"वो आख़िरी मुलाक़ात – एक
प्रेम कहानी जो पूरी न हो सकी"
दिल्ली की गर्मी इन
दिनों अपने चरम पर थी। पारा रोज़-रोज़ रिकॉर्ड तोड़ रहा था।
राज, जो कि दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में
सीनियर अकाउंटेंट के पद पर काम करता था, हर दिन एयर कंडीशनर के कमरे में बैठा-बैठा भी पसीना महसूस करता
था।
उसे बचपन से ही घूमने-फिरने का शौक था,
लेकिन पिछले कई सालों से नौकरी और ज़िम्मेदारियों
में उलझकर उसका यह शौक कहीं खो-सा गया था।
इस बार जब गर्मी
असहनीय हो गई, तो
राज ने तय किया—
"बस,
अब और नहीं। इस बार
छुट्टी में कहीं ठंडी और सुकून भरी जगह जाना ही है।"
ऑफिस से लौटते समय वह
अपने पुराने दोस्त रवि के पास गया, जो उसी कंपनी में मार्केटिंग
डिपार्टमेंट में काम करता था।
रवि तो वैसे ही घूमने का दीवाना था,
बस उसे एक सही साथी की तलाश रहती थी।
राज ने जैसे ही नैनिताल का नाम लिया, उसकी आंखों में चमक आ गई।
रवि: "भाई, नैनिताल तो मेरी भी लिस्ट में है! तू
बोल, कब चलना है?"
राज: "अगले हफ्ते की छुट्टी में, ताकि भीड़ भी थोड़ी कम हो।"
रवि: "तो पक्का कर ले टिकट, मैं बैग पैक कर लूंगा।"
राज ने उसी रात
लैपटॉप खोला और ट्रेन की बुकिंग शुरू कर दी।
दिल्ली से काठगोदाम
तक ट्रेन का सफर और
फिर वहां से टैक्सी या बस से नैनिताल — यही सबसे सुविधाजनक रास्ता था।
काठगोदाम तक ट्रेन में रिजर्वेशन मिलना
आसान नहीं था, लेकिन
किस्मत ने साथ दिया और दो बर्थ कंफर्म हो गईं।
सुबह-सुबह स्टेशन की
हलचल में राज और रवि अपने बैग खींचते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुंचे।
ट्रेन जैसे ही दिल्ली से रवाना हुई,
दोनों दोस्तों ने एक गहरी सांस ली—
मानो शहर की भागदौड़ पीछे छूट रही हो।
खिड़की के बाहर
नज़ारे बदलने लगे—
पहले ऊँची-ऊँची इमारतें, फिर खेतों की हरियाली, और फिर दूर-दूर तक फैले छोटे-छोटे गांव।
करीब सात घंटे बाद
ट्रेन काठगोदाम पहुंची।
जैसे ही प्लेटफॉर्म पर उतरे, पहाड़ों की ठंडी हवा ने उनका स्वागत
किया।
सामने हल्की-हल्की धुंध, और दूर-दूर तक हरे-भरे पहाड़—राज के चेहरे पर अनायास मुस्कान आ गई।
स्टेशन से बाहर
निकलकर उन्होंने एक साझा टैक्सी ली।
रास्ते में घुमावदार सड़कों से गुजरते
हुए, नीचे गहरी घाटियां और
ऊपर आसमान को छूते देवदार के पेड़—सब
कुछ मानो किसी सपनों की दुनिया का हिस्सा हो।
राज ने अपनी आंखों
में यह नज़ारे भर लिए।
उसे नहीं पता था कि यह यात्रा सिर्फ एक
सैर नहीं, बल्कि उसकी जिंदगी का
सबसे अहम मोड़ बनने वाली है।
शाम तक वे नैनिताल
पहुंचे और एक छोटे लेकिन आरामदायक होटल में रुकने का इंतज़ाम कर लिया।
कमरे की बालकनी से नज़ारा—झील का पानी, उस पर तैरती नावें, और चारों तरफ पहाड़—मानो पोस्टकार्ड की तस्वीर।
थोड़ी देर आराम करने
के बाद दोनों बाहर घूमने निकले।
पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलते हुए वे झील
किनारे पहुंचे और वहीं से ऊपर की ओर निकल गए।
राज का मन वहां की सुंदरता में इतना खो
गया कि समय का पता ही नहीं चला।
जब आसमान में अंधेरा
घिरने लगा, तो दोनों को एहसास
हुआ कि वे होटल से काफी दूर आ गए हैं।
वापस लौटने लगे, लेकिन रास्ता पहचाना नहीं।
घुमावदार पगडंडियों में वे इधर-उधर
भटकते रहे, तभी दूर एक आदमी
दिखाई दिया।
राज ने उससे रास्ता
पूछा।
उसने उन्हें देखा और कहा—
"आप
लोग यहां से होटल नहीं पहुंच पाएंगे। यह इलाका सुनसान है, और रात में जंगली जानवर भी निकल आते
हैं।"
उस आदमी का नाम मोहन था।
वह गांव का रहने वाला था और उसी रास्ते
के पास उसका घर था।
उसने कहा—
"मेरे
साथ आ जाइए, रात
यहीं बिता लीजिए। सुबह आपको होटल छोड़ दूंगा।"
राज और रवि ने
एक-दूसरे को देखा और हामी भर दी।
मोहन का घर लकड़ी और पत्थर से बना था,
चारों तरफ फूलों का बगीचा और अंदर
गरमाहट से भरा माहौल।
मोहन की बेटी अंजलि रसोई में चाय बना रही थी।
करीब 21-22 साल की, साधारण लेकिन बेहद खूबसूरत।
उसकी आंखों में एक मासूम चमक थी और मुस्कान में अपनापन।
रात को सबने साथ में
खाना खाया—गर्म रोटियां,
आलू की सब्जी, और पहाड़ी राजमा।
अंजलि ने चुपचाप प्लेट में खाना परोसा,
लेकिन राज की नज़र बार-बार उस पर चली
जाती।
रात को सोने से पहले
राज को महसूस हुआ कि उसके दिल में कोई अनजाना एहसास जन्म ले रहा है…
राज और रवि अपने होटल
लौट आए थे। होटल की बालकनी से दूर तक फैले हुए झील के किनारे की हल्की-हल्की रोशनी
और पहाड़ों के बीच बहती ठंडी हवा, राज
के मन को अजीब-सी शांति दे रही थी। लेकिन इस शांति के बीच कहीं न कहीं अंजलि
का चेहरा उसके
ज़ेहन में बार-बार आ रहा था।
रात में उसने कई बार
करवटें बदलीं, आंखें
मूंदते ही उसे वही नज़ारा याद आता—लकड़ी
का छोटा-सा घर, दीपक
की मंद रोशनी, और
उस रोशनी में बैठी अंजलि की मासूम मुस्कान।
अगली सुबह नैनिताल की
ठंडी हवाओं और खिड़की से आती हल्की धूप ने राज को जगाया। कमरे के बाहर से पक्षियों
की चहचहाहट और दूर से आती मंदिर की घंटियों की आवाज़ मानो किसी दूसरी ही दुनिया का
एहसास करा रही थी। रवि तो अभी भी सोया हुआ था, लेकिन राज जल्दी उठकर होटल के बाहर आ गया।
सामने झील का पानी धूप में सुनहरी चमक बिखेर रहा था और पहाड़ों पर हल्के-हल्के
बादल तैर रहे थे।
उसके मन में कल रात
की घटना ताज़ा थी — वो
कैसे रास्ता भटक गए थे, और
कैसे उस अनजान व्यक्ति ने उन्हें अपने घर में ठहराया। और फिर… अंजलि। उस मासूम चेहरे पर हल्की सी मुस्कान,
आंखों में पहाड़ी झील जैसी गहराई,
और बोलने का वो सादा अंदाज़… राज बार-बार उसी पल में लौट जा रहा था।
रवि भी उठकर बाहर आया,
और दोनों ने चाय पीते-पीते आज का प्लान
बनाया। “आज हम सबसे पहले माँ
नैना देवी के मंदिर जाएंगे,” रवि
ने कहा। राज ने हामी भर दी, लेकिन
उसके मन में बस यही था कि शायद… शायद
वहां फिर से अंजलि मिल जाए।
मंदिर तक का रास्ता
खूबसूरत था — दोनों
तरफ़ दुकानों में रंग-बिरंगे शॉल, लकड़ी
की नक्काशी के शोपीस और गर्म मोमोज़ की खुशबू। मंदिर पहुंचते ही हल्की-सी ठंडी हवा
चेहरे को छू गई। घंटियों की आवाज़, भजन
की धुन और भक्तों का जमावड़ा… माहौल
बेहद पवित्र था।
सुबह-सुबह मंदिर के
प्रांगण में जब राज ने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, तो उसे भीड़ के बीच अंजलि दिखाई दी।
वह सफ़ेद
सलवार-कुर्ते में, हाथ
में पूजा की थाली लिए खड़ी थी। उसे देखते ही राज का चेहरा खिल उठा।
"आप यहाँ…?"
राज ने हल्के आश्चर्य से कहा।
अंजलि मुस्कुराई, "हाँ, मैं तो अक्सर आती हूँ… और आप?"
"पहली बार आया हूँ। पर
लगता है अब बार-बार आना पड़ेगा," राज ने धीमे स्वर में कहा।
अंजलि ने उसकी बात सुनकर हल्की-सी हंसी हंसी,
और फिर दोनों ने साथ में पूजा की। उसके
बाद राज और अंजलि मंदिर के पीछे के रास्ते पर कुछ देर
टहलते रहे। राज ने उससे उसकी पढ़ाई, परिवार और भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा।
अंजलि ने बताया कि वह अपने माता-पिता के साथ
रहती है, पिता खेती करते हैं
और माँ गृहिणी हैं। वह ग्रेजुएशन के बाद मास्टर डिग्री करना चाहती है, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है।
राज चुपचाप सुनता रहा,
लेकिन मन ही मन सोच रहा था—"ये लड़की कितनी सादगी से अपने सपने सँजो रही है…"
उस दिन के बाद,
राज को जैसे कोई वजह मिल गई थी नैनिताल
में हर सुबह जल्दी उठने की। वह और रवि दिन में घूमते, लेकिन शाम होते-होते वह अंजलि से मिलने का कोई न कोई बहाना बना लेता।
कभी वह कहता कि उसे बाजार का रास्ता दिखा दो, कभी झील के किनारे की सैर का न्योता दे
देता।
इन मुलाक़ातों में वे
दोनों सिर्फ़ पढ़ाई या मौसम की बात नहीं करते थे, बल्कि अपनी छोटी-छोटी खुशियों और
परेशानियों को भी बांटते थे।
राज ने महसूस किया कि
उसकी यात्राओं में अब तस्वीरें और नज़ारे कम, और अंजलि
की मुस्कान ज़्यादा कैद होने लगी है।
रवि ने एक शाम मज़ाक
करते हुए कहा,
"राज भाई, लगता है पहाड़ों का नज़ारा तुम्हें कम
और एक पहाड़ी परी का नज़ारा ज़्यादा भा रहा है।"
राज ने हंसते हुए कहा, "अरे नहीं यार, बस अच्छी दोस्ती हो गई है।"
लेकिन दिल में वह जानता था—यह दोस्ती अब दोस्ती से आगे बढ़ चुकी
है।
उस दिन के बाद जैसे
कोई अनकहा वादा हो गया — रोज़
शाम को झील किनारे मिलना, चाय
पीते-पीते बातें करना, और
पहाड़ों की खामोशी में एक-दूसरे को सुनना। राज को महसूस होने लगा कि वो सिर्फ
घूमने नहीं आया है, उसकी
यात्रा में अब एक नया मकसद जुड़ गया है — अंजलि।
अंजलि भी धीरे-धीरे राज के साथ खुलने लगी।
उसने बताया कि वो ग्रेजुएशन कर रही है और आगे पढ़कर टीचर बनना चाहती है। राज ने भी
अपने बारे में बताया — दिल्ली
में नौकरी, घूमने का शौक,
और कैसे वो अचानक यहाँ चला आया।
राज और अंजलि की
मुलाकातें अब रोज़ की आदत बन चुकी थीं। सुबह की चाय, दिन के काम और शाम के पहाड़ी रास्तों पर
घूमना—इन सबमें अब एक
अंजाने से अपनत्व की डोर बंध चुकी थी।
अंजलि अक्सर राज को
अपने कॉलेज के किस्से सुनाती—कितना
कठिन होता है पहाड़ों में पढ़ाई करना, किताबें और नोट्स लाने के लिए कितनी दूर जाना पड़ता है,
और कैसे पहाड़ी मौसम अचानक बदलकर बारिश
या कोहरे में बदल जाता है।
राज ध्यान से सुनता,
और बीच-बीच में अपने दिल्ली के अनुभव
साझा करता—भीड़ भरी मेट्रो,
शोरगुल वाली सड़कें, देर रात तक जगमगाती रोशनियां।
“तुम्हारे यहां की रातें कितनी शांत हैं,”
राज ने एक शाम कहा, जब वे दोनों नैन झील के किनारे बैठे थे।
अंजलि मुस्कुराई, “शांत तो हैं, लेकिन कभी-कभी यह खामोशी भारी भी लगती
है।”
इन चंद दिनों में ही
राज को लगने लगा था कि वह सिर्फ नैनिताल की खूबसूरती से नहीं, बल्कि यहां के एक हिस्से—अंजलि—से जुड़ गया है।
दोनों के बीच की ये
नज़दीकियां इतनी स्वाभाविक थीं कि समय का पता ही नहीं चलता था। पाँच दिन कब बीत गए,
दोनों को पता ही नहीं चला।
आख़िरी दिन राज और रवि ने सोचा कि माँ नैना
देवी के मंदिर जाना चाहिए। मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते समय हवा में भक्ति और पहाड़ी
फूलों की खुशबू घुली हुई थी। मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही राज ने देखा—अंजलि वहीं खड़ी थी, आरती में लीन।
उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी, और माथे पर हल्का सा सिंदूर जैसा तिलक—शायद
आरती की रोली।
आरती के बाद अंजलि ने
राज को देखा और मुस्कुरा दी।
“आप यहां?” उसने आश्चर्य से पूछा।
“माँ के दर्शन करने आया था... और लगता है
माँ ने तुम्हारे दर्शन का भी इंतज़ाम कर दिया,” राज ने हंसते हुए कहा।
आखिरी दिन, स्टेशन जाने से पहले राज और रवि ने झील
किनारे बैठकर कॉफी पी। अंजलि भी वहाँ आ गई। तीनों ने साथ में
हँसी-मज़ाक किया, लेकिन
सबके दिल में एक अजीब-सी चुप्पी थी।
लेकिन समय किसी के
लिए नहीं रुकता।
राज और रवि की वापसी का दिन आ गया।
स्टेशन जाने से पहले राज ने अंजलि से मुलाकात की।
राज ने कहा, “अंजलि, मैं वापस जा रहा हूँ… लेकिन क्या तुम मुझे भूल जाओगी?”
अंजलि ने मुस्कुराकर कहा, “भूलना इतना आसान होता, तो शायद हम पहली मुलाकात ही याद ना
रखते।”
“शायद अब हम लंबे समय
तक नहीं मिल पाएंगे,” राज
ने धीमे स्वर में कहा।
“लेकिन बातें तो हो सकती हैं,” अंजलि ने कहा और अपना नंबर एक छोटे से
कागज़ पर लिखकर राज को दे दिया।
ट्रेन छूट गई,
लेकिन उस कागज़ के टुकड़े ने जैसे दोनों
के बीच की दूरी मिटा दी।
दिल्ली पहुंचते ही
राज ने अंजलि को फोन किया।
“सही से पहुंच गए?”
“हां… लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे कुछ पीछे छूट
गया,” राज ने जवाब दिया।
उस दिन के बाद से रोज़ बातें होने लगीं—कभी घंटों, कभी बस कुछ मिनटों के लिए।
धीरे-धीरे यह दोस्ती
एक गहरे प्यार में बदलने लगी। राज ने एक दिन साहस करके कहा,
“अंजलि… मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।”
फोन के दूसरी ओर चुप्पी
छा गई।
“राज… ये आसान नहीं है। मेरे घर वाले…”
अंजलि की आवाज़ भर्रा गई।
राज ने उसे समझाया कि वे सब ठीक कर
लेंगे।
लेकिन किस्मत शायद
कुछ और चाहती थी।
राज और अंजलि की
बातें अब और भी गहरी होने लगी थीं। पहले सिर्फ हालचाल पूछने वाली बातें अब जीवन के
सपनों, डर, उम्मीदों और रिश्तों तक आ पहुँची थीं।
फोन पर उनकी आवाज़ में एक अजीब-सी गर्माहट होती, जो शब्दों से ज़्यादा दिल को छूती थी।
एक शाम, जब पहाड़ों में हल्की बारिश हो रही थी
और दिल्ली में राज अपने ऑफिस से घर लौट रहा था, अंजलि ने फोन किया।
"राज…," उसने धीमे स्वर में कहा, "तुमसे एक बात कहनी है।"
"बोलो न,"
राज ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
"इतनी धीमी आवाज़
क्यों? जैसे कोई राज़ बताने
वाली हो।"
"हाँ… ये राज़ ही है," अंजलि ने हल्के से हँसते हुए कहा,
"तुमसे मिलने के बाद
मुझे लगता है, जैसे
मेरी ज़िंदगी में कुछ नया रंग भर गया हो।"
राज का दिल धड़क उठा।
"अंजलि… ये
तो वही बात है जो मैं भी महसूस करता हूँ।"
कुछ पलों की चुप्पी
रही… फिर अंजलि ने कहा,
"लेकिन राज… ये रास्ता आसान नहीं है। हमारे घरों की
सोच, हमारे परिवार…
सब कुछ अलग है।"
राज ने दृढ़ स्वर में
कहा, "अंजलि, मैं मुश्किलों से डरने वालों में से
नहीं हूँ। मैं तुम्हें पाने के लिए हर कोशिश करूँगा।"
कुछ हफ्तों बाद,
राज ने ठान लिया कि अब अंजलि से शादी की
बात करनी ही होगी। उसने अपने परिवार से बात की। माँ थोड़ी चुप रहीं, लेकिन पिता ने साफ कह दिया,
"राज, तुम्हें पता है, पहाड़ के लोगों और हमारे रीति-रिवाज़
में बहुत फर्क है। ये रिश्ता आसान नहीं होगा।"
राज ने तर्क दिया,
"पापा, प्यार रीति-रिवाज़ से बड़ा होता
है।"
लेकिन पिता ने सिर्फ इतना कहा,
"तुम्हें सोच-समझकर
फैसला लेना होगा।"
इधर अंजलि ने भी अपने
परिवार से बात की। उसके पिता ने गंभीर स्वर में कहा,
"अंजलि, वो लड़का शहर का है, उसकी सोच, उसका रहन-सहन अलग है। शादी सिर्फ दो
लोगों का नहीं, दो
परिवारों का मेल होता है।"
अंजलि चुप रही…
उसकी आँखों में नमी थी।
नवंबर की ठंडी हवाएँ
दिल्ली की गलियों में फैल चुकी थीं। राज कई दिनों से बेचैन था। फोन पर अंजली की
आवाज़ अब पहले जैसी नहीं रही थी—वो
हँसी, वो अपनापन… सब जैसे किसी पर्दे के पीछे छिप गया हो।
हर कॉल बस औपचारिक बातें, और
फिर "ठीक है, बाद
में बात करेंगे" पर खत्म हो जाती थी। हर कॉल में एक
अजीब-सी खामोशी होती, जैसे
दोनों दिल में बहुत कुछ कहना चाहते हों, लेकिन ज़ुबान तक आते-आते शब्द थक जाते हों।
एक शाम राज को अंजली
का मैसेज आया – "मुझसे
मिलोगे?"
उसके बाद एक और लाइन – "शायद ये हमारी आखिरी मुलाक़ात
होगी।"
राज के दिल में जैसे किसी
ने पत्थर रख दिया। उसने तुरंत कॉल किया –
"अंजली, ये कैसी बात कर रही हो?"
"बस… मिल लो। कल, शाम को, नैनीताल वाले कैफ़े में।"
उसकी आवाज़ में एक ऐसी थकान थी, जो किसी ने ज़िंदगी भर का सफर तय करके
पाई हो।
अगले दिन राज नैनीताल
पहुँचा। वही झील, वही
ठंडी हवा, वही भीड़… लेकिन सबकुछ फीका लग रहा था। वह कैफ़े
पहुँचा तो अंजली पहले से वहाँ बैठी थी – सफ़ेद सलवार, हल्का-सा
दुपट्टा, और आँखों में नमी
छुपाने की नाकाम कोशिश।
राज बैठ गया। दोनों
के बीच कुछ पल की चुप्पी रही।
"अंजली… ये आखिरी क्यों?"
"क्योंकि राज… मैं हार गई। पापा ने मेरी शादी तय कर दी
है। मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन…"
उसकी आवाज़ भर्रा गई।
राज ने गहरी सांस ली, जैसे अपने दिल के टूटने की आवाज़ दबा
रहा हो। "तो ये… बस
इतना ही था?"
"नहीं राज, ये कभी 'बस' नहीं था। ये मेरी ज़िंदगी का सबसे
खूबसूरत हिस्सा था। लेकिन हम… शायद
कभी साथ नहीं हो सकते।"
"राज, मैं नहीं चाहती कि तुम और उम्मीद रखो।
हम दोनों ने जो वक्त साथ बिताया, वो
मेरी जिंदगी की सबसे प्यारी याद है… लेकिन अब…"
उसने नज़रें झुका लीं।
राज ने काँपते हुए
हाथ से उसका हाथ थाम लिया, "अंजली,
क्या इतना आसान है सब छोड़ देना?"
अंजली की आँखों से आँसू गिरने लगे,
"आसान नहीं है…
पर मजबूरी है। मैं तुम्हारे साथ सपने
देख सकती हूँ, लेकिन
उन्हें पूरा करने की ताकत मुझमें नहीं है।"
दोनों चुप हो गए। वेटर
ने कॉफी रखी, लेकिन
किसी ने उसे हाथ भी नहीं लगाया। कॉफी ठंडी हो चुकी थी। राज ने बस इतना कहा, "अच्छा… तो अब मैं तुम्हें दुआओं में रखूँगा,
शिकायतों में नहीं।"
दोनों चुप रहे।
अंजली ने अपना हाथ राज के हाथ पर रखा –
"तुमसे मिलना, तुम्हारे साथ वो दिन… वो हंसी, वो बातें… मैं कभी नहीं भूलूँगी।"
राज की आँखें भर आईं – "और मैं भी। शायद हम एक-दूसरे के लिए बने
थे… बस वक्त हमारे लिए
नहीं बना।"
अंजली ने धीरे से कहा,
"अपना ख्याल
रखना।"
राज ने सिर हिलाया, पर बोल नहीं पाया।
शाम ढलने लगी। अंजली उठी, और बिना पीछे देखे बाहर निकल गई। राज बस
उसे जाते हुए देखता रहा, जैसे
कोई अपना सपना दूर जाते हुए देखता है… बिना कुछ कर पाने के।
उस दिन झील का पानी
भी जैसे उदास था, और
ठंडी हवा में एक अजीब-सी खामोशी थी… जैसे नैनीताल भी उनकी मोहब्बत के बिछड़ने का गवाह बन गया हो।
राज नैनीताल में दो दिन रहा और आज उसकी ट्रेन थी काठगोदाम से, भारी मन से उसने होटल से चेकआउट किया और स्टेशन के लिए निकल गयाराज के मन में पूरे रास्ते एक ही बात गूंज रही थी—
"क्या ये सच में हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी?"
काठगोदाम स्टेशन के उस छोटे-से प्लेटफ़ॉर्म पर, हल्की-हल्की ठंडी हवा चल रही थी। आसमान में बादल बिखरे हुए थे, जैसे मौसम भीउनकी जुदाई का गवाह बनना चाहता हो।
लेकिन ये क्या अंजली वहाँ पहले से खड़ी थी। हाथ में
एक छोटा-सा बैग, आँखों में अधूरी नींद और चेहरे पर
अजीब-सी थकान। राज ने उसे देखा तो पल भर को सब कुछ रुक-सा गया। वो वही अंजली थी,
जिसके साथ उसने नैनीताल की गलियों में हँसते
हुए चाय पी थी, जिसके साथ ताल के किनारे घंटों बैठा था,
लेकिन अब उसकी आँखों में वो चमक नहीं थी।
राज धीरे-धीरे उसके
पास पहुँचा।
"कैसी हो?"
— उसकी आवाज़ में एक सर्द-सी कंपकंपी थी।
"ठीक हूँ..." —
अंजली ने बहुत धीमे कहा, लेकिन उसकी आँखें कह रही थीं कि वो
बिलकुल ठीक नहीं है।
कुछ देर दोनों चुप
रहे। आसपास चायवाले की आवाज़, बच्चों
की हँसी और ट्रेनों की सीटी सब सुनाई दे रहे थे, लेकिन उनके बीच सिर्फ़ खामोशी थी।
"राज, मैंने बहुत कोशिश की..." अंजली की
आँखें भर आईं, "पर
पापा नहीं मानें। उनका कहना है कि ये रिश्ता मुमकिन नहीं है।"
राज ने उसकी तरफ देखा, उसके होठ हिल रहे थे लेकिन शब्द नहीं
निकल रहे थे। वो जानता था, ये
बात अंजली के लिए भी आसान नहीं थी।
"तो फिर..." —
राज ने बड़ी मुश्किल से कहा —
"हम?"
अंजली ने बस अपना सिर झुका लिया। वो
चाहती तो थी कि रो पड़े, लेकिन
खुद को रोक रही थी।
ट्रेन आने की घोषणा
हुई। दोनों ने एक-दूसरे को देखा।
राज ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, अंजली ने पकड़ लिया। उनकी उंगलियाँ कसकर
एक-दूसरे से लिपट गईं, जैसे
छोड़ने से पहले आख़िरी बार महसूस करना चाहती हों।
"राज, अगर अगले जन्म में हम मिले तो वक़्त और
हालात हमारे खिलाफ़ न हों..."
ये कहते-कहते अंजली की आँखों से आँसू
गिर पड़े।
राज ने बस इतना कहा—
"अगला जन्म नहीं,
इस जन्म में भी मैं तुम्हें याद
रखूँगा।"
ट्रेन आ गई। राज धीरे-धीरे डिब्बे में चढ़ा, और खिड़की से अंजली को देखता रहा। ट्रेन चल पड़ी। राज ने तब तक हाथ हिलाया, जब तक
अंजली नज़रों से ओझल नहीं हो गई।
प्लेटफ़ॉर्म पर
सिर्फ़ हवा रह गई, और
अंजली के दिल में एक ख़ालीपन।
थोड़ी देर बाद
अंजलि भी दुखी मन से घर को लौट आई।
साल बीत गए।
राज अब पचास का हो चुका था। बालों में
सफेदी, आँखों में हल्की थकान,
और चेहरे पर जिंदगी के अनुभवों की
लकीरें। अब उसका बेटा कॉलेज में था और बेटी की शादी हो चुकी थी।
एक दिन वह देहरादून
में एक सेमिनार के लिए गया। लंच ब्रेक में वह होटल की लॉबी में बैठा चाय पी रहा था,
तभी दरवाजे से एक महिला अंदर आई –
हल्की साड़ी, कंधों तक बाल, और वही मुस्कान…
अंजली।
वो पल जैसे रुक गया।
दोनों की नज़रें मिलीं, और दोनों के चेहरे पर एक साथ हैरानी और
मुस्कान उभर आई।
"राज!" – अंजली ने धीरे से कहा।
"अंजली…"
– उसके होंठों से बस यही निकला।
वे एक किनारे बैठ गए।
अंजली ने बताया कि शादी के बाद उसकी
जिंदगी आसान नहीं रही, लेकिन
उसने बच्चों की परवरिश और खुद को संभालना सीखा। अब उसका बेटा विदेश में है,
और बेटी की शादी हो चुकी है।
राज ने भी अपनी कहानी सुनाई – ज़िम्मेदारियों, सपनों और अधूरे अरमानों की।
कुछ देर दोनों चुप
रहे।
अंजली बोली – "जानते हो, राज… मैंने कभी तुमसे मोहब्बत करना बंद नहीं
किया। बस… जिंदगी ने हमें अलग
रास्ते दे दिए।"
राज मुस्कुराया – "मुझे पता है। और मैं भी…"
उन्होंने तय किया कि
अब वे अतीत को कुरेदेंगे नहीं। बस आज की इस मुलाक़ात को एक खूबसूरत तोहफे की तरह
याद रखेंगे।
शाम को जब अंजली जाने
लगी, उसने राज से हाथ
मिलाया और कहा –
"शायद
हम फिर कभी न मिलें… लेकिन
अगर मिलें, तो
यूं ही मुस्कुराते रहना।"
राज ने सिर हिलाया – "हमेशा।"
अंजली चली गई,
और राज बाहर देखते हुए सोचता रहा –
कुछ कहानियां कभी पूरी नहीं होतीं,
लेकिन अधूरी रहकर ही वो दिल में हमेशा
ज़िंदा रहती हैं…

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