? खाना-पीना मिल रहा है, इलाज हुआ।
अब ज्यादा दिमाग मत चलाया कर।”

गौरी पहली बार रो पड़ी।
रोते-रोते ही उसे लगा—उसका बचपन, उसका घर, उसकी माँ की गोद… सब उससे छिन गया है।

और यहीं से शुरू हुआ वह दौर जहाँ गौरी का जीवन किसी और की मुट्ठी में कैद था।


दिन महीने बने, और महीने साल।
गौरी ने चुपचाप सब सहना सीख लिया—दर्द, मजबूरी, अकेलापन, और जगमोहन की कठोरता।

समय के साथ वह माँ भी बनी—दो बच्चों की।
उनके जन्म से पहले उसने कितनी रातें आँसू पोंछकर बिताई थीं, यह वह खुद भी भूल गई थी।

पर बच्चों के आने से उसका सूना जीवन थोड़ा भरने लगा।

वह उनकी छोटी-छोटी उँगलियों में प्यार खोज लेती,
उनकी मासूम मुस्कान में अपना भविष्य।

पर जगमोहन बूढ़ा हो रहा था, कमजोर हो रहा था।
वह पहले जैसा हावी नहीं रह पाया।
आर्थिक संकट बढ़ रहा था।

एक दिन उसने कहा—

“गौरी, यहाँ गुज़र नहीं होता।
हम दूसरे शहर चलेंगे। वहाँ कुछ काम मिलेगा।”

गौरी को फर्क नहीं पड़ता था।
क्योंकि उसके लिए हर शहर, हर गली, हर घर एक जैसा ही था—
कैदखाना।


नया शहर पिछली जगह से बड़ा था।
भरी हुई गलियाँ, ऊँचे मकान, और बीच में एक छोटा-सा मजदूरों का मोहल्ला—जहाँ उन्हें एक कमरे का घर मिला।

यहीं रहती थी कॉलोनी नं. 14
यहीं पहली बार गौरी की मुलाकात हुई विराज से।

विराज लगभग गौरी की उम्र का था—शांत, जिम्मेदार, और गहरी आँखों वाला इंसान।
घर में पत्नी, एक बेटी, और बूढ़ी माँ।
घर ठीक-ठाक चलता था, पर परिवार में प्यार का वो ताप नहीं था जो जीवन को अर्थ देता है।

पहली मुलाकात साधारण थी—
पानी की लाइन में।

“दीदी, आपकी बाल्टी मेरी बाल्टी से पहले है। आप रख लीजिए,”
विराज ने मुस्कुराते हुए कहा।

गौरी ने धीरे से कहा—
“नहीं, आप पहले भर लीजिए… मेरे पास समय है।”

उसकी आवाज़ में एक ऐसी विनम्रता थी जो हमेशा मजबूर लोगों में होती है—संकोची, दबा हुआ, पर सच्चा।

धीरे-धीरे रोज़ की वही लाइन एक अजीब-सी सहजता में बदल गई—

संक्षिप्त बातें,
हल्की मुस्कानें,
और गौरी की आँखों में पहली बार कोई ऐसा दिखा जो उसे देखता था।


गौरी हर दिन पानी की लाइन में विराज से मिलती।
उनकी मुलाकातें छोटी थीं, पर उनमे अपनापन भरा होता—जैसे दोनों एक-दूसरे से अनकही बातों की सांझ लेने लगे हों।

एक दिन विराज ने पूछा—

“आपका नाम क्या है?”

“गौरी,” उसने बमुश्किल मुस्कुराकर कहा।

“अच्छा नाम है,”
विराज बोला, “आप यहाँ नई आई हैं शायद?”

“हाँ… कुछ महीनों पहले आए थे।”

विराज ने कुछ पल उसे देखा।

“आप… ठीक हैं?”

यह प्रश्न सामान्य था,
लेकिन उन तीन शब्दों में एक सच्ची चिंता थी,
जो गौरी को वर्षों बाद मिली थी।

गौरी की आँखें अनायास भर आईं।
पर उसने तुरंत पलकें झुका लीं—

“हाँ, मैं ठीक हूँ।”

उस दिन गौरी को पता चला कि कोई अनजान भी आपके दुख को पढ़ सकता है।

धीरे-धीरे कॉलोनी के लोग नोटिस करने लगे कि विराज और गौरी अक्सर एक ही वक्त पानी भरने आते हैं।
कोई कुछ नहीं कहता, पर निगाहों में सवाल तैरते रहते।

मगर दोनों के लिए यह मुलाकातें किसी दवा से कम नहीं थीं।


विराज का अपना घर भी टूटा हुआ था, बस लोग उससे देखते नहीं थे।

उसकी पत्नी रेखा, आपस में तालमेल बिल्कुल नहीं था।
रेखा हमेशा नाराज़, चिड़चिड़ी, और बात-बात पर लड़ने को तैयार।
विराज अपने दर्द मन में दबाकर चुपचाप नौकरी करता, घर खर्च चलाता, और रात को थककर सो जाता।

उसकी माँ कई बार कहती—

“बेटा, तेरी आँखों की चमक क्यों कम हो गई है?”

विराज बस मुस्कुरा देता—
“थक जाता हूँ, माँ।”

लेकिन सच्चाई यह थी कि घर में कोई उसे समझता नहीं था।

गौरी उससे बात करती तो वह खुल जाता।
उसे लगता जैसे वह किसी पुराने दोस्त से बात कर रहा हो—जो बिना बोले भी सब समझ लेता हो।

उधर गौरी की जिंदगी भी आसान नहीं थी।

जगमोहन बीमारी से ग्रस्त और उदासीन होकर कोने में पड़ा रहता।
कभी-कभार खाँसता, कभी चिढ़कर चिल्ला देता।

गौरी उसकी दवा, खाना और बच्चों की देखभाल अकेले करती।
उसका जीवन एक अटूट जिम्मेदारी बन चुका था।

विराज से मुलाकातें उसे कुछ पल की राहत देती थीं—
एक ऐसा सहारा जिसकी उसे ज़रूरत थी,
पर वह किसी से कह नहीं सकती थी।


कभी-कभी भाग्य दो लोगों को एक ही पथ पर ला खड़ा करता है,
जहाँ शब्द नहीं बोलते—दिल बोलता है।

एक शाम, जब गौरी सब्ज़ी लेकर लौट रही थी, अचानक बिजली चली गई।
गली अँधेरे में डूब गई।
वह घबराई—बच्चे घर में अकेले थे।

तभी विराज पहुँचा।
उसने मोबाइल की टॉर्च जलाकर कहा—

“आइए, मैं छोड़ देता हूँ।”

गौरी कुछ कह पाती इससे पहले ही उसकी आँखों में डर देखकर विराज ने समझ लिया कि वह चिंतित है।

“चलिए, अंधेरा है… रास्ता खराब है,”
विराज ने सहज भाव से कहा।

दोनों साथ चलते रहे।
गौरी को लगा जैसे किसी ने उसके जीवन की अनगिनत परतों में जमा डर को हल्का कर दिया है।

दरवाज़े तक पहुँचकर उसने धीमे स्वर में कहा—

“धन्यवाद।”

विराज बोला—

“कभी भी… अकेली मत आया कीजिए, ठीक है?”

उसकी आँखों में चिंता थी—सच्ची।

उस रात गौरी देर तक सो नहीं सकी।
वह सोचती रही—
क्यों एक अजनबी उसके लिए इतना भाव रखता है?
क्यों उसकी एक मुस्कान उसके दिन भर के दर्द पर मरहम लगा देती है?

उधर विराज भी सोच रहा था—
गौरी की आँखों में जो दर्द है,
क्या वह कभी खत्म होगा?

धीरे-धीरे, ये भावनाएँ किसी नाम की भूख नहीं रखती थीं—बस अपनापन चाहती थीं।


कॉलोनी में बातें बनने लगीं।

“गौरी और वह विराज… रोज़ बातें करते हैं।”
“अरे, दोनों की उम्र भी बराबर है… कुछ न कुछ तो चल रहा होगा।”

लोगों के पास काम भले न हो,
पर दूसरों के जीवन में झाँकने का हुनर खूब था।

जगमोहन, जो अब लाचार और कमजोर हो चुका था,
इन बातों को सुनता तो चुप रहता।
शायद उसे पता था कि उसने गौरी को कभी जीने का मौका ही नहीं दिया।
लोगों की नजरें अब उसे भी चुभने लगी थीं,
पर विरोध की ताकत उसमें बची नहीं थी।

एक दिन उसने बस इतना कहा—

“गौरी… मोहल्ले में लोग बातें बना रहे हैं।
और… तू भी कुछ सोच-समझकर किया कर।”

गौरी ने सिर झुका लिया।

उसने कहा—

“मैं कुछ गलत नहीं करती… बस बातें होती हैं।”

जगमोहन ने लंबी साँस ली—

“गलत क्या है… सही क्या है… इसका फैसला दुनिया जल्दी कर देती है।”

उसकी आवाज़ में पछतावा था या ईर्ष्या—गौरी कभी समझ नहीं पाई।

पर उसके बाद गौरी और विराज की मुलाकातें और भी खामोश हो गईं।
बातें कम, आँखों का आदान-प्रदान ज्यादा।

पर भावनाएँ…
वे किसी पर रुकती नहीं थीं।


वह शहर की वही पुरानी कॉलोनी… वही शाम की हल्की धूप…
लेकिन अब जीवन कुछ बदलने लगा था।

गौरी, जिसका जीवन सालों से कर्तव्यों की जंजीरों में उलझा हुआ था—
अंदर से टूट चुकी थी, पर बाहर से कठोर बनकर जीना उसने सीख लिया था।

विराज उससे उम्र में बराबर, पर दिल से कहीं अधिक समझदार था।
गौरी जब पहली बार उससे मिली थी, बस नमस्ते तक ही रिश्ता था,
लेकिन धीरे-धीरे बातों की ये डोर बढ़कर एक सहारे में बदल गई।

गौरी को पहली बार महसूस हुआ कि कोई उसे समझ रहा है—
उसकी चुप्पी, उसके डर, उसके भीतर की बरसों पुरानी थकान को।

और विराज…
वो तो जैसे किसी अनकहे वादे की तरह उसके आस-पास रहने की वजह ढूँढ ही लेता था।

दोनों के बीच कोई सीमा पार नहीं हुई थी,
पर भावनाएँ
वह तो सीमाएँ देखती ही नहीं थीं।


गौरी के बच्चे अब बड़े हो गए थे।
उन्होंने अपनी माँ के जीवन को हमेशा एक “जिम्मेदारी” के रूप में देखा था,
कभी एक इंसान के रूप में नहीं।

बच्चों को लगता—
उनकी माँ को बस वही करना चाहिए जो घर की इज्ज़त बनाए रखे,
उनके फैसलों के हिसाब से चले।

जब उन्होंने देखा कि विराज अक्सर घर आता है,
तो कानाफूसियां शुरू हो गईं।

“माँ की उम्र में लोग ऐसा करते हैं क्या?”
“पड़ोस में बदनामी हो रही है…”

ऐसी बातें गौरी के दिल में तीर बनकर चुभतीं।
वह कुछ नहीं कह पाती—
क्योंकि उम्रभर कहा ही क्या था?


कॉलोनी की औरतें तो जैसे बस मौका तलाश रही थीं।

“विराज को देखो, दिन-दिन घर आता है…”
“गौरी भी न, उम्र भूल गई है क्या?”
“शर्म तो करनी चाहिए…”

गौरी हर बार पीछे मुड़कर देखती—
क्या सच में उसने कुछ गलत किया है?

क्या अकेली औरत को दोस्ती का हक नहीं?
क्या उसे सहारे की ज़रूरत नहीं?
और सबसे बड़ा सवाल—
क्या वह इंसान नहीं?

लेकिन समाज के जवाब हमेशा एक जैसे थे—
औरत का दिल नहीं होता, सिर्फ़ कर्तव्य होते हैं।


समाज, परिवार, पड़ोस—
सबकी बातों का भार गोरी के चेहरे पर उतरने लगा।
खामोशी बढ़ती जा रही थी।

विराज समझ रहा था।

एक दिन उसने साफ-साफ कहा—

“गौरी, मैं तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं बनना चाहता।
अगर तुम कहो तो मैं आना बंद कर दूँगा…”

गौरी ने सिर झुका लिया।
वह क्या कहती?

वह बोलना चाहती थी—
“मत जाओ… तुम्हारे बिना मैं और टूट जाऊँगी…”

पर उसके होंठ अटक गए।

उसके जीवन में क्या कभी किसी ने उसकी इच्छा पूछी थी?


एक दिन बात हद से आगे बढ़ गई।

गौरी के बड़े बेटे ने गुस्से में कहा—

“माँ! आज के बाद वह आदमी इस घर में कदम नहीं रखेगा!
हमारी बदनामी हो रही है।
अगर आपने उससे बात भी की, तो हमारा रिश्ता खत्म समझिए।”

गौरी पत्थर बन गई।
उसका दिल धड़कना भूल चुका था।

वह जानती थी—
अब वह कुछ नहीं कह पाएगी।
यह वही बच्चा था जिसे उसने  खुद खाना खाकर नहीं, बल्कि खुद भूखी रहकर पाला।
जिसके लिए वर्षों संघर्ष किए…

आज वही बेटा उसे चरित्र के तराजू पर तौल रहा था।


बच्चों के डर से विराज ने आना बंद कर दिया।
लेकिन भावनाएँ कहाँ रुकती हैं?

गौरी कभी किसी पड़ोसन के फोन से बात कर लेती,
कभी चुपके से गेट के पास खड़ी हो जाती—
बस विराज को देखने के लिए।

पर एक दिन यह भी पकड़ा गया।

उसकी बहू ने तानों की बरसात कर दी—

“हमने रोका था न!
अब उम्र में इश्क़ करेंगी?”
“हमें लोगों को क्या जवाब देना है?”

गौरी शांत रही।
उसकी आँखों में सिर्फ़ एक ही सवाल था—
“मेरा अपना जीवन मेरा क्यों नहीं?”


उस दिन गौरी देर शाम बाहर निकली।
कॉलोनी के पार्क की बेंच पर विराज पहले से बैठा था।

दोनों एक-दूसरे को चुपचाप देखते रहे।
बहुत देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।

फिर विराज बोला—

“गौरी…
अब तुम्हारी हालत मैं और नहीं देख सकता।
तुम्हें उम्रभर किसी ने अपना जीवन चुनने नहीं दिया।
पहले पति… फिर बच्चे… फिर समाज…”

गौरी के आँसू गिरने लगे।

वो लंबे समय बाद किसी के सामने टूटी थी।

विराज ने धीरे से कहा—

“अगर तुम चाहो…
तो हम कहीं दूर चल सकते हैं।
जहाँ न कोई जानने वाला हो,
न कोई रोकने वाला.”

गौरी ने सिर उठाया।
उसकी आँखों में पहली बार—
उम्मीद थी।


उस रात गौरी ने कोई बात नहीं की।
वह बस सोचती रही…

कितने साल बीत गए?
जीवन दिया किसके लिए?
और मिला क्या?
अपनी खुशी का एक कतरा भी नहीं।

क्या उसे जीने का हक नहीं?
क्या वह एक इंसान नहीं?

सुबह होते-होते फैसला साफ हो गया।

उसने एक छोटा-सा बैग उठाया,
घर के मंदिर के सामने खड़ी हुई,
और धीरे से कहा—

“हे भगवान…
आज पहली बार मैं अपने लिए जीने जा रही हूँ।
गलत हूँ या सही…
फैसला आपका।
पर मेरी आत्मा आज आज़ाद होना चाहती है।”

वह बाहर आई।
गेट पर विराज खड़ा था।

दोनों ने पीछे मुड़कर एक बार देखा—
वह घर, जिसने उसे सिर्फ़ कर्तव्य दिए,
कभी खुशी नहीं दी।

उसने अंतिम बार अपने आँगन को देखा और कहा—

“अब बस।
अब मैं अपने लिए जिऊँगी।”

और दोनों चल दिए—
एक नए शहर की ओर,
एक नई शुरुआत की ओर।


समाज कहता है—
“यह रिश्ता गलत है।”
पर दिल कहता है—
“गलत तो वह जीवन था जिसमें वह खुद के लिए जी ही नहीं पाई।”

समाज कहता है—
“बच्चों की इज्ज़त खराब।”
पर सच यह है—
बच्चों ने उसकी इज्ज़त कभी समझी ही नहीं।

समाज कहता है—
“उम्र ढल चुकी है।”
दिल कहता है—
“खुशी की कोई उम्र नहीं।”

और यही प्रश्न कहानी का केंद्र बन जाता है—

क्या समाज के अनुसार सब कुछ सही होना चाहिए?
या इंसान की आत्मा के अनुसार?


गौरी और विराज सुबह की पहली बस से किसी दूर शहर पहुँचे।
दोनों ने शहर का नाम भी बिना पूछे चुन लिया था—
क्योंकि अब उनके लिए नामों से ज्यादा मायने रखती थी आज़ादी

बस से उतरते ही दोनों ने एक हल्की-सी राहत महसूस की—
यहाँ उन्हें कोई नहीं जानता।
कोई यह नहीं पूछेगा कि “रिश्ता क्या है?”
कोई ताना नहीं मारेगा कि “उम्र में यह सब शोभा नहीं देता।”

यह पहली बार था
जब गौरी ने अपने कदमों को अपने निर्णयों के साथ आगे बढ़ते महसूस किया।


दोनों के पास बहुत पैसे नहीं थे।
विराज ने किराए पर एक छोटा-सा कमरा लिया—
कमरा छोटा था, पर दोनों के सपनों से बड़ा।

गौरी ने घरों में खाना बनाने और सिलाई का काम पकड़ लिया।
विराज ने एक दुकान में सहायक का काम शुरू कर दिया।

काम कठिन था—
लंबे घंटे, कम पैसे, अपरिचित लोग…

लेकिन एक बात अलग थी—
यह जीवन उन्होंने खुद चुना था।
पहली बार किसी ने उन्हें मजबूर नहीं किया था।

हर शाम दोनों थक कर लौटते,
एक-दूसरे को देखते,
और मुस्कुरा देते।
बस यही मुस्कान पूरे दिन की थकान मिटा देती।


धीरे-धीरे पड़ोसियों ने उन्हें सिर्फ़ “पति-पत्नी” मान लिया।
किसी ने यह नहीं पूछा कि शादी कब हुई थी,
क्यों हुई थी,
किसने कराई थी।

लोगों ने बस इतना देखा—
दो लोग साथ रहते हैं, शांत रहते हैं, काम पर जाते हैं और एक-दूसरे की इज्ज़त करते हैं।

गौरी ने महसूस किया—
इज्ज़त रिश्ते के नाम से नहीं,
व्यवहार से मिलती है।

और यही बात उसे उसकी पुरानी ज़िंदगी की याद दिलाती,
जहाँ वह सबके लिए “कर्तव्यनिष्ठ पत्नी और माँ” थी,
पर किसी की नज़र में “इंसान” नहीं।


अब दोनों के बीच वह संकोच नहीं था,
न डर, न चोरी-छुपी बातचीत,
न कोई दीवार।

अब वह खुलकर हँसते थे,
खुलकर बातें करते,
और एक-दूसरे की थकान मिटा देते।

गौरी अक्सर कहती—

“विराज, मुझे लगता है मैं पहली बार जी रही हूँ।”

विराज मुस्कुरा देता—

“मुझे लगता है मैं पहली बार खुश हूँ।”

उनका प्यार किसी फिल्मी रोमांस जैसा नहीं था—
यह शांत, पर गहरा था…
ठहरे हुए पानी की तरह—
जो बाहर शांत दिखता है,
पर अंदर अथाह है।


लेकिन अतीत इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता।

एक दिन गौरी के मोबाइल पर उसके बेटे का कॉल आया।
बहुत समय से कोई संपर्क नहीं था।

“माँ… आप ठीक हो?”
आवाज़ में गुस्सा नहीं था, बस पछतावा था।

गौरी चुप रही।
उसने पूछा—

“तुम ठीक हो?”

“हाँ माँ… पर घर वैसा नहीं रहा।
आपके बिना खाली-खाली है।”

गौरी की आँखें भर आईं,
पर उसने दिल कड़ा किया।

“मैं खुश हूँ बेटा।
जहाँ हूँ, ठीक हूँ।”

बेटा कुछ कहना चाहता था,
लेकिन गौरी ने बात वहीं खत्म कर दी।

फिर कई दिनों तक वह बेचैन रही।

विराज ने समझाया—

“अतीत छाया जैसा होता है गौरी…
पीछे रहता है, पर आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता।”

और गौरी ने महसूस किया कि
कभी-कभी दूरी ही बेहतर होती है—
खुद के लिए भी, और रिश्तों के लिए भी।


समय के साथ विराज की सेहत कमजोर होने लगी।
काम की थकान, उम्र, और पुरानी परेशानियाँ अपना असर दिखाने लगी थीं।

गौरी उसकी दवा, खाना, और हर ज़रूरत का ध्यान रखती।

एक दिन डॉक्टर ने कहा—

“उन्हें आराम की ज़रूरत है।
टेंशन बिल्कुल मत लेने दीजिए।”

गौरी ने मुस्कुराकर जवाब दिया—

“डॉक्टर साहब,
अब इनके पास टेंशन देने वाला कोई नहीं…
और संभालने वाली मैं हूँ।”

विराज ने उसकी ओर देखा,
और उसकी आँखों में एक गहरा अपनापन उतर आया।

उन्होंने धीरे से कहा—

“जीवन बचा कितना है पता नहीं…
पर जो भी है,
अब उसी के साथ जीना है।”

गौरी ने उसका हाथ थाम लिया।

“हम दोनों मिलकर जितना है, उतना अच्छा जी लेंगे।”


वर्ष बीत गए।
उनका छोटा-सा घर अब यादों से भर चुका था।
गौरी रोज़ सुबह खिड़की खोलती,
धूप अंदर आती, और उसे लगता कि जीवन अब भी मुस्कुरा रहा है।

एक सुबह विराज नींद में ही शांत हो गया।
कोई दर्द नहीं, कोई आह नहीं—
बस एक धीमी-सी साँस के साथ जैसे कह गया—

“धन्यवाद… मुझे जीवन देने के लिए।”

गौरी ने उसे शांत चेहरा देखकर
पहली बार महसूस किया कि
प्यार का अंत मृत्यु नहीं होता—
यादों के रूप में वह हमेशा जिंदा रहता है।

उसने उसकी चीज़ें संभालीं,
तस्वीरें उठाईं,
और अपने दिल में एक शांत सुकून महसूस किया।

वह अकेली थी—
पर इस बार अकेलापन बोझ नहीं था।
यह एक ऐसी संगत का परिणाम था
जो मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होती।


विराज के जाने के बाद
गौरी ने वही शहर नहीं छोड़ा।

क्यों?

क्योंकि यहीं उसने पहली बार
अपने लिए जीना सीखा था।

यहीं उसे बिना सवालों के इज्ज़त मिली थी।
यहीं उसे प्यार मिला था—
पवित्र, शांत, बिना किसी दिखावे का।

गौरी ने एक चीज़ और तय की—
अब वह दूसरों की दया या रिश्ता माँगकर नहीं जिएगी।
वह अब उतनी ही मजबूत हो चुकी थी
कि खुद का जीवन संभाल सके।

हर शाम वह खिड़की पर बैठती,
बिल्कुल वहीं जहाँ विराज बैठा करता था,
और फुसफुसाकर कहती—

“हमने जिंदगी को आखिरकार जी ही लिया, विराज…”
“और यही हमारी जीत है।”


यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती—
क्योंकि प्यार कभी खत्म नहीं होता।

समाज ने शायद उन्हें गलत कहा,
लेकिन इंसानियत ने उन्हें सही ठहराया।
दो टूटे हुए लोग,
जिन्होंने एक-दूसरे के सहारे
जीवन को जीने का नया अर्थ दिया।

सोमवार, 8 सितंबर 2025

“पर्वतों की अधूरी मोहब्बत”

 

“पर्वतों की अधूरी मोहब्बत”

(एक ट्रैजिक लव स्टोरी)



हिमालय की ऊँची चोटियों के बीच बसा एक छोटा-सा गाँव था – लाचुंग, सिक्किम की पहाड़ियों में।
यहाँ के घर लकड़ी और पत्थर से बने थे। सर्दियों में जब बर्फ़ गिरती, तो पूरा गाँव सफेद चादर ओढ़ लेता।

यहीं रहता था अभिषेक, उम्र 28 साल।
गाँव का स्कूल टीचर।
सादा जीवन, सादा पहनावा, और गहरी आँखें जिनमें पहाड़ों जैसी गहराई छुपी थी।

अभिषेक का जीवन दिनचर्या में बंधा हुआ था।
सुबह बच्चों को पढ़ाना, दोपहर को खेतों में बुजुर्गों की मदद करना, और शाम को नदी किनारे बैठकर किताबें पढ़ना।

लेकिन उसके दिल में हमेशा एक खालीपन रहता।
वह अक्सर आसमान को देखकर सोचता –
“क्या मेरे लिए भी कोई है… जो इन पहाड़ों से होकर मेरे पास आएगा?”


एक दिन गाँव में एक नई बस्ती बसी।
कुछ लोग गंगटोक से आकर यहाँ रहने लगे।
उनमें थी कनिका, उम्र 24 साल।

कनिका का परिवार शहर की भागदौड़ से थककर शांति की तलाश में पहाड़ों में आया था।
कनिका का चेहरा बिल्कुल साफ़ झरने जैसा था – मासूम, शांत और गहरी आँखों वाला।

पहली बार जब अभिषेक ने कनिका को देखा, वह नदी किनारे बैठी थी।
हाथ में एक डायरी, और आँखों में बेचैनी।

अभिषेक ने सहजता से पूछा –
“तुम लिखती हो?”

कनिका ने हल्की मुस्कान के साथ कहा –
“हाँ… शायद अपने दिल की बातें।
पहाड़ सुनते हैं, लोग नहीं।”

अभिषेक उस दिन से उसके शब्दों में खो गया।


दिन बीतने लगे।
कनिका और अभिषेक की मुलाक़ातें बढ़ने लगीं।
कभी स्कूल के बच्चों को पढ़ाने में कनिका मदद करती, तो कभी दोनों गाँव की पगडंडियों पर साथ-साथ चलते।

एक दिन शाम को, जब बादल घाटी में उतर आए थे, अभिषेक ने कहा –
“इन पहाड़ों की ख़ामोशी में अजीब जादू है।
कभी-कभी लगता है, ये हमारी धड़कनों को सुन लेते हैं।”

कनिका ने धीमे स्वर में जवाब दिया –
“और अगर इन पहाड़ों की कोई धड़कन होती… तो वो तुम्हारे जैसी होती।”

उस पल दोनों की आँखें मिलीं।
पहाड़ जैसे गवाह बन गए उनकी बढ़ती मोहब्बत के।


कनिका का एक शौक़ था – लोकगीत गाना।
गाँव में जब भी कोई त्योहार होता, वह मंद स्वर में गाती।

एक रात तीज का त्योहार था।
आसमान में चाँद, और घाटी में दीपक जल रहे थे।
कनिका ने गाना शुरू किया –

"नदी के पार से बुलाए कोई,
हवा में गूंजे उसका नाम,
पलकों में बसी तस्वीर वही,
जिसे चाहे मेरा अरमान…"

गाना सुनकर अभिषेक की आँखें भीग गईं।
उसे लगा, जैसे हर शब्द उसी के लिए था।


लेकिन किस्मत हमेशा प्रेमियों पर मेहरबान नहीं होती।

एक दिन कनिका को उसके पिता ने बुलाया।
उन्होंने कहा –
“बेटी, तुम्हारी शादी शहर के एक अच्छे परिवार में तय कर दी है।
यहाँ पहाड़ों में रहकर तुम्हारा भविष्य सुरक्षित नहीं है।”

कनिका के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
उसकी आँखों में आँसू थे।
वह अभिषेक के पास गई और रोते हुए बोली –
“अभिषेक, मैं चाह कर भी तुम्हारी नहीं हो सकती।
मेरे परिवार की जिद्द… मेरे सपनों से बड़ी है।”

अभिषेक ने उसका हाथ थामकर कहा –
“अगर तुम चली भी गई… तो मेरा दिल हमेशा यहीं रहेगा, तुम्हारे साथ।”


शादी से पहले का दिन।
गाँव में भारी बारिश हो रही थी।
बादल गरज रहे थे, जैसे आसमान भी रो रहा हो।

अभिषेक और कनिका नदी किनारे आखिरी बार मिले।
अभिषेक ने कहा –
“कनिका, जब भी हवाएँ तेज़ चलेंगी… तुम्हें मेरी आवाज़ सुनाई देगी।
मैं इन्हीं पहाड़ों पर रहूँगा, तुम्हारा इंतज़ार करते हुए।”

कनिका ने रोते हुए कहा –
“अभिषेक, तुम मेरी अधूरी मोहब्बत हो।
काश ये पहाड़ हमें जोड़ पाते…”

फिर वह चली गई।
गाँव की गलियों से, अभिषेक की ज़िंदगी से।


वर्षों बीत गए।
कनिका शहर में बस गई। शादी कर ली, लेकिन दिल के किसी कोने में अभिषेक हमेशा ज़िंदा रहा।

अभिषेक?
वह कभी शादी नहीं कर पाया।
वह हर शाम पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर बैठता… और क्षितिज को ताकता।

गाँव वाले कहते –
“जब हवाएँ घाटी से गुजरती हैं, उनमें एक नाम गूँजता है… कनिका।”



सोमवार, 1 सितंबर 2025

"अधूरी मोहब्बत – एक ऐसा रिश्ता जो ज़िंदगी भर साथ चला"

 

"वो आख़िरी मुलाक़ात एक प्रेम कहानी जो पूरी न हो सकी"




दिल्ली की गर्मी इन दिनों अपने चरम पर थी। पारा रोज़-रोज़ रिकॉर्ड तोड़ रहा था।
राज, जो कि दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में सीनियर अकाउंटेंट के पद पर काम करता था, हर दिन एयर कंडीशनर के कमरे में बैठा-बैठा भी पसीना महसूस करता था।
उसे बचपन से ही घूमने-फिरने का शौक था, लेकिन पिछले कई सालों से नौकरी और ज़िम्मेदारियों में उलझकर उसका यह शौक कहीं खो-सा गया था।

इस बार जब गर्मी असहनीय हो गई, तो राज ने तय किया
"बस, अब और नहीं। इस बार छुट्टी में कहीं ठंडी और सुकून भरी जगह जाना ही है।"

ऑफिस से लौटते समय वह अपने पुराने दोस्त रवि के पास गया, जो उसी कंपनी में मार्केटिंग डिपार्टमेंट में काम करता था।
रवि तो वैसे ही घूमने का दीवाना था, बस उसे एक सही साथी की तलाश रहती थी। राज ने जैसे ही नैनिताल का नाम लिया, उसकी आंखों में चमक आ गई।

रवि: "भाई, नैनिताल तो मेरी भी लिस्ट में है! तू बोल, कब चलना है?"
राज: "अगले हफ्ते की छुट्टी में, ताकि भीड़ भी थोड़ी कम हो।"
रवि: "तो पक्का कर ले टिकट, मैं बैग पैक कर लूंगा।"

राज ने उसी रात लैपटॉप खोला और ट्रेन की बुकिंग शुरू कर दी।
दिल्ली से काठगोदाम तक ट्रेन का सफर और फिर वहां से टैक्सी या बस से नैनिताल यही सबसे सुविधाजनक रास्ता था।
काठगोदाम तक ट्रेन में रिजर्वेशन मिलना आसान नहीं था, लेकिन किस्मत ने साथ दिया और दो बर्थ कंफर्म हो गईं।

सुबह-सुबह स्टेशन की हलचल में राज और रवि अपने बैग खींचते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुंचे।
ट्रेन जैसे ही दिल्ली से रवाना हुई, दोनों दोस्तों ने एक गहरी सांस लीमानो शहर की भागदौड़ पीछे छूट रही हो।

खिड़की के बाहर नज़ारे बदलने लगे
पहले ऊँची-ऊँची इमारतें, फिर खेतों की हरियाली, और फिर दूर-दूर तक फैले छोटे-छोटे गांव।

करीब सात घंटे बाद ट्रेन काठगोदाम पहुंची।
जैसे ही प्लेटफॉर्म पर उतरे, पहाड़ों की ठंडी हवा ने उनका स्वागत किया।
सामने हल्की-हल्की धुंध, और दूर-दूर तक हरे-भरे पहाड़राज के चेहरे पर अनायास मुस्कान आ गई।

स्टेशन से बाहर निकलकर उन्होंने एक साझा टैक्सी ली।
रास्ते में घुमावदार सड़कों से गुजरते हुए, नीचे गहरी घाटियां और ऊपर आसमान को छूते देवदार के पेड़सब कुछ मानो किसी सपनों की दुनिया का हिस्सा हो।

राज ने अपनी आंखों में यह नज़ारे भर लिए।
उसे नहीं पता था कि यह यात्रा सिर्फ एक सैर नहीं, बल्कि उसकी जिंदगी का सबसे अहम मोड़ बनने वाली है।

शाम तक वे नैनिताल पहुंचे और एक छोटे लेकिन आरामदायक होटल में रुकने का इंतज़ाम कर लिया।
कमरे की बालकनी से नज़ाराझील का पानी, उस पर तैरती नावें, और चारों तरफ पहाड़मानो पोस्टकार्ड की तस्वीर।

थोड़ी देर आराम करने के बाद दोनों बाहर घूमने निकले।
पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलते हुए वे झील किनारे पहुंचे और वहीं से ऊपर की ओर निकल गए।
राज का मन वहां की सुंदरता में इतना खो गया कि समय का पता ही नहीं चला।

जब आसमान में अंधेरा घिरने लगा, तो दोनों को एहसास हुआ कि वे होटल से काफी दूर आ गए हैं।
वापस लौटने लगे, लेकिन रास्ता पहचाना नहीं।
घुमावदार पगडंडियों में वे इधर-उधर भटकते रहे, तभी दूर एक आदमी दिखाई दिया।

राज ने उससे रास्ता पूछा।
उसने उन्हें देखा और कहा
"आप लोग यहां से होटल नहीं पहुंच पाएंगे। यह इलाका सुनसान है, और रात में जंगली जानवर भी निकल आते हैं।"

उस आदमी का नाम मोहन था।
वह गांव का रहने वाला था और उसी रास्ते के पास उसका घर था।
उसने कहा
"मेरे साथ आ जाइए, रात यहीं बिता लीजिए। सुबह आपको होटल छोड़ दूंगा।"

राज और रवि ने एक-दूसरे को देखा और हामी भर दी।
मोहन का घर लकड़ी और पत्थर से बना था, चारों तरफ फूलों का बगीचा और अंदर गरमाहट से भरा माहौल।

मोहन की बेटी अंजलि  रसोई में चाय बना रही थी।
करीब 21-22 साल की, साधारण लेकिन बेहद खूबसूरत।
उसकी आंखों में एक मासूम चमक थी और मुस्कान में अपनापन।

रात को सबने साथ में खाना खायागर्म रोटियां, आलू की सब्जी, और पहाड़ी राजमा।
अंजलि ने चुपचाप प्लेट में खाना परोसा, लेकिन राज की नज़र बार-बार उस पर चली जाती।

रात को सोने से पहले राज को महसूस हुआ कि उसके दिल में कोई अनजाना एहसास जन्म ले रहा है

राज और रवि अपने होटल लौट आए थे। होटल की बालकनी से दूर तक फैले हुए झील के किनारे की हल्की-हल्की रोशनी और पहाड़ों के बीच बहती ठंडी हवा, राज के मन को अजीब-सी शांति दे रही थी। लेकिन इस शांति के बीच कहीं न कहीं अंजलि का चेहरा उसके ज़ेहन में बार-बार आ रहा था।

रात में उसने कई बार करवटें बदलीं, आंखें मूंदते ही उसे वही नज़ारा याद आतालकड़ी का छोटा-सा घर, दीपक की मंद रोशनी, और उस रोशनी में बैठी अंजलि की मासूम मुस्कान

अगली सुबह नैनिताल की ठंडी हवाओं और खिड़की से आती हल्की धूप ने राज को जगाया। कमरे के बाहर से पक्षियों की चहचहाहट और दूर से आती मंदिर की घंटियों की आवाज़ मानो किसी दूसरी ही दुनिया का एहसास करा रही थी। रवि तो अभी भी सोया हुआ था, लेकिन राज जल्दी उठकर होटल के बाहर आ गया। सामने झील का पानी धूप में सुनहरी चमक बिखेर रहा था और पहाड़ों पर हल्के-हल्के बादल तैर रहे थे।

उसके मन में कल रात की घटना ताज़ा थी वो कैसे रास्ता भटक गए थे, और कैसे उस अनजान व्यक्ति ने उन्हें अपने घर में ठहराया। और फिरअंजलि। उस मासूम चेहरे पर हल्की सी मुस्कान, आंखों में पहाड़ी झील जैसी गहराई, और बोलने का वो सादा अंदाज़राज बार-बार उसी पल में लौट जा रहा था।

रवि भी उठकर बाहर आया, और दोनों ने चाय पीते-पीते आज का प्लान बनाया। आज हम सबसे पहले माँ नैना देवी के मंदिर जाएंगे,” रवि ने कहा। राज ने हामी भर दी, लेकिन उसके मन में बस यही था कि शायदशायद वहां फिर से अंजलि मिल जाए।

मंदिर तक का रास्ता खूबसूरत था दोनों तरफ़ दुकानों में रंग-बिरंगे शॉल, लकड़ी की नक्काशी के शोपीस और गर्म मोमोज़ की खुशबू। मंदिर पहुंचते ही हल्की-सी ठंडी हवा चेहरे को छू गई। घंटियों की आवाज़, भजन की धुन और भक्तों का जमावड़ामाहौल बेहद पवित्र था।

सुबह-सुबह मंदिर के प्रांगण में जब राज ने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, तो उसे भीड़ के बीच अंजलि दिखाई दी।

वह सफ़ेद सलवार-कुर्ते में, हाथ में पूजा की थाली लिए खड़ी थी। उसे देखते ही राज का चेहरा खिल उठा।
"आप यहाँ…?" राज ने हल्के आश्चर्य से कहा।
अंजलि मुस्कुराई, "हाँ, मैं तो अक्सर आती हूँऔर आप?"
"पहली बार आया हूँ। पर लगता है अब बार-बार आना पड़ेगा," राज ने धीमे स्वर में कहा।

अंजलि ने उसकी बात सुनकर हल्की-सी हंसी हंसी, और फिर दोनों ने साथ में पूजा की। उसके बाद राज और अंजलि मंदिर के पीछे के रास्ते पर कुछ देर टहलते रहे। राज ने उससे उसकी पढ़ाई, परिवार और भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा।

अंजलि ने बताया कि वह अपने माता-पिता के साथ रहती है, पिता खेती करते हैं और माँ गृहिणी हैं। वह ग्रेजुएशन के बाद मास्टर डिग्री करना चाहती है, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है।

राज चुपचाप सुनता रहा, लेकिन मन ही मन सोच रहा था"ये लड़की कितनी सादगी से अपने सपने सँजो रही है…"

उस दिन के बाद, राज को जैसे कोई वजह मिल गई थी नैनिताल में हर सुबह जल्दी उठने की। वह और रवि दिन में घूमते, लेकिन शाम होते-होते वह अंजलि से मिलने का कोई न कोई बहाना बना लेता। कभी वह कहता कि उसे बाजार का रास्ता दिखा दो, कभी झील के किनारे की सैर का न्योता दे देता।

इन मुलाक़ातों में वे दोनों सिर्फ़ पढ़ाई या मौसम की बात नहीं करते थे, बल्कि अपनी छोटी-छोटी खुशियों और परेशानियों को भी बांटते थे।

राज ने महसूस किया कि उसकी यात्राओं में अब तस्वीरें और नज़ारे कम, और अंजलि की मुस्कान ज़्यादा कैद होने लगी है।

रवि ने एक शाम मज़ाक करते हुए कहा,
"राज भाई, लगता है पहाड़ों का नज़ारा तुम्हें कम और एक पहाड़ी परी का नज़ारा ज़्यादा भा रहा है।"
राज ने हंसते हुए कहा, "अरे नहीं यार, बस अच्छी दोस्ती हो गई है।"
लेकिन दिल में वह जानता थायह दोस्ती अब दोस्ती से आगे बढ़ चुकी है।

उस दिन के बाद जैसे कोई अनकहा वादा हो गया रोज़ शाम को झील किनारे मिलना, चाय पीते-पीते बातें करना, और पहाड़ों की खामोशी में एक-दूसरे को सुनना। राज को महसूस होने लगा कि वो सिर्फ घूमने नहीं आया है, उसकी यात्रा में अब एक नया मकसद जुड़ गया है अंजलि

अंजलि भी धीरे-धीरे राज के साथ खुलने लगी। उसने बताया कि वो ग्रेजुएशन कर रही है और आगे पढ़कर टीचर बनना चाहती है। राज ने भी अपने बारे में बताया दिल्ली में नौकरी, घूमने का शौक, और कैसे वो अचानक यहाँ चला आया।

राज और अंजलि की मुलाकातें अब रोज़ की आदत बन चुकी थीं। सुबह की चाय, दिन के काम और शाम के पहाड़ी रास्तों पर घूमनाइन सबमें अब एक अंजाने से अपनत्व की डोर बंध चुकी थी।

अंजलि अक्सर राज को अपने कॉलेज के किस्से सुनातीकितना कठिन होता है पहाड़ों में पढ़ाई करना, किताबें और नोट्स लाने के लिए कितनी दूर जाना पड़ता है, और कैसे पहाड़ी मौसम अचानक बदलकर बारिश या कोहरे में बदल जाता है।

राज ध्यान से सुनता, और बीच-बीच में अपने दिल्ली के अनुभव साझा करताभीड़ भरी मेट्रो, शोरगुल वाली सड़कें, देर रात तक जगमगाती रोशनियां।
तुम्हारे यहां की रातें कितनी शांत हैं,” राज ने एक शाम कहा, जब वे दोनों नैन झील के किनारे बैठे थे।
अंजलि मुस्कुराई, “शांत तो हैं, लेकिन कभी-कभी यह खामोशी भारी भी लगती है।

इन चंद दिनों में ही राज को लगने लगा था कि वह सिर्फ नैनिताल की खूबसूरती से नहीं, बल्कि यहां के एक हिस्सेअंजलिसे जुड़ गया है।

दोनों के बीच की ये नज़दीकियां इतनी स्वाभाविक थीं कि समय का पता ही नहीं चलता था। पाँच दिन कब बीत गए, दोनों को पता ही नहीं चला।

 

आख़िरी दिन राज और रवि ने सोचा कि माँ नैना देवी के मंदिर जाना चाहिए। मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते समय हवा में भक्ति और पहाड़ी फूलों की खुशबू घुली हुई थी। मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही राज ने देखाअंजलि वहीं खड़ी थी, आरती में लीन।
उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी, और माथे पर हल्का सा सिंदूर जैसा तिलकशायद आरती की रोली।

आरती के बाद अंजलि ने राज को देखा और मुस्कुरा दी।
आप यहां?” उसने आश्चर्य से पूछा।
माँ के दर्शन करने आया था... और लगता है माँ ने तुम्हारे दर्शन का भी इंतज़ाम कर दिया,” राज ने हंसते हुए कहा।

आखिरी दिन, स्टेशन जाने से पहले राज और रवि ने झील किनारे बैठकर कॉफी पी। अंजलि भी वहाँ आ गई। तीनों ने साथ में हँसी-मज़ाक किया, लेकिन सबके दिल में एक अजीब-सी चुप्पी थी।

लेकिन समय किसी के लिए नहीं रुकता।
राज और रवि की वापसी का दिन आ गया। स्टेशन जाने से पहले राज ने अंजलि से मुलाकात की।

राज ने कहा, “अंजलि, मैं वापस जा रहा हूँलेकिन क्या तुम मुझे भूल जाओगी?”
अंजलि ने मुस्कुराकर कहा, “भूलना इतना आसान होता, तो शायद हम पहली मुलाकात ही याद ना रखते।

शायद अब हम लंबे समय तक नहीं मिल पाएंगे,” राज ने धीमे स्वर में कहा।
लेकिन बातें तो हो सकती हैं,” अंजलि ने कहा और अपना नंबर एक छोटे से कागज़ पर लिखकर राज को दे दिया।

ट्रेन छूट गई, लेकिन उस कागज़ के टुकड़े ने जैसे दोनों के बीच की दूरी मिटा दी।

दिल्ली पहुंचते ही राज ने अंजलि को फोन किया।
सही से पहुंच गए?”
हांलेकिन ऐसा लग रहा है जैसे कुछ पीछे छूट गया,” राज ने जवाब दिया।
उस दिन के बाद से रोज़ बातें होने लगींकभी घंटों, कभी बस कुछ मिनटों के लिए।

धीरे-धीरे यह दोस्ती एक गहरे प्यार में बदलने लगी। राज ने एक दिन साहस करके कहा,
अंजलिमैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।

फोन के दूसरी ओर चुप्पी छा गई।
राजये आसान नहीं है। मेरे घर वाले…” अंजलि की आवाज़ भर्रा गई।
राज ने उसे समझाया कि वे सब ठीक कर लेंगे।

लेकिन किस्मत शायद कुछ और चाहती थी।

राज और अंजलि की बातें अब और भी गहरी होने लगी थीं। पहले सिर्फ हालचाल पूछने वाली बातें अब जीवन के सपनों, डर, उम्मीदों और रिश्तों तक आ पहुँची थीं। फोन पर उनकी आवाज़ में एक अजीब-सी गर्माहट होती, जो शब्दों से ज़्यादा दिल को छूती थी।

एक शाम, जब पहाड़ों में हल्की बारिश हो रही थी और दिल्ली में राज अपने ऑफिस से घर लौट रहा था, अंजलि ने फोन किया।

"राज…," उसने धीमे स्वर में कहा, "तुमसे एक बात कहनी है।"

"बोलो न," राज ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "इतनी धीमी आवाज़ क्यों? जैसे कोई राज़ बताने वाली हो।"

"हाँये राज़ ही है," अंजलि ने हल्के से हँसते हुए कहा, "तुमसे मिलने के बाद मुझे लगता है, जैसे मेरी ज़िंदगी में कुछ नया रंग भर गया हो।"

राज का दिल धड़क उठा। "अंजलिये तो वही बात है जो मैं भी महसूस करता हूँ।"

कुछ पलों की चुप्पी रहीफिर अंजलि ने कहा, "लेकिन राजये रास्ता आसान नहीं है। हमारे घरों की सोच, हमारे परिवारसब कुछ अलग है।"

राज ने दृढ़ स्वर में कहा, "अंजलि, मैं मुश्किलों से डरने वालों में से नहीं हूँ। मैं तुम्हें पाने के लिए हर कोशिश करूँगा।"

कुछ हफ्तों बाद, राज ने ठान लिया कि अब अंजलि से शादी की बात करनी ही होगी। उसने अपने परिवार से बात की। माँ थोड़ी चुप रहीं, लेकिन पिता ने साफ कह दिया,
"राज, तुम्हें पता है, पहाड़ के लोगों और हमारे रीति-रिवाज़ में बहुत फर्क है। ये रिश्ता आसान नहीं होगा।"

राज ने तर्क दिया, "पापा, प्यार रीति-रिवाज़ से बड़ा होता है।"
लेकिन पिता ने सिर्फ इतना कहा, "तुम्हें सोच-समझकर फैसला लेना होगा।"

इधर अंजलि ने भी अपने परिवार से बात की। उसके पिता ने गंभीर स्वर में कहा,
"अंजलि, वो लड़का शहर का है, उसकी सोच, उसका रहन-सहन अलग है। शादी सिर्फ दो लोगों का नहीं, दो परिवारों का मेल होता है।"

अंजलि चुप रहीउसकी आँखों में नमी थी।

नवंबर की ठंडी हवाएँ दिल्ली की गलियों में फैल चुकी थीं। राज कई दिनों से बेचैन था। फोन पर अंजली की आवाज़ अब पहले जैसी नहीं रही थीवो हँसी, वो अपनापनसब जैसे किसी पर्दे के पीछे छिप गया हो। हर कॉल बस औपचारिक बातें, और फिर "ठीक है, बाद में बात करेंगे" पर खत्म हो जाती थी। हर कॉल में एक अजीब-सी खामोशी होती, जैसे दोनों दिल में बहुत कुछ कहना चाहते हों, लेकिन ज़ुबान तक आते-आते शब्द थक जाते हों।

एक शाम राज को अंजली का मैसेज आया "मुझसे मिलोगे?"
उसके बाद एक और लाइन "शायद ये हमारी आखिरी मुलाक़ात होगी।"

राज के दिल में जैसे किसी ने पत्थर रख दिया। उसने तुरंत कॉल किया
"अंजली, ये कैसी बात कर रही हो?"
"बसमिल लो। कल, शाम को, नैनीताल वाले कैफ़े में।"
उसकी आवाज़ में एक ऐसी थकान थी, जो किसी ने ज़िंदगी भर का सफर तय करके पाई हो।

अगले दिन राज नैनीताल पहुँचा। वही झील, वही ठंडी हवा, वही भीड़लेकिन सबकुछ फीका लग रहा था। वह कैफ़े पहुँचा तो अंजली पहले से वहाँ बैठी थी सफ़ेद सलवार, हल्का-सा दुपट्टा, और आँखों में नमी छुपाने की नाकाम कोशिश।

राज बैठ गया। दोनों के बीच कुछ पल की चुप्पी रही।
"अंजलीये आखिरी क्यों?"
"क्योंकि राजमैं हार गई। पापा ने मेरी शादी तय कर दी है। मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन…" उसकी आवाज़ भर्रा गई।
राज ने गहरी सांस ली, जैसे अपने दिल के टूटने की आवाज़ दबा रहा हो। "तो येबस इतना ही था?"
"नहीं राज, ये कभी 'बस' नहीं था। ये मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा था। लेकिन हमशायद कभी साथ नहीं हो सकते।"

"राज, मैं नहीं चाहती कि तुम और उम्मीद रखो। हम दोनों ने जो वक्त साथ बिताया, वो मेरी जिंदगी की सबसे प्यारी याद हैलेकिन अब…"
उसने नज़रें झुका लीं।

राज ने काँपते हुए हाथ से उसका हाथ थाम लिया, "अंजली, क्या इतना आसान है सब छोड़ देना?"
अंजली की आँखों से आँसू गिरने लगे, "आसान नहीं हैपर मजबूरी है। मैं तुम्हारे साथ सपने देख सकती हूँ, लेकिन उन्हें पूरा करने की ताकत मुझमें नहीं है।"

दोनों चुप हो गए। वेटर ने कॉफी रखी, लेकिन किसी ने उसे हाथ भी नहीं लगाया। कॉफी ठंडी हो चुकी थी। राज ने बस इतना कहा, "अच्छातो अब मैं तुम्हें दुआओं में रखूँगा, शिकायतों में नहीं।"

दोनों चुप रहे।
अंजली ने अपना हाथ राज के हाथ पर रखा – "तुमसे मिलना, तुम्हारे साथ वो दिनवो हंसी, वो बातेंमैं कभी नहीं भूलूँगी।"
राज की आँखें भर आईं – "और मैं भी। शायद हम एक-दूसरे के लिए बने थेबस वक्त हमारे लिए नहीं बना।"

अंजली ने धीरे से कहा, "अपना ख्याल रखना।"
राज ने सिर हिलाया, पर बोल नहीं पाया।
शाम ढलने लगी। अंजली उठी, और बिना पीछे देखे बाहर निकल गई। राज बस उसे जाते हुए देखता रहा, जैसे कोई अपना सपना दूर जाते हुए देखता हैबिना कुछ कर पाने के।

उस दिन झील का पानी भी जैसे उदास था, और ठंडी हवा में एक अजीब-सी खामोशी थीजैसे नैनीताल भी उनकी मोहब्बत के बिछड़ने का गवाह बन गया हो।

राज नैनीताल में दो दिन रहा और आज उसकी ट्रेन थी काठगोदाम 
से, भारी मन से उसने होटल से चेकआउट किया और स्टेशन के 
लिए निकल गया
राज के मन में पूरे रास्ते एक ही बात गूंज रही थी
"क्या ये सच में हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी?"
काठगोदाम स्टेशन के उस छोटे-से प्लेटफ़ॉर्म पर, हल्की-हल्की ठंडी
हवा चल रही थी। आसमान में बादल बिखरे हुए थे, जैसे मौसम भी
उनकी जुदाई का गवाह बनना चाहता हो।

लेकिन ये क्या अंजली वहाँ पहले से खड़ी थी। हाथ में एक छोटा-सा बैग, आँखों में अधूरी नींद और चेहरे पर अजीब-सी थकान। राज ने उसे देखा तो पल भर को सब कुछ रुक-सा गया। वो वही अंजली थी, जिसके साथ उसने नैनीताल की गलियों में हँसते हुए चाय पी थी, जिसके साथ ताल के किनारे घंटों बैठा था, लेकिन अब उसकी आँखों में वो चमक नहीं थी।

राज धीरे-धीरे उसके पास पहुँचा।
"कैसी हो?" — उसकी आवाज़ में एक सर्द-सी कंपकंपी थी।
"ठीक हूँ..." अंजली ने बहुत धीमे कहा, लेकिन उसकी आँखें कह रही थीं कि वो बिलकुल ठीक नहीं है।

कुछ देर दोनों चुप रहे। आसपास चायवाले की आवाज़, बच्चों की हँसी और ट्रेनों की सीटी सब सुनाई दे रहे थे, लेकिन उनके बीच सिर्फ़ खामोशी थी।

"राज, मैंने बहुत कोशिश की..." अंजली की आँखें भर आईं, "पर पापा नहीं मानें। उनका कहना है कि ये रिश्ता मुमकिन नहीं है।"
राज ने उसकी तरफ देखा, उसके होठ हिल रहे थे लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे। वो जानता था, ये बात अंजली के लिए भी आसान नहीं थी।

"तो फिर..." राज ने बड़ी मुश्किल से कहा — "हम?"
अंजली ने बस अपना सिर झुका लिया। वो चाहती तो थी कि रो पड़े, लेकिन खुद को रोक रही थी।

ट्रेन आने की घोषणा हुई। दोनों ने एक-दूसरे को देखा।
राज ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, अंजली ने पकड़ लिया। उनकी उंगलियाँ कसकर एक-दूसरे से लिपट गईं, जैसे छोड़ने से पहले आख़िरी बार महसूस करना चाहती हों।

"राज, अगर अगले जन्म में हम मिले तो वक़्त और हालात हमारे खिलाफ़ न हों..."
ये कहते-कहते अंजली की आँखों से आँसू गिर पड़े।

राज ने बस इतना कहा— "अगला जन्म नहीं, इस जन्म में भी मैं तुम्हें याद रखूँगा।"

ट्रेन आ गई। राज धीरे-धीरे डिब्बे में चढ़ा, और खिड़की से अंजली को 
देखता रहा। ट्रेन चल पड़ी। राज ने तब तक हाथ हिलाया, जब तक 
अंजली नज़रों से ओझल नहीं हो गई

प्लेटफ़ॉर्म पर सिर्फ़ हवा रह गई, और अंजली के दिल में एक ख़ालीपन।

थोड़ी देर बाद अंजलि भी दुखी मन से घर को लौट आई

 

साल बीत गए।
राज अब पचास का हो चुका था। बालों में सफेदी, आँखों में हल्की थकान, और चेहरे पर जिंदगी के अनुभवों की लकीरें। अब उसका बेटा कॉलेज में था और बेटी की शादी हो चुकी थी।

एक दिन वह देहरादून में एक सेमिनार के लिए गया। लंच ब्रेक में वह होटल की लॉबी में बैठा चाय पी रहा था, तभी दरवाजे से एक महिला अंदर आई हल्की साड़ी, कंधों तक बाल, और वही मुस्कान
अंजली।

वो पल जैसे रुक गया।
दोनों की नज़रें मिलीं, और दोनों के चेहरे पर एक साथ हैरानी और मुस्कान उभर आई।
"राज!" अंजली ने धीरे से कहा।
"अंजली…" – उसके होंठों से बस यही निकला।

वे एक किनारे बैठ गए।
अंजली ने बताया कि शादी के बाद उसकी जिंदगी आसान नहीं रही, लेकिन उसने बच्चों की परवरिश और खुद को संभालना सीखा। अब उसका बेटा विदेश में है, और बेटी की शादी हो चुकी है।
राज ने भी अपनी कहानी सुनाई ज़िम्मेदारियों, सपनों और अधूरे अरमानों की।

कुछ देर दोनों चुप रहे।
अंजली बोली – "जानते हो, राजमैंने कभी तुमसे मोहब्बत करना बंद नहीं किया। बसजिंदगी ने हमें अलग रास्ते दे दिए।"
राज मुस्कुराया – "मुझे पता है। और मैं भी…"

उन्होंने तय किया कि अब वे अतीत को कुरेदेंगे नहीं। बस आज की इस मुलाक़ात को एक खूबसूरत तोहफे की तरह याद रखेंगे।

शाम को जब अंजली जाने लगी, उसने राज से हाथ मिलाया और कहा
"शायद हम फिर कभी न मिलेंलेकिन अगर मिलें, तो यूं ही मुस्कुराते रहना।"
राज ने सिर हिलाया – "हमेशा।"

अंजली चली गई, और राज बाहर देखते हुए सोचता रहा
कुछ कहानियां कभी पूरी नहीं होतीं,
लेकिन अधूरी रहकर ही वो दिल में हमेशा ज़िंदा रहती हैं


“दूर कहीं उजाला”

  कहानी: “दूर कहीं उजाला” (एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा) पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव —टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी...