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गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

“दूर कहीं उजाला”

 

कहानी: “दूर कहीं उजाला”

(एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा)




पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव—टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छतों से भरा, जहाँ सूरज की रोशनी भी गरीबी को चीरकर नहीं निकल पाती थी।
वहाँ रहती थी गौरी—रधुआ काका और रामबती की इकलौती बेटी।

गौरी का बचपन पहाड़ी झरनों, कच्ची पगडंडियों और सूखे खेतों के बीच बीता।
नंगे पैर खेतों में दौड़ना, माँ के साथ जंगल से लकड़ियाँ लाना, और हर शाम पिता को चाय पर दाल-चावल परोसना—यही उसका संसार था।

पूरे गाँव में लोग कहते—

“रधुआ की लड़की बड़ी सुहागन सी है, आँखों में जैसे कोई उजली किरण चमकती हो…”

पर उम्र बढ़ने के साथ वही चमक धीरे-धीरे धुँधली हो गई।
सोलह की होते-होते उसके चेहरे से वह कंचन जैसी हँसी गायब होने लगी।
दिन-प्रतिदिन उसके शरीर में कमजोरी बढ़ रही थी।

माँ बार-बार उसके माथे पर हाथ रखकर कहती—

“बिटिया, तू दिन-ब-दिन दुबली क्यों होती जा रही है?”

गौरी केवल मुस्कुरा देती—
“कुछ नहीं अम्मा, बस थक जाती हूँ…”

पर असलियत यह थी कि उसके भीतर कोई बीमारी घर कर चुकी थी।
गाँव का झोला-छाप डॉक्टर हर बार वही दवा देता—पीली टिकिया, लाल सिरप।
पर हालत बिगड़ती ही गई।

और जैसे भगवान ने उसी समय उसकी किस्मत मोड़ने का निश्चय किया हो, गाँव में पहुँचा जगमोहन—रधुआ काका का दूर का रिश्तेदार।
शहर में छोटा-मोटा बिज़नेस करता था, उम्र करीब चालीस, देह से मजबूत, आवाज़ भारी और आँखों में अजीब-सी चमक।

गौरी को खाट पर पड़ी देखकर वह बोला—

“काका, इसे शहर ले चलिए। यहाँ इलाज नहीं मिलेगा।
मैं ले जाऊँ? अच्छा डॉक्टर दिखा दूँगा।”

रधुआ काका ने अपनी गरीबी की चादर समेट ली।
वह बोले—

“बेटा, तुम्हारा बहुत अहसान होगा। पर खर्चा…?”

“मेरा है न काका। चिंता मत कीजिए।”

रामबती की आँखों में डर था।
पर उम्मीद भी।

और एक दिन, बस इतना ही कहना काफी था कि गौरी की जिंदगी ने करवट बदल ली।


शहर…
गौरी के लिए यह किसी दूसरे ग्रह जैसा था।
चारों ओर ट्रैफिक, रोशनी, अजनबी चेहरे, और हवा में धूल-मिट्टी की जगह पेट्रोल का धुआँ।

जगमोहन उसे एक छोटे से कमरे में ले आया—एक ऐसा कमरा जहाँ बस एक लोहे की चारपाई, एक अलमारी और एक गैस चूल्हा रखा था।

पहले हफ्ते में वह सचमुच उसे डॉक्टरों के पास ले गया।
दवाएँ मिलीं, इंजेक्शन लगे, कई तरह के टेस्ट हुए।
धीरे-धीरे गौरी की हालत सुधरने लगी।

पर समय के साथ उसके सामने सच्चाई खुलने लगी।

“चाचा, घर कब चलेंगे?” उसने एक दिन हिम्मत करके पूछा।

जगमोहन ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा—

“तेरे माँ-बाप को अभी पैसे भेजूँगा। तू यहाँ आराम कर। घर जाकर क्या करेगी?
तेरा इलाज अभी बाकी है।”

गौरी देखती रही—उसकी बातों में झूठ का धुआँ घुला हुआ था।

धीरे-धीरे वह उससे घर के काम करवाने लगा—खाना बनाना, कपड़े धोना, पोछा लगाना…
और फिर एक दिन वह उसके सामने यह कहते हुए खड़ा था—

“गौरी, अब तू यहीं रहेगी। तेरे माँ-बाप को भी समझा दिया है कि तू ठीक है।”

गौरी के पैरों के तले ज़मीन खिसक गई।

“पर… मैं वापस जाना चाहती हूँ चाचा… मेरी माँ—”

“बस!”
जगमोहन का स्वर ऐसा था कि गूँज कमरे की दीवारों से टकराने लगी।

“तुझसे अच्छा कौन है यहाँ? खाना-पीना मिल रहा है, इलाज हुआ।
अब ज्यादा दिमाग मत चलाया कर।”

गौरी पहली बार रो पड़ी।
रोते-रोते ही उसे लगा—उसका बचपन, उसका घर, उसकी माँ की गोद… सब उससे छिन गया है।

और यहीं से शुरू हुआ वह दौर जहाँ गौरी का जीवन किसी और की मुट्ठी में कैद था।


दिन महीने बने, और महीने साल।
गौरी ने चुपचाप सब सहना सीख लिया—दर्द, मजबूरी, अकेलापन, और जगमोहन की कठोरता।

समय के साथ वह माँ भी बनी—दो बच्चों की।
उनके जन्म से पहले उसने कितनी रातें आँसू पोंछकर बिताई थीं, यह वह खुद भी भूल गई थी।

पर बच्चों के आने से उसका सूना जीवन थोड़ा भरने लगा।

वह उनकी छोटी-छोटी उँगलियों में प्यार खोज लेती,
उनकी मासूम मुस्कान में अपना भविष्य।

पर जगमोहन बूढ़ा हो रहा था, कमजोर हो रहा था।
वह पहले जैसा हावी नहीं रह पाया।
आर्थिक संकट बढ़ रहा था।

एक दिन उसने कहा—

“गौरी, यहाँ गुज़र नहीं होता।
हम दूसरे शहर चलेंगे। वहाँ कुछ काम मिलेगा।”

गौरी को फर्क नहीं पड़ता था।
क्योंकि उसके लिए हर शहर, हर गली, हर घर एक जैसा ही था—
कैदखाना।


नया शहर पिछली जगह से बड़ा था।
भरी हुई गलियाँ, ऊँचे मकान, और बीच में एक छोटा-सा मजदूरों का मोहल्ला—जहाँ उन्हें एक कमरे का घर मिला।

यहीं रहती थी कॉलोनी नं. 14
यहीं पहली बार गौरी की मुलाकात हुई विराज से।

विराज लगभग गौरी की उम्र का था—शांत, जिम्मेदार, और गहरी आँखों वाला इंसान।
घर में पत्नी, एक बेटी, और बूढ़ी माँ।
घर ठीक-ठाक चलता था, पर परिवार में प्यार का वो ताप नहीं था जो जीवन को अर्थ देता है।

पहली मुलाकात साधारण थी—
पानी की लाइन में।

“दीदी, आपकी बाल्टी मेरी बाल्टी से पहले है। आप रख लीजिए,”
विराज ने मुस्कुराते हुए कहा।

गौरी ने धीरे से कहा—
“नहीं, आप पहले भर लीजिए… मेरे पास समय है।”

उसकी आवाज़ में एक ऐसी विनम्रता थी जो हमेशा मजबूर लोगों में होती है—संकोची, दबा हुआ, पर सच्चा।

धीरे-धीरे रोज़ की वही लाइन एक अजीब-सी सहजता में बदल गई—

संक्षिप्त बातें,
हल्की मुस्कानें,
और गौरी की आँखों में पहली बार कोई ऐसा दिखा जो उसे देखता था।


गौरी हर दिन पानी की लाइन में विराज से मिलती।
उनकी मुलाकातें छोटी थीं, पर उनमे अपनापन भरा होता—जैसे दोनों एक-दूसरे से अनकही बातों की सांझ लेने लगे हों।

एक दिन विराज ने पूछा—

“आपका नाम क्या है?”

“गौरी,” उसने बमुश्किल मुस्कुराकर कहा।

“अच्छा नाम है,”
विराज बोला, “आप यहाँ नई आई हैं शायद?”

“हाँ… कुछ महीनों पहले आए थे।”

विराज ने कुछ पल उसे देखा।

“आप… ठीक हैं?”

यह प्रश्न सामान्य था,
लेकिन उन तीन शब्दों में एक सच्ची चिंता थी,
जो गौरी को वर्षों बाद मिली थी।

गौरी की आँखें अनायास भर आईं।
पर उसने तुरंत पलकें झुका लीं—

“हाँ, मैं ठीक हूँ।”

उस दिन गौरी को पता चला कि कोई अनजान भी आपके दुख को पढ़ सकता है।

धीरे-धीरे कॉलोनी के लोग नोटिस करने लगे कि विराज और गौरी अक्सर एक ही वक्त पानी भरने आते हैं।
कोई कुछ नहीं कहता, पर निगाहों में सवाल तैरते रहते।

मगर दोनों के लिए यह मुलाकातें किसी दवा से कम नहीं थीं।


विराज का अपना घर भी टूटा हुआ था, बस लोग उससे देखते नहीं थे।

उसकी पत्नी रेखा, आपस में तालमेल बिल्कुल नहीं था।
रेखा हमेशा नाराज़, चिड़चिड़ी, और बात-बात पर लड़ने को तैयार।
विराज अपने दर्द मन में दबाकर चुपचाप नौकरी करता, घर खर्च चलाता, और रात को थककर सो जाता।

उसकी माँ कई बार कहती—

“बेटा, तेरी आँखों की चमक क्यों कम हो गई है?”

विराज बस मुस्कुरा देता—
“थक जाता हूँ, माँ।”

लेकिन सच्चाई यह थी कि घर में कोई उसे समझता नहीं था।

गौरी उससे बात करती तो वह खुल जाता।
उसे लगता जैसे वह किसी पुराने दोस्त से बात कर रहा हो—जो बिना बोले भी सब समझ लेता हो।

उधर गौरी की जिंदगी भी आसान नहीं थी।

जगमोहन बीमारी से ग्रस्त और उदासीन होकर कोने में पड़ा रहता।
कभी-कभार खाँसता, कभी चिढ़कर चिल्ला देता।

गौरी उसकी दवा, खाना और बच्चों की देखभाल अकेले करती।
उसका जीवन एक अटूट जिम्मेदारी बन चुका था।

विराज से मुलाकातें उसे कुछ पल की राहत देती थीं—
एक ऐसा सहारा जिसकी उसे ज़रूरत थी,
पर वह किसी से कह नहीं सकती थी।


कभी-कभी भाग्य दो लोगों को एक ही पथ पर ला खड़ा करता है,
जहाँ शब्द नहीं बोलते—दिल बोलता है।

एक शाम, जब गौरी सब्ज़ी लेकर लौट रही थी, अचानक बिजली चली गई।
गली अँधेरे में डूब गई।
वह घबराई—बच्चे घर में अकेले थे।

तभी विराज पहुँचा।
उसने मोबाइल की टॉर्च जलाकर कहा—

“आइए, मैं छोड़ देता हूँ।”

गौरी कुछ कह पाती इससे पहले ही उसकी आँखों में डर देखकर विराज ने समझ लिया कि वह चिंतित है।

“चलिए, अंधेरा है… रास्ता खराब है,”
विराज ने सहज भाव से कहा।

दोनों साथ चलते रहे।
गौरी को लगा जैसे किसी ने उसके जीवन की अनगिनत परतों में जमा डर को हल्का कर दिया है।

दरवाज़े तक पहुँचकर उसने धीमे स्वर में कहा—

“धन्यवाद।”

विराज बोला—

“कभी भी… अकेली मत आया कीजिए, ठीक है?”

उसकी आँखों में चिंता थी—सच्ची।

उस रात गौरी देर तक सो नहीं सकी।
वह सोचती रही—
क्यों एक अजनबी उसके लिए इतना भाव रखता है?
क्यों उसकी एक मुस्कान उसके दिन भर के दर्द पर मरहम लगा देती है?

उधर विराज भी सोच रहा था—
गौरी की आँखों में जो दर्द है,
क्या वह कभी खत्म होगा?

धीरे-धीरे, ये भावनाएँ किसी नाम की भूख नहीं रखती थीं—बस अपनापन चाहती थीं।


कॉलोनी में बातें बनने लगीं।

“गौरी और वह विराज… रोज़ बातें करते हैं।”
“अरे, दोनों की उम्र भी बराबर है… कुछ न कुछ तो चल रहा होगा।”

लोगों के पास काम भले न हो,
पर दूसरों के जीवन में झाँकने का हुनर खूब था।

जगमोहन, जो अब लाचार और कमजोर हो चुका था,
इन बातों को सुनता तो चुप रहता।
शायद उसे पता था कि उसने गौरी को कभी जीने का मौका ही नहीं दिया।
लोगों की नजरें अब उसे भी चुभने लगी थीं,
पर विरोध की ताकत उसमें बची नहीं थी।

एक दिन उसने बस इतना कहा—

“गौरी… मोहल्ले में लोग बातें बना रहे हैं।
और… तू भी कुछ सोच-समझकर किया कर।”

गौरी ने सिर झुका लिया।

उसने कहा—

“मैं कुछ गलत नहीं करती… बस बातें होती हैं।”

जगमोहन ने लंबी साँस ली—

“गलत क्या है… सही क्या है… इसका फैसला दुनिया जल्दी कर देती है।”

उसकी आवाज़ में पछतावा था या ईर्ष्या—गौरी कभी समझ नहीं पाई।

पर उसके बाद गौरी और विराज की मुलाकातें और भी खामोश हो गईं।
बातें कम, आँखों का आदान-प्रदान ज्यादा।

पर भावनाएँ…
वे किसी पर रुकती नहीं थीं।


वह शहर की वही पुरानी कॉलोनी… वही शाम की हल्की धूप…
लेकिन अब जीवन कुछ बदलने लगा था।

गौरी, जिसका जीवन सालों से कर्तव्यों की जंजीरों में उलझा हुआ था—
अंदर से टूट चुकी थी, पर बाहर से कठोर बनकर जीना उसने सीख लिया था।

विराज उससे उम्र में बराबर, पर दिल से कहीं अधिक समझदार था।
गौरी जब पहली बार उससे मिली थी, बस नमस्ते तक ही रिश्ता था,
लेकिन धीरे-धीरे बातों की ये डोर बढ़कर एक सहारे में बदल गई।

गौरी को पहली बार महसूस हुआ कि कोई उसे समझ रहा है—
उसकी चुप्पी, उसके डर, उसके भीतर की बरसों पुरानी थकान को।

और विराज…
वो तो जैसे किसी अनकहे वादे की तरह उसके आस-पास रहने की वजह ढूँढ ही लेता था।

दोनों के बीच कोई सीमा पार नहीं हुई थी,
पर भावनाएँ
वह तो सीमाएँ देखती ही नहीं थीं।


गौरी के बच्चे अब बड़े हो गए थे।
उन्होंने अपनी माँ के जीवन को हमेशा एक “जिम्मेदारी” के रूप में देखा था,
कभी एक इंसान के रूप में नहीं।

बच्चों को लगता—
उनकी माँ को बस वही करना चाहिए जो घर की इज्ज़त बनाए रखे,
उनके फैसलों के हिसाब से चले।

जब उन्होंने देखा कि विराज अक्सर घर आता है,
तो कानाफूसियां शुरू हो गईं।

“माँ की उम्र में लोग ऐसा करते हैं क्या?”
“पड़ोस में बदनामी हो रही है…”

ऐसी बातें गौरी के दिल में तीर बनकर चुभतीं।
वह कुछ नहीं कह पाती—
क्योंकि उम्रभर कहा ही क्या था?


कॉलोनी की औरतें तो जैसे बस मौका तलाश रही थीं।

“विराज को देखो, दिन-दिन घर आता है…”
“गौरी भी न, उम्र भूल गई है क्या?”
“शर्म तो करनी चाहिए…”

गौरी हर बार पीछे मुड़कर देखती—
क्या सच में उसने कुछ गलत किया है?

क्या अकेली औरत को दोस्ती का हक नहीं?
क्या उसे सहारे की ज़रूरत नहीं?
और सबसे बड़ा सवाल—
क्या वह इंसान नहीं?

लेकिन समाज के जवाब हमेशा एक जैसे थे—
औरत का दिल नहीं होता, सिर्फ़ कर्तव्य होते हैं।


समाज, परिवार, पड़ोस—
सबकी बातों का भार गोरी के चेहरे पर उतरने लगा।
खामोशी बढ़ती जा रही थी।

विराज समझ रहा था।

एक दिन उसने साफ-साफ कहा—

“गौरी, मैं तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं बनना चाहता।
अगर तुम कहो तो मैं आना बंद कर दूँगा…”

गौरी ने सिर झुका लिया।
वह क्या कहती?

वह बोलना चाहती थी—
“मत जाओ… तुम्हारे बिना मैं और टूट जाऊँगी…”

पर उसके होंठ अटक गए।

उसके जीवन में क्या कभी किसी ने उसकी इच्छा पूछी थी?


एक दिन बात हद से आगे बढ़ गई।

गौरी के बड़े बेटे ने गुस्से में कहा—

“माँ! आज के बाद वह आदमी इस घर में कदम नहीं रखेगा!
हमारी बदनामी हो रही है।
अगर आपने उससे बात भी की, तो हमारा रिश्ता खत्म समझिए।”

गौरी पत्थर बन गई।
उसका दिल धड़कना भूल चुका था।

वह जानती थी—
अब वह कुछ नहीं कह पाएगी।
यह वही बच्चा था जिसे उसने  खुद खाना खाकर नहीं, बल्कि खुद भूखी रहकर पाला।
जिसके लिए वर्षों संघर्ष किए…

आज वही बेटा उसे चरित्र के तराजू पर तौल रहा था।


बच्चों के डर से विराज ने आना बंद कर दिया।
लेकिन भावनाएँ कहाँ रुकती हैं?

गौरी कभी किसी पड़ोसन के फोन से बात कर लेती,
कभी चुपके से गेट के पास खड़ी हो जाती—
बस विराज को देखने के लिए।

पर एक दिन यह भी पकड़ा गया।

उसकी बहू ने तानों की बरसात कर दी—

“हमने रोका था न!
अब उम्र में इश्क़ करेंगी?”
“हमें लोगों को क्या जवाब देना है?”

गौरी शांत रही।
उसकी आँखों में सिर्फ़ एक ही सवाल था—
“मेरा अपना जीवन मेरा क्यों नहीं?”


उस दिन गौरी देर शाम बाहर निकली।
कॉलोनी के पार्क की बेंच पर विराज पहले से बैठा था।

दोनों एक-दूसरे को चुपचाप देखते रहे।
बहुत देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।

फिर विराज बोला—

“गौरी…
अब तुम्हारी हालत मैं और नहीं देख सकता।
तुम्हें उम्रभर किसी ने अपना जीवन चुनने नहीं दिया।
पहले पति… फिर बच्चे… फिर समाज…”

गौरी के आँसू गिरने लगे।

वो लंबे समय बाद किसी के सामने टूटी थी।

विराज ने धीरे से कहा—

“अगर तुम चाहो…
तो हम कहीं दूर चल सकते हैं।
जहाँ न कोई जानने वाला हो,
न कोई रोकने वाला.”

गौरी ने सिर उठाया।
उसकी आँखों में पहली बार—
उम्मीद थी।


उस रात गौरी ने कोई बात नहीं की।
वह बस सोचती रही…

कितने साल बीत गए?
जीवन दिया किसके लिए?
और मिला क्या?
अपनी खुशी का एक कतरा भी नहीं।

क्या उसे जीने का हक नहीं?
क्या वह एक इंसान नहीं?

सुबह होते-होते फैसला साफ हो गया।

उसने एक छोटा-सा बैग उठाया,
घर के मंदिर के सामने खड़ी हुई,
और धीरे से कहा—

“हे भगवान…
आज पहली बार मैं अपने लिए जीने जा रही हूँ।
गलत हूँ या सही…
फैसला आपका।
पर मेरी आत्मा आज आज़ाद होना चाहती है।”

वह बाहर आई।
गेट पर विराज खड़ा था।

दोनों ने पीछे मुड़कर एक बार देखा—
वह घर, जिसने उसे सिर्फ़ कर्तव्य दिए,
कभी खुशी नहीं दी।

उसने अंतिम बार अपने आँगन को देखा और कहा—

“अब बस।
अब मैं अपने लिए जिऊँगी।”

और दोनों चल दिए—
एक नए शहर की ओर,
एक नई शुरुआत की ओर।


समाज कहता है—
“यह रिश्ता गलत है।”
पर दिल कहता है—
“गलत तो वह जीवन था जिसमें वह खुद के लिए जी ही नहीं पाई।”

समाज कहता है—
“बच्चों की इज्ज़त खराब।”
पर सच यह है—
बच्चों ने उसकी इज्ज़त कभी समझी ही नहीं।

समाज कहता है—
“उम्र ढल चुकी है।”
दिल कहता है—
“खुशी की कोई उम्र नहीं।”

और यही प्रश्न कहानी का केंद्र बन जाता है—

क्या समाज के अनुसार सब कुछ सही होना चाहिए?
या इंसान की आत्मा के अनुसार?


गौरी और विराज सुबह की पहली बस से किसी दूर शहर पहुँचे।
दोनों ने शहर का नाम भी बिना पूछे चुन लिया था—
क्योंकि अब उनके लिए नामों से ज्यादा मायने रखती थी आज़ादी

बस से उतरते ही दोनों ने एक हल्की-सी राहत महसूस की—
यहाँ उन्हें कोई नहीं जानता।
कोई यह नहीं पूछेगा कि “रिश्ता क्या है?”
कोई ताना नहीं मारेगा कि “उम्र में यह सब शोभा नहीं देता।”

यह पहली बार था
जब गौरी ने अपने कदमों को अपने निर्णयों के साथ आगे बढ़ते महसूस किया।


दोनों के पास बहुत पैसे नहीं थे।
विराज ने किराए पर एक छोटा-सा कमरा लिया—
कमरा छोटा था, पर दोनों के सपनों से बड़ा।

गौरी ने घरों में खाना बनाने और सिलाई का काम पकड़ लिया।
विराज ने एक दुकान में सहायक का काम शुरू कर दिया।

काम कठिन था—
लंबे घंटे, कम पैसे, अपरिचित लोग…

लेकिन एक बात अलग थी—
यह जीवन उन्होंने खुद चुना था।
पहली बार किसी ने उन्हें मजबूर नहीं किया था।

हर शाम दोनों थक कर लौटते,
एक-दूसरे को देखते,
और मुस्कुरा देते।
बस यही मुस्कान पूरे दिन की थकान मिटा देती।


धीरे-धीरे पड़ोसियों ने उन्हें सिर्फ़ “पति-पत्नी” मान लिया।
किसी ने यह नहीं पूछा कि शादी कब हुई थी,
क्यों हुई थी,
किसने कराई थी।

लोगों ने बस इतना देखा—
दो लोग साथ रहते हैं, शांत रहते हैं, काम पर जाते हैं और एक-दूसरे की इज्ज़त करते हैं।

गौरी ने महसूस किया—
इज्ज़त रिश्ते के नाम से नहीं,
व्यवहार से मिलती है।

और यही बात उसे उसकी पुरानी ज़िंदगी की याद दिलाती,
जहाँ वह सबके लिए “कर्तव्यनिष्ठ पत्नी और माँ” थी,
पर किसी की नज़र में “इंसान” नहीं।


अब दोनों के बीच वह संकोच नहीं था,
न डर, न चोरी-छुपी बातचीत,
न कोई दीवार।

अब वह खुलकर हँसते थे,
खुलकर बातें करते,
और एक-दूसरे की थकान मिटा देते।

गौरी अक्सर कहती—

“विराज, मुझे लगता है मैं पहली बार जी रही हूँ।”

विराज मुस्कुरा देता—

“मुझे लगता है मैं पहली बार खुश हूँ।”

उनका प्यार किसी फिल्मी रोमांस जैसा नहीं था—
यह शांत, पर गहरा था…
ठहरे हुए पानी की तरह—
जो बाहर शांत दिखता है,
पर अंदर अथाह है।


लेकिन अतीत इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता।

एक दिन गौरी के मोबाइल पर उसके बेटे का कॉल आया।
बहुत समय से कोई संपर्क नहीं था।

“माँ… आप ठीक हो?”
आवाज़ में गुस्सा नहीं था, बस पछतावा था।

गौरी चुप रही।
उसने पूछा—

“तुम ठीक हो?”

“हाँ माँ… पर घर वैसा नहीं रहा।
आपके बिना खाली-खाली है।”

गौरी की आँखें भर आईं,
पर उसने दिल कड़ा किया।

“मैं खुश हूँ बेटा।
जहाँ हूँ, ठीक हूँ।”

बेटा कुछ कहना चाहता था,
लेकिन गौरी ने बात वहीं खत्म कर दी।

फिर कई दिनों तक वह बेचैन रही।

विराज ने समझाया—

“अतीत छाया जैसा होता है गौरी…
पीछे रहता है, पर आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता।”

और गौरी ने महसूस किया कि
कभी-कभी दूरी ही बेहतर होती है—
खुद के लिए भी, और रिश्तों के लिए भी।


समय के साथ विराज की सेहत कमजोर होने लगी।
काम की थकान, उम्र, और पुरानी परेशानियाँ अपना असर दिखाने लगी थीं।

गौरी उसकी दवा, खाना, और हर ज़रूरत का ध्यान रखती।

एक दिन डॉक्टर ने कहा—

“उन्हें आराम की ज़रूरत है।
टेंशन बिल्कुल मत लेने दीजिए।”

गौरी ने मुस्कुराकर जवाब दिया—

“डॉक्टर साहब,
अब इनके पास टेंशन देने वाला कोई नहीं…
और संभालने वाली मैं हूँ।”

विराज ने उसकी ओर देखा,
और उसकी आँखों में एक गहरा अपनापन उतर आया।

उन्होंने धीरे से कहा—

“जीवन बचा कितना है पता नहीं…
पर जो भी है,
अब उसी के साथ जीना है।”

गौरी ने उसका हाथ थाम लिया।

“हम दोनों मिलकर जितना है, उतना अच्छा जी लेंगे।”


वर्ष बीत गए।
उनका छोटा-सा घर अब यादों से भर चुका था।
गौरी रोज़ सुबह खिड़की खोलती,
धूप अंदर आती, और उसे लगता कि जीवन अब भी मुस्कुरा रहा है।

एक सुबह विराज नींद में ही शांत हो गया।
कोई दर्द नहीं, कोई आह नहीं—
बस एक धीमी-सी साँस के साथ जैसे कह गया—

“धन्यवाद… मुझे जीवन देने के लिए।”

गौरी ने उसे शांत चेहरा देखकर
पहली बार महसूस किया कि
प्यार का अंत मृत्यु नहीं होता—
यादों के रूप में वह हमेशा जिंदा रहता है।

उसने उसकी चीज़ें संभालीं,
तस्वीरें उठाईं,
और अपने दिल में एक शांत सुकून महसूस किया।

वह अकेली थी—
पर इस बार अकेलापन बोझ नहीं था।
यह एक ऐसी संगत का परिणाम था
जो मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होती।


विराज के जाने के बाद
गौरी ने वही शहर नहीं छोड़ा।

क्यों?

क्योंकि यहीं उसने पहली बार
अपने लिए जीना सीखा था।

यहीं उसे बिना सवालों के इज्ज़त मिली थी।
यहीं उसे प्यार मिला था—
पवित्र, शांत, बिना किसी दिखावे का।

गौरी ने एक चीज़ और तय की—
अब वह दूसरों की दया या रिश्ता माँगकर नहीं जिएगी।
वह अब उतनी ही मजबूत हो चुकी थी
कि खुद का जीवन संभाल सके।

हर शाम वह खिड़की पर बैठती,
बिल्कुल वहीं जहाँ विराज बैठा करता था,
और फुसफुसाकर कहती—

“हमने जिंदगी को आखिरकार जी ही लिया, विराज…”
“और यही हमारी जीत है।”


यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती—
क्योंकि प्यार कभी खत्म नहीं होता।

समाज ने शायद उन्हें गलत कहा,
लेकिन इंसानियत ने उन्हें सही ठहराया।
दो टूटे हुए लोग,
जिन्होंने एक-दूसरे के सहारे
जीवन को जीने का नया अर्थ दिया।

बुधवार, 26 नवंबर 2025

“मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा: IGI दिल्ली से Phuket Thailand तक”

 “मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा: IGI दिल्ली से Phuket Thailand तक”

 एक सपना जो सालों से पल रहा था

ज़िंदगी में कुछ पल ऐसे होते हैं जो हमारे दिल की गहराइयों में हमेशा के लिए बस जाते हैं। ऐसे पल, जिनकी हम वर्षों तक कल्पना करते हैं, सपने देखते हैं… और जब वह सपना सच होता है, तो दिल की धड़कनें भी जैसे एक नई लय में धड़कने लगती हैं।

मेरे लिए मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा—दिल्ली से फुकेत—ऐसा ही एक सपना था।
यह सिर्फ एक यात्रा नहीं थी, बल्कि एक भावनात्मक सफर था, एक अनुभव था जिसने मुझे दुनिया को एक नई दृष्टि से देखने का मौका दिया।

इस व्लॉग में मैं आपको साथ लेकर चलूँगा—
घर से निकलने की घबराहट, IGI एयरपोर्ट की चमक, इमिग्रेशन का अनुभव, टेकऑफ का रोमांच, बादलों के बीच उड़ते हुए मेरे एहसास, और आखिरकार… थाईलैंड की उस धरती तक, जहाँ पहली बार विदेशी हवा ने मेरा स्वागत किया।

साथ बने रहिए… यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं, हर यात्रा प्रेमी की कहानी है जिसे पहली बार आसमान के पार जाने का मौका मिलता है।

सफर की शुरुआत: रात की नमी में दबी उत्सुकता

उस रात मेरी नींद वैसे भी पूरी नहीं हुई थी।
मन में सिर्फ एक ही बात घूम रही थी—
“कल मैं अपने जीवन की पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान भरने वाला हूँ।”

मैंने एक बार फिर अपने बैग चेक किए—पासपोर्ट, टिकट, ID, चार्जर, कैमरा, ट्राइपॉड… सब कुछ जैसे परीक्षा देने जा रहा हूँ।

लेकिन दिल के अंदर कहीं न कहीं हल्की सी घबराहट थी।

पहली विदेश यात्रा… और दिल में लाखों सवाल।

सब कुछ समेटकर जैसे ही मैं घर से बाहर निकला, रात की वह ठंडी हवा चेहरे से टकराई।
एक एहसास आया—
“हाँ, अब यह सफर शुरू हो चुका है।”

रास्ते का उत्साह: दिल्ली की सड़कों पर चलती कार

रात के करीब 3 बजे थे।
सड़कों पर ट्रैफिक कम था, लेकिन मेरे मन में भावनाओं का ट्रैफिक भरा पड़ा था।
कार की खिड़की से बाहर देखते हुए ऐसा लगता था जैसे दिल्ली शहर भी मेरे साथ जाग रहा हो।

हर मोड़ पर मन कह रहा था—
“अब बस IGI पहुँच जाऊँ, फिर असली मज़ा शुरू होगा।”

मैंने YouTube पर कई वीडियो देखे थे—
“पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा कैसे करें”,
“इमिग्रेशन में क्या होता है”,
“फ्लाइट टेकऑफ कैसा लगता है”…

लेकिन आज मैं खुद उसे अनुभूत करने वाला था।

Indira Gandhi International Airport का पहला दृश्य

जैसे ही कार IGI के गेट की ओर मुड़ी, सामने जो चमक दिखाई दी, वह दिल में उतर गई।
बड़ा–सा प्रवेश द्वार, लाइटों की चमक, विदेशी टैक्सियाँ, लगेज ट्रॉलियाँ, और अलग-अलग देशों से आए लोग…

पहली बार यह सब देखते हुए मैं कुछ पल के लिए चुप हो गया।
सोचा—
“यही है वह जगह, जहाँ से सपने उड़ान भरते हैं।”

Terminal 3 का विशाल भवन, उसकी काँच की दीवारें, और अंदर दिखाई देता नीला-पीला प्रकाश…
सच कहूँ तो, पहली झलक ही दिल जीत ले गई।

मैंने अपने कैमरे को ऑन किया और व्लॉग रिकॉर्डिंग शुरू की—
"दोस्तों, आज मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा शुरू हो रही है… और मैं पहुँच चुका हूँ IGI एयरपोर्ट दिल्ली। आज मैं जा रहा हूँ फुकेत, थाईलैंड।"

वह वाक्य बोलते समय खुद पर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि यह सब सच में हो रहा है।

Terminal 3 का रोमांच

जैसे ही मैं अंदर गया, सामने विशाल हॉल दिखा—
नीचे चमकती टाइल्स, ऊपर लटकी सुनहरी कला-कृतियाँ, और चारों ओर यात्रियों की चहल-पहल।

हर कोई अपने-अपने गंतव्य की ओर जा रहा था—
कोई दुबई, कोई लंदन, कोई न्यूयॉर्क…
और मैं…
Phuket, Thailand ❤️

चेक-इन काउंटर पर पहुँचते ही मेरा दिल थोड़ा तेज़ धड़कने लगा।
पासपोर्ट पहली बार अंतरराष्ट्रीय काउंटर पर जा रहा था।

“Sir, where are you travelling?”
"Phuket, Thailand," मैंने गर्व से कहा।

उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरा पासपोर्ट, टिकट, और बैग चेक किया।
कुछ मिनटों बाद मेरे हाथ में बोर्डिंग पास था।

बोर्डिंग पास हाथ में आने का वह एहसास…
जैसे किसी सैनिक को जीत का प्रतीक मिल गया हो।

मैंने कैमरे की ओर देखते हुए कहा—
“दोस्तों, अब असली सफर शुरू… चलिए चलते हैं इमिग्रेशन की तरफ।”

इमिग्रेशन: सबसे अहम चरण

इमिग्रेशन काउंटर की लंबी लाइन देखते ही थोड़ी घबराहट हुई।
सब लोग शांत खड़े थे, कोई मोबाइल पर बात कर रहा था, कोई कागज़ तैयार कर रहा था।

मैं भी लाइन में लगा।
जब मेरी बारी आई तो अधिकारी ने पूछा—
"Is this your first international trip?"
मैंने मुस्कुराकर कहा, "Yes, sir."

उन्होंने पासपोर्ट देखा, कुछ पल के लिए कंप्यूटर स्क्रीन पर टाइप किया…
और फिर — मुट्ठ की आवाज़ जैसी मुहर की आवाज़
THPP
पासपोर्ट पर पहली विदेशी मुहर लग चुकी थी।

मैंने मन में कहा —
“हाँ! यह हो गया… मैं अब सचमुच इंटरनेशनल ट्रैवलर हूँ।”

कैमरे में मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
“दोस्तों, पासपोर्ट पर पहली मुहर लग चुकी है… और यह एहसास बताने लायक नहीं।”

सिक्योरिटी चेक और Departure Gate

अगला चरण था सिक्योरिटी चेक।
सब बहुत तेज़ी से हुआ।

जैसे ही मैं आगे बढ़ा, सामने Duty-Free Shops की चमक दिखाई दी।
परफ्यूम, घड़ियाँ, चॉकलेट्स, लग्जरी ब्रांड्स…

यह सब देखकर अहसास हुआ कि यह जगह हर यात्री के लिए एक छोटा–सा संसार है।

Gate number स्क्रीन पर देखकर मैं अपनी फ्लाइट की ओर बढ़ा।
सामने खड़ी थी—मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान।
वह विमान मानो मुझे बुला रहा था—
“चलो… अब दुनिया बदलने वाली है तुम्हारी।”

विमान में बैठने का जादुई पल

जब बोर्डिंग शुरू हुई, मैं लाइन में खड़ा हुआ।
दरवाजे से अंदर कदम रखते ही एयरहोस्टेस की मुस्कुराहट ने डर को आधा कम कर दिया।

मुझे खिड़की वाली सीट मिली थी—मेरी सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई।

मैं बैठा और बाहर देखा—
रनवे की रोशनी, टैक्सी करती गाड़ियाँ, और दूर खड़ी बड़ी-बड़ी फ्लाइट्स…
यह सब मुझे सपने जैसा लग रहा था।

सीट बेल्ट बाँधते ही दिल धड़कने लगा।
यह वही पल था जिसके बारे में मैंने वर्षों से सोचा था।

टेकऑफ: जब धरती पीछे छूटने लगी

फ्लाइट धीरे–धीरे रनवे पर आगे बढ़ने लगी।
एक क्षण ऐसा आया जब उसने रफ्तार पकड़ी—
और अचानक…
आकाश में उड़ान भर ली।

दिल में एक चुभन–सी हुई, आँखें हल्की सी नम हुईं।
नीचे दिल्ली पीछे छूट रही थी—इमारतें छोटी हो रही थीं…
और मेरे सपने बड़े।

जब विमान बादलों को चीरकर ऊँचाई पर पहुँचा, मैंने कैमरा खिड़की की ओर घुमाया—
बाहर रूई जैसे बादल थे, सूरज हल्का नारंगी…
जैसे स्वर्ग नीचे बिछा हो।

मैंने खुद से कहा—
“यह मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत पलों में से एक है।”

आसमान में 4 घंटे: शांति, सौंदर्य, और अनंत आकाश

फ्लाइट में भोजन मिला, मैंने खाया।
कुछ देर बाद फ्लाइट की लाइट्स धीमी हो गईं।

मैंने खिड़की से बाहर देखा—
नीचे बादलों की चादर…

मन में एक ही विचार आया—
“ज़िंदगी में कम से कम एक बार ऐसा सफर जरूर करना चाहिए।”


थाईलैंड का पहला दृश्य:  समंदर

करीब 4 घंटे बाद सामने समुद्र दिखाई दिया।
नीला पानी…
उसके बीच टापू…
और आसमान में सूरज का हल्का सुनहरा रंग…

यह दृश्य देखकर ऐसा लगा मानो किसी ने एक पेंटिंग को जीवन दे दिया हो।

मैंने कैमरे में कहा—
“दोस्तों… स्वागत है थाईलैंड में, यह सब मैं कभी नहीं भूलूँगा।”

Phuket International Airport की धरती पर पहली बार कदम

जैसे ही विमान उतरा, मैं खिड़की से बाहर देखता ही रह गया।
सामने नारियल के पेड़, साफ़ हवा, और विदेशी माहौल।

जब विमान का दरवाजा खुला और मैंने सीढ़ियाँ उतरीं—
वह हवा…
वह महक…

एक पूरी तरह नई दुनिया का स्वागत थी।

पहली Entry stamp लगवाते समय मेरे चेहरे पर मुस्कान थी।

मैंने मन में कहा—
“यह सिर्फ शुरुआत है…”

Thailand की हवा, चेहरे, और माहौल

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही मन खुश हो गया—
मस्कुराते लोग, अंग्रेजी–थाई भाषा की आवाजें, समुद्री हवा…

हर चीज अलग थी।
हर चीज खूबसूरत।

इस यात्रा ने मुझे क्या सिखाया?

यह यात्रा सिर्फ घूमने की नहीं थी—
यह जीवन का एक पाठ थी।

मैंने सीखा—
● सपनों को पूरा किया जा सकता है
● दुनिया बहुत बड़ी और खूबसूरत है
● यात्रा हमें बदल देती है
● डर सिर्फ शुरुआती बाधा है
● आकाश की कोई सीमा नहीं—हमारी क्यों हो?

समापन: मेरी कहानी, मेरी यात्रा

यह मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा थी—
दिल्ली से Phuket तक।

और आज जब मैं इस व्लॉग को रिकॉर्ड कर रहा हूँ, मन में बस एक ही बात है—
“सफर जितना बाहर का होता है, उतना ही अंदर का भी।”

आप सबका धन्यवाद,
जो मेरे साथ इस कहानी के हर पल में जुड़े रहे।


सोमवार, 15 सितंबर 2025

रत्नागिरी की मर्मस्पर्शी प्रेमकहानी – सात दिन की मुलाकात एक अधूरी मोहब्बत की कहानी


जीवन में कभी-कभी ऐसी मुलाक़ातें होती हैं, जो पल भर के लिए ही सही, लेकिन दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यह कहानी है अरुण और अनु की – एक ट्रैवल ब्लॉगर और एक फैशन डिज़ाइनर, जिनकी मुलाक़ात रत्नागिरी की खूबसूरत वादियों में हुई। दोनों की यह मुलाक़ात धीरे-धीरे एक भावनात्मक यात्रा में बदल गई, जिसने उन्हें प्यार का नया अहसास कराया।




 यह कहानी है अरुण और अनु की, दो यात्रियों की, जिनकी मुलाक़ात पहाड़ों की यात्रा के दौरान हुई। साथ बिताए सात दिन उनके दिलों में अमर यादें छोड़ गए। समय बीत गया, अरुण अपनी ज़िम्मेदारियों में बंधा रहा और अनु ने अपना जीवन अकेले गुज़ार दिया। 



अरुण एक पचास वर्षीय व्यक्ति था। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर भी उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी और जिज्ञासा ज़िंदा थी। शादी को लगभग पच्चीस साल हो चुके थे। पत्नी, बच्चे, परिवार—सब कुछ था उसके पास। बाहर से देखने पर उसकी ज़िंदगी संतोषजनक और पूरी लगती थी, लेकिन भीतर कहीं न कहीं वह ख़ुद को अधूरा महसूस करता था।

अरुण एक ट्रैवल ब्लॉगर था। देश-विदेश की यात्राएँ करना, वहाँ की संस्कृति को जानना, स्थानीय खान-पान का स्वाद लेना और सबसे बढ़कर वहाँ के लोगों से बातचीत कर उनकी कहानियाँ सुनना—यही उसका जुनून था। परिवार को उसने हमेशा आराम और सुरक्षा दी थी, मगर दिल के किसी कोने में उसे लगता था कि यह यात्राएँ ही उसकी असली साँस हैं।

गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हुईं तो उसने तय किया कि इस बार वह रत्नागिरी जाएगा। पश्चिमी घाट की हरी-भरी पहाड़ियाँ, समुद्र का नीला विस्तार और वहाँ की अनूठी संस्कृति हमेशा से उसे आकर्षित करती रही थी।

उसने एक सप्ताह का पूरा कार्यक्रम बनाया।

  • पहले दिन आसपास के प्रमुख दर्शनीय स्थल देखना।

  • दूसरे दिन समुद्र तट और मंदिरों का भ्रमण।

  • तीसरे दिन स्थानीय गाँव और बाज़ार की खोज।

  • चौथे और पाँचवें दिन पहाड़ी इलाक़ों और झरनों की सैर।

  • आख़िरी दो दिन विश्राम और लेखन के लिए।

योजना तय करने के बाद उसने टिकट बुक कराई और तय दिन पर रत्नागिरी पहुँच गया। स्टेशन से बाहर निकलते ही नमकीन हवा के झोंके ने उसका स्वागत किया। समंदर की महक, आसपास की हरियाली और शहर की सादगी ने उसके मन को ताज़गी से भर दिया।

उसने अपने बजट के हिसाब से एक छोटे मगर साफ़-सुथरे होटल में कमरा लिया। कमरे की खिड़की से दूर पहाड़ियाँ दिखाई देती थीं, और नीचे सड़क पर लोग अपनी-अपनी रफ़्तार से ज़िंदगी जीते नज़र आते थे।

पहले दिन उसने होटल में थोड़ा आराम किया और फिर अपने कैमरे और नोटबुक के साथ निकल पड़ा। उसने समुद्र किनारे शाम बिताई, स्थानीय मछुआरों से बातचीत की, और फिर पास के बाज़ार से कुछ स्नैक्स लेकर होटल लौट आया। रात को थकान के बावजूद वह अपने लैपटॉप पर बैठा और दिनभर के अनुभवों को लिखने लगा।

अगली सुबह उसने तय किया था कि वह जल्दी उठकर एक टैक्सी किराए पर लेगा और शहर के प्रमुख स्थलों को देखने निकलेगा।

सूरज की पहली किरणें खिड़की से कमरे में आईं तो रुण उठ बैठा। नहाकर, कपड़े पहनकर और कैमरे को कंधे पर लटकाकर वह सड़क पर आ गया।

सड़क पर सुबह की हल्की ठंडी हवा बह रही थी। लोग अपने-अपने कामों में जुटे हुए थे। अरुण टैक्सी की तलाश में इधर-उधर देखने लगा। तभी उसकी नज़र एक और यात्री पर पड़ी—करीब पैंतीस साल की एक महिला, जो उसके पास आकर खड़ी हो गई थी।

उसके चेहरे पर एक आत्मविश्वास भरी चमक थी। वह अकेली थी, हाथ में एक छोटा बैकपैक और कंधे पर कैमरा लटकाए हुए। अरुण ने सोचा—

"शायद कोई सोलो ट्रैवलर है, मेरी तरह।"

कुछ ही देर में एक टैक्सी वहाँ आकर रुकी। दोनों लगभग एक साथ उसकी ओर बढ़े। टैक्सी ड्राइवर ने मुस्कुराते हुए कहा,
“कहाँ जाना है साहब? मैडम?”

अरुण ने कहा,
“मुझे रत्नागिरी और आसपास के दर्शनीय स्थल देखने हैं। क्या आप पूरा दिन घूमाने का चार्ज बताएँगे?”

तभी वह महिला भी आगे बढ़कर बोली,
“मुझे भी यही पूछना था। मैं कोलकाता से आई हूँ और रत्नागिरी घूमने का प्लान है।”

ड्राइवर ने दोनों को देखा और मुस्कुराते हुए बोला,
“तो फिर क्यों न आप दोनों साथ ही चलिए? एक ही गाड़ी में घूम लीजिए, खर्च भी बाँट जाएगा और सफ़र भी अच्छा कटेगा।”

अरुण ने हल्की-सी झिझक के साथ महिला की ओर देखा। उसने भी मुस्कुराकर हामी भर दी।

ड्राइवर ने गाड़ी चालू की और सफ़र शुरू हुआ।

रास्ते भर अरुण और वह महिला, जिसका नाम बाद में पता चला अनु, अपने-अपने कामों में व्यस्त रहे। अरुण अपने कैमरे से फोटो खींचता रहा, नोट्स बनाता रहा, जबकि अनु अपने मोबाइल से वीडियो शूट कर रही थी। दोनों ने ज़्यादा बातचीत नहीं की।

शाम तक वे कई जगह घूमे, लेकिन दोनों के बीच केवल औपचारिक-सी बातें हुईं—
“ये जगह अच्छी है।”
“हाँ, बहुत सुंदर है।”
“आप कहाँ से हैं?”
“दिल्ली।”
“मैं कोलकाता से।”

इतनी ही बातें।

दिन ढलने लगा। होटल लौटते हुए अरुण ने सोचा

"ये तो बिल्कुल चुप-चुप सी है। अगर यही साथ में घूमेगी तो मैं बोर हो जाऊँगा। कल से मैं दूसरी टैक्सी ले लूँगा।"

उस रात उसने होटल लौटकर डिनर किया और सोने से पहले डायरी में लिखा—
"रत्नागिरी सुंदर है, लेकिन आज का दिन बहुत अकेला गुज़रा। शायद कल मैं किसी और टैक्सी का इंतज़ाम कर लूँ।"

लेकिन उसे यह अंदाज़ा नहीं था कि अगला दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे यादगार दिन बनने वाला है।


सुबह सूरज की हल्की किरणें खिड़की से छनकर अरुण के चेहरे पर पड़ीं। वह नींद से जागा, स्ट्रेच किया और धीरे-धीरे तैयार होने लगा। पिछली रात उसके मन में यही तय था कि वह ड्राइवर से बात करके दूसरी टैक्सी कर लेगा, लेकिन उसने अभी कोई पक्का निर्णय नहीं लिया था।

नाश्ता कर वह फिर सड़क पर पहुँचा। टैक्सी वही थी, वही ड्राइवर, और हाँ—वही महिला भी।

अनु पहले से वहाँ खड़ी थी। इस बार उसने रुण को देखकर हल्की-सी मुस्कान दी। अरुण को कुछ अजीब-सा लगा। कल वह चुप-चुप सी थी, लेकिन आज उसके चेहरे पर अपनापन झलक रहा था।

ड्राइवर ने हँसते हुए कहा—
“साहब, मैडम, लगता है कि आज भी आप दोनों साथ ही घूमेंगे। मेरा तो काम आसान हो जाएगा।”

अरुण कुछ कह पाता उससे पहले अनु ने मुस्कुराकर कहा—
“जी हाँ, क्यों नहीं। कल का दिन तो अच्छा ही रहा।”

अरुण ने हैरानी से उसकी ओर देखा। “अच्छा? मैंने तो सोचा था वह तो बात भी नहीं करना चाहती।”
लेकिन 
अरुण ने कुछ कहा नहीं और बस गाड़ी में बैठ गया।

गाड़ी चली। रास्ते में कुछ देर तक खामोशी रही, फिर अनु ने धीरे से कहा—
“कल शायद मैं थोड़ी थकी हुई थी, इसलिए आपसे ठीक से बात नहीं कर पाई। दरअसल लंबी यात्रा के बाद मन ही नहीं कर रहा था बातचीत का। आज सोच रही हूँ, सफ़र लंबा है तो क्यों न थोड़ा एक-दूसरे को जानें।”

अरुण मुस्कुराया।
“बिल्कुल, यात्रा तभी यादगार बनती है जब हम साथियों को जानें-समझें। वरना तो सब कुछ बस तस्वीरों में सिमटकर रह जाता है।”

अनु ने अपनी आँखों में चमक लिए कहा—
“सही कहा आपने। तो शुरुआत मैं ही करती हूँ। मेरा नाम अनु है। मैं कोलकाता से हूँ। पेशे से फैशन डिज़ाइनर हूँ, लेकिन साथ ही यात्रा करना मेरा जुनून है। जब भी समय मिलता है, मैं बैग उठाती हूँ और किसी नई जगह चल पड़ती हूँ।”

अरुण ने गहरी साँस लेते हुए कहा—
“वाह! यह तो शानदार है। मैं भी कुछ-कुछ ऐसा ही करता हूँ। दरअसल मैं एक ट्रेवल ब्लॉगर हूँ। भारत के कोने-कोने में घूम चुका हूँ। अलग-अलग संस्कृति, खाना, लोग—यही सब मेरे ब्लॉग और चैनल का हिस्सा हैं।”

अनु ने उत्सुकता से कहा—
“ओह, तो आप ब्लॉगर हैं! अच्छा हुआ मैंने कल ही आपसे बातें शुरू नहीं कीं, वरना शायद मेरी ही तस्वीरें आपके कैमरे में भर जातीं।”

दोनों ज़ोर से हँस पड़े। हँसी की इस लहर ने जैसे उनके बीच की सारी झिझक तोड़ दी।

अब गाड़ी में लगातार बातचीत चलने लगी।

अरुण ने पूछा—
“तो अनु जी, आप सोलो ट्रैवल क्यों करती हैं? अकेले सफ़र करना थोड़ा मुश्किल नहीं होता?”

अनु ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा—
“मुश्किल तो होता है, लेकिन यही आज़ादी मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। किसी के बंधन में नहीं, किसी की योजना के हिसाब से नहीं—बस मैं और मेरी यात्रा। हाँ, कभी-कभी अकेलापन महसूस होता है, पर फिर वही अकेलापन मुझे अपने आप से जोड़ देता है।”

अरुण ने धीरे से कहा—
“आपकी बात सुनकर लगता है कि आप ज़िंदगी को गहराई से जीती हैं। मुझे तो अब तक यही लगा था कि यात्रा सिर्फ़ घूमने और फोटो खींचने का नाम है, लेकिन आपसे बात करके समझा कि यात्रा आत्मा से भी जुड़ सकती है।”

अनु ने हल्की मुस्कान दी—
“और आपको देखकर लग रहा है कि आप भी ज़िंदगी को बहुत करीब से जीते हैं। आपके कैमरे में सिर्फ़ तस्वीरें नहीं, कहानियाँ भी क़ैद होती होंगी।”

अरुण थोड़ा भावुक हो गया। सच तो यही था कि उसने अब तक अपनी यात्राओं में कई कहानियाँ सुनीं और लिखीं, लेकिन अपनी कहानी किसी से साझा करने का मौका नहीं मिला।

दिन भर वे दोनों अलग-अलग जगह घूमे। कभी मंदिर, कभी समुद्र किनारा, कभी कोई किला। हर जगह अरुण अनु की तस्वीरें खींचता, अनु हरी के वीडियो शूट करती। दोनों एक-दूसरे को सुझाव देते कि कहाँ से फोटो अच्छा आएगा, किस तरह वीडियो में पृष्ठभूमि सुंदर लगेगी।

धीरे-धीरे उनमें सहजता आ रही थी।

दोपहर को जब वे एक छोटे से ढाबे में स्थानीय भोजन करने बैठे, तब अनु ने कहा—
अरुण जी, आप तो बहुत यात्राएँ कर चुके हैं। कभी ऐसा हुआ कि कोई जगह आपके दिल में हमेशा के लिए बस गई हो?”

अरुण ने चुपचाप कुछ पल सोचा और कहा—
“हाँ, हुआ है। कई जगहों ने मुझे छुआ है, लेकिन… सच कहूँ तो कभी-कभी इंसान ही जगह से ज़्यादा याद रह जाते हैं। किसी जगह की असली सुंदरता वहाँ के लोगों में होती है।”

अनु ने सिर हिलाया।
“बिलकुल सही। मुझे भी लगता है कि यादें जगहों से नहीं, लोगों से बनती हैं। शायद यही वजह है कि मैं अब तक अकेली हूँ, लेकिन जब भी सफ़र में कोई अच्छा इंसान मिलता है, तो लगता है यात्रा सफल हुई।”

अरुण ने उसकी आँखों में देखा। कुछ देर के लिए दोनों के बीच मौन छा गया।

शाम होते-होते वे फिर होटल लौट आए। लेकिन इस बार माहौल अलग था। अब दोनों के बीच चुप्पी नहीं थी, बल्कि एक नया अपनापन था।

रात को अरुण ने अपने डायरी में लिखा—

"आज का दिन खास रहा। अनु नाम की यह यात्री न जाने क्यों दिल के बहुत करीब लग रही है। उसकी बातें, उसका आत्मविश्वास और उसकी सादगी… सबकुछ अजीब-सा सुकून देता है। मैं सोच रहा था कि इसे छोड़ दूँगा, पर अब लगता है कि इसी के साथ घूमना ठीक रहेगा। शायद यही यात्रा मुझे यादगार बनने वाली है।"


तीसरा दिन था। सुबह-सुबह मौसम बेहद सुहावना था। रातभर हुई हल्की बारिश से रत्नागिरी की पहाड़ियाँ धुली-धुली लग रही थीं। हवा में मिट्टी और नमक की महक घुली हुई थी।

अरुण हमेशा की तरह तैयार होकर नीचे आया तो देखा कि अनु पहले से टैक्सी में बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह आज कुछ अलग ही लग रही थी—हल्की नीली ड्रेस, खुले बाल और चेहरे पर ताज़गी भरी मुस्कान।

“गुड मॉर्निंग, अरुण जी!” अनु ने हाथ हिलाते हुए कहा।

अरुण ने मुस्कुराकर जवाब दिया—“गुड मॉर्निंग, अनु जी। आज तो आप बिल्कुल… क्या कहूँ… जैसे बादलों के बीच इंद्रधनुष।”

अनु हँस पड़ी—“अरे, आप तो बड़े कवि निकले। मुझे तो लगा था आप सिर्फ़ ब्लॉग लिखते हैं।”
अरुण ने भी हँसते हुए कहा—“कभी-कभी दिल की बातें शब्दों में ढल जाती हैं।”

गाड़ी चल पड़ी। आज उनका प्लान था पास के एक झरने और गाँव को घूमने का। रास्ते भर दोनों लगातार बातें करते रहे। अब वह औपचारिकता नहीं रही थी, बल्कि सहज दोस्ती का भाव आ गया था।

अरुण ने पूछा—“तो अनु जी, आपने शादी क्यों नहीं की? मतलब, आपकी उम्र भी अब…”
अनु ने उसकी बात बीच में काटते हुए कहा—“हाँ हाँ, मुझे पता है, लोग यही सवाल पूछते हैं। दरअसल, मुझे कभी ऐसा साथी ही नहीं मिला जिसके साथ मैं सच में जुड़ सकूँ। सबको लगता था मैं बस घर संभालूँगी, उनके हिसाब से चलूँगी। लेकिन मैं तो अपने सपनों और आज़ादी को छोड़ नहीं सकती थी। और शायद इसी वजह से अब तक अकेली हूँ।”

अरुण ने उसकी बात ध्यान से सुनी। कुछ देर चुप रहा और फिर बोला—
“आपकी बात में सच्चाई है। ज़िंदगी साथी के साथ तभी खूबसूरत होती है जब दोनों एक-दूसरे को समझें, सपनों का सम्मान करें। वरना तो रिश्ते बोझ बन जाते हैं।”

अनु ने गहरी नज़र से उसकी ओर देखा—“और आपकी शादी? आप तो शादीशुदा हैं ना?”

अरुण ने लंबी साँस छोड़ी—“हाँ, हूँ। बीवी अच्छी है, बच्चे अच्छे हैं। लेकिन सच कहूँ तो… मैं कभी पूरी तरह उस रिश्ते में खुद को नहीं ढूँढ पाया। जिम्मेदारियाँ, समाज, परिवार—सबने मिलकर मुझे बाँध दिया। कभी-कभी लगता है जैसे मेरी ज़िंदगी मैंने नहीं, हालात ने तय की।”

अनु उसकी बात सुनकर चुप हो गई। उसकी आँखों में एक गहरी समझ थी। शायद उसने पहली बार किसी को इतना ईमानदार होकर यह कहते सुना था।

झरने के पास पहुँचकर दोनों उतर गए। पानी की कलकल धारा, हरे-भरे पेड़ और पक्षियों की चहचहाहट—सबकुछ जैसे किसी दूसरी दुनिया का हिस्सा था।

अनु पत्थरों पर बैठकर पैर पानी में डुबोए हुई थी। अरुण उसके पास आया और कैमरे से उसकी तस्वीर लेने लगा।

“आपके चेहरे पर जो मासूमियत है न, वही तस्वीर को खास बना देती है।”

अनु मुस्कुराई—“आप तो मुझे मॉडल बना देंगे।”
“क्यों नहीं? आपसे बेहतर मॉडल और कौन हो सकता है?”

धीरे-धीरे बातचीत का सिलसिला गहराता गया। दोनों ने अपने बचपन की कहानियाँ साझा कीं। अरुण ने बताया कि कैसे वह गाँव से निकलकर पढ़ाई करने शहर आया, फिर नौकरी की, फिर शादी हो गई और ज़िम्मेदारियों ने उसे घेर लिया।

अनु ने बताया कि कैसे उसने छोटे शहर से निकलकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष किया, अपने काम से पहचान बनाई, लेकिन अकेलेपन का सामना भी किया।

शाम को वे एक छोटे से गाँव में पहुँचे। वहाँ के लोग बेहद सादगी से रहते थे। अनु को यह सब देखकर बेहद अच्छा लगा। उसने गाँव की औरतों से उनके पहनावे और कढ़ाई के बारे में पूछा। अरुण ने बच्चों से बातें कीं और उनकी तस्वीरें खींचीं।

गाँव के बुज़ुर्ग ने दोनों को अपनी झोपड़ी में चाय पिलाई। अनु ने धीरे से कहा—“अरुण जी, कभी-कभी लगता है असली खुशी यहीं है। ये लोग कितने सादे हैं, लेकिन चेहरे पर सच्ची मुस्कान है।”

अरुण ने सहमति में सिर हिलाया—“हाँ, शायद यही ज़िंदगी है। हम शहर वाले तो दिखावे में उलझकर असली सुख भूल जाते हैं।”

होटल लौटते हुए अनु खामोश थी। अरुण ने पूछा—“क्या सोच रही हैं?”

अनु ने धीरे से कहा—“सोच रही हूँ कि कभी-कभी अजनबी भी कितने अपने से लगने लगते हैं। जैसे आप… दो दिन पहले तक बिल्कुल अजनबी थे, लेकिन अब लगता है कि मैं आपको बरसों से जानती हूँ।”

अरुण ने मुस्कुराकर कहा—“शायद यही यात्रा की खूबसूरती है। रास्ते में मिले लोग ही हमारी यादों का हिस्सा बन जाते हैं।”

उस रात अरुण ने अपनी डायरी में लिखा—

"आज अनु से बहुत बातें हुईं। मैंने अपना मन खोलकर रख दिया और उसने भी। यह अजीब है—कभी-कभी ज़िंदगी में ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे आप सबकुछ कह सकते हैं, जो बिना जज किए सुन लेते हैं। अनु… अब सिर्फ़ एक साथी यात्री नहीं, बल्कि मेरे दिल का हिस्सा बनती जा रही है।"


चौथा दिन था। सूरज की किरणें समंदर से उगते हुए सुनहरी गोले की तरह चमक रही थीं। रत्नागिरी की पहाड़ियों पर फैली हल्की धुंध अब धीरे-धीरे छंट रही थी। मौसम में एक अजीब-सी नमी थी जो दिल को रोमांचित कर रही थी।

अरुण सुबह उठकर होटल की छत पर खड़ा था। नीचे सड़क पर लोग अपनी दिनचर्या में लग चुके थे। लेकिन उसके दिल में आज कुछ और ही हलचल थी। पिछली रात अनु से हुई लंबी बातचीत ने उसके मन को अजीब-सी बेचैनी और सुकून दोनों दिया था।

“क्या यह सिर्फ दोस्ती है? या इससे आगे कुछ और?”—अरुण के मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा था।

आज का प्लान पास के पहाड़ी मंदिर और फिर समुद्र किनारे सूर्यास्त देखने का था। टैक्सी आ चुकी थी। अरुण नीचे पहुँचा तो अनु पहले से मौजूद थी। उसने हल्के पीले रंग की साड़ी पहनी थी, बाल खुले हुए थे और चेहरे पर वही सादगी भरी मुस्कान थी।

अरुण ने देखते ही मन ही मन सोचा—
"ये लड़की… क्यों इतनी खास लगने लगी है मुझे? मैं तो इसे बस तीन दिन से जानता हूँ।"

गाड़ी चल पड़ी। रास्ते में दोनों चुप थे, लेकिन यह चुप्पी अब अजीब नहीं लग रही थी। यह चुप्पी एक सहज मौन थी, जिसमें शब्दों से ज़्यादा भावनाएँ बह रही थीं।


पहाड़ी पर बने मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी थीं। दोनों धीरे-धीरे चढ़ रहे थे। हवा ठंडी थी, और चारों ओर हरियाली फैली हुई थी।

अनु अचानक रुक गई, साँस फुल गई थी।
“थोड़ा आराम करें?” उसने कहा।

अरुण ने मुस्कुराकर कहा—“हाँ, बिल्कुल। वैसे भी यात्रा का मज़ा तब है जब हम ठहरकर भी नज़ारे देखें।”

दोनों एक पत्थर पर बैठ गए। नीचे से समुद्र का नीला विस्तार दिखाई दे रहा था। अनु ने अरुण की ओर देखा और कहा—

अरुण जी, आपसे एक बात कहूँ? आपसे बातें करके लगता है कि मैं अकेली नहीं हूँ। इतने सालों में मैंने बहुत सफ़र किया, बहुत लोग मिले, लेकिन किसी से इतनी सहजता नहीं हुई।”

अरुण ने उसकी आँखों में देखा। उन आँखों में सच्चाई और अपनापन था। उसने धीरे से कहा—
“शायद इसलिए क्योंकि हम दोनों ही अपने भीतर कहीं अकेले हैं। और जब दो अकेलेपन मिलते हैं तो दोस्ती बनती है… या शायद उससे भी कुछ ज़्यादा।”

अनु कुछ पल तक चुप रही। फिर हल्की-सी मुस्कान दी।
“आप तो बहुत दार्शनिक बातें करते हैं।”

मंदिर पहुँचकर दोनों ने शांत वातावरण में पूजा की। घंटियों की आवाज़, मंत्रों की गूँज और धूप की महक ने वातावरण को पवित्र बना दिया। अनु ने आँखें बंद करके हाथ जोड़े। अरुण उसकी ओर देखता रहा। उसके चेहरे पर एक ऐसी मासूम आस्था थी कि अरुण का मन भर आया।

मंदिर से बाहर निकलते समय अनु ने कहा—
“काश, यह यात्रा कभी ख़त्म न हो।”

अरुण ने मन ही मन सोचा—
"काश सच में ऐसा हो पाता।"


शाम को दोनों समुद्र किनारे पहुँचे। सूरज डूब रहा था। आसमान नारंगी और लाल रंगों से भर गया था। लहरें किनारे से टकरा रही थीं।

दोनों रेत पर बैठ गए। कुछ देर तक बस लहरों की आवाज़ सुनते रहे।

अरुण ने धीरे से कहा—
“अनु, क्या आपने कभी किसी से प्यार किया है?”

अनु ने उसकी ओर देखा, फिर नज़रें झुका लीं।
“नहीं… मतलब, कॉलेज में कभी किसी पर क्रश हुआ था, लेकिन वह बस मोह था। सच्चा प्यार शायद कभी नहीं मिला। और आप?”

अरुण ने गहरी साँस ली।
“शादी तो हुई, लेकिन… प्यार? शायद नहीं। पत्नी से रिश्ते निभाए, पर दिल की गहराई में जो चाहत होती है, वह कभी नहीं मिली।”

अनु ने उसकी ओर देखा। दोनों की आँखें मिल गईं। कुछ पल के लिए जैसे समय ठहर गया। हवा, लहरें, सूरज—सब गवाह बन गए उस मौन के।

फिर अनु ने धीरे से कहा—
“तो क्या अब…?”

अरुण ने उसकी बात अधूरी ही पकड़ ली।
“अब शायद देर हो चुकी है। मैं शादीशुदा हूँ, जिम्मेदारियाँ हैं। लेकिन दिल… दिल तो उम्र नहीं देखता, हालात नहीं देखता।”

अनु की आँखों में नमी आ गई। उसने धीमे स्वर में कहा—
“आप सच कहते हैं। दिल तो बस धड़कता है। और कभी-कभी उस धड़कन की आवाज़ ही सबसे बड़ी सच्चाई होती है।”

अरुण ने अनायास उसका हाथ पकड़ लिया। अनु ने हाथ नहीं छुड़ाया। दोनों चुपचाप बैठे रहे। लहरें उनके पैरों से टकरा रही थीं, जैसे प्रकृति भी उनकी अनकही भावनाओं को सुन रही हो।


वापसी के रास्ते में दोनों ज्यादा बोले नहीं। लेकिन उनके बीच की खामोशी अब बोझ नहीं थी, बल्कि गहराई से भरी थी।

होटल पहुँचकर विदा लेते समय अनु ने धीमे स्वर में कहा—
अरुण जी, आज का दिन… मेरी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत दिनों में से एक रहेगा।”

अरुण ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा—
“मेरे लिए भी, अनु। मेरे लिए भी।”

उस रात अरुण ने अपनी डायरी में लिखा—

"आज अनु मेरे दिल के और भी करीब आ गई। शायद यह दोस्ती से आगे है। मैं जानता हूँ कि यह रिश्ता समाज के लिए गलत है, लेकिन दिल की दुनिया में कोई नियम नहीं चलते। अनु के साथ रहकर जो सुकून मिलता है, वह मैंने कभी महसूस नहीं किया।"


पाँचवाँ दिन था। अब यात्रा का आधा से अधिक समय बीत चुका था। अरुण और अनु के बीच की दूरी लगभग मिट चुकी थी। जो मौन पहले अजनबीपन का था, वह अब अपनापन बन चुका था। अब उनकी हँसी, बातचीत और साथ चलना-फिरना एक आदत-सा हो गया था।

सुबह टैक्सी में बैठते ही ड्राइवर ने मज़ाक किया—
“लगता है अब आप दोनों दोस्त से भी बढ़कर साथी बन गए हैं। हर जगह इतने अच्छे से घुलमिल जाते हैं।”

अनु शरमा गई और खिड़की की ओर देखने लगी। अरुण ने हल्की मुस्कान दी लेकिन भीतर कहीं उसका दिल तेज़ धड़कने लगा।


आज का प्लान पास के एक झरने और पहाड़ी ट्रेक का था। रास्ता लंबा था, लेकिन दोनों की बातें उसे छोटा बना रही थीं।

अनु ने अरुण से पूछा—

“आपके बच्चे कितने साल के हैं?”
अरुण ने जवाब दिया—“बड़ा बेटा कॉलेज में है और बेटी बारहवीं में। दोनों अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। कभी-कभी लगता है उन्हें मेरी ज़रूरत भी नहीं रही।”

अनु चुप हो गई। उसके मन में सवाल उठा—“अगर अरुण का परिवार उसे पूरी तरह बाँधकर रखता, तो क्या वह यहाँ मेरे साथ इतना खुल पाता?”

झरने तक पहुँचते-पहुँचते हल्की बारिश शुरू हो गई। दोनों ने पास के एक बड़े पेड़ के नीचे शरण ली। बारिश की बूँदें चारों ओर गिर रही थीं, मिट्टी की सोंधी खुशबू हवा में घुल गई थी।

अनु ने हाथ फैलाकर बारिश की बूँदें पकड़ीं। वह हँसते हुए बोली—
अरुण जी, मुझे बारिश बहुत पसंद है। लगता है जैसे आसमान अपने सारे दुख बहा रहा हो।”

अरुण ने उसकी हँसी को देखा। उसके भीतर जैसे कुछ पिघल गया।
“अनु, काश मैं भी ऐसे ही खुलकर हँस पाता। लेकिन मेरी हँसी पर हमेशा जिम्मेदारियों का बोझ रहता है।”

अनु ने धीरे से उसकी ओर देखा—
“तो आज हँसिए। आज आप कोई पति, कोई पिता, कोई ज़िम्मेदार इंसान नहीं… बस 
अरुण हैं, जो यात्रा कर रहे हैं, जो आज़ाद हैं।”

अरुण उसकी बातों में खो गया। वह पल उनके लिए समय से परे था—सिर्फ दो दिल, बारिश और प्रकृति।


झरने के पास पहुँचकर दोनों ने पानी में पैर डुबोए। अनु बाल बांध रही थी, तभी उसका पाँव फिसल गया। अरुण ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया। अनु उसके कंधे से टिक गई। दोनों की नज़रें मिलीं। पानी की आवाज़ के बीच वह मौन उनके दिलों की धड़कनों को और साफ़ सुना रहा था।

अनु ने धीरे से कहा—
अरुण जी, आप जानते हैं ना… मैं ये सब समझती हूँ। आप शादीशुदा हैं। ये रिश्ता कभी नाम नहीं पा सकता। फिर भी…”

अरुण ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया—
“हाँ, मैं जानता हूँ। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे बिना ये यात्रा अधूरी है। अनु, मैं तुम्हारे साथ बिताया हर पल अपनी साँसों में कैद कर लेना चाहता हूँ।”

अनु की आँखों से आँसू छलक आए। उसने सिर झुका लिया।
“काश… समाज, हालात, उम्र… ये सब न होते।”

अरुण ने उसके आँसू पोंछे और बस इतना कहा—
“प्यार इन सबसे बड़ा होता है। भले ही अधूरा रहे, लेकिन सच्चा रहता है।”


अब यात्रा के केवल दो दिन बचे थे। दोनों के बीच की नज़दीकियाँ अब साफ़ झलकने लगी थीं। अब वे मंदिरों या समुद्र के किनारों पर बैठकर बस बातें करते। फोटो और वीडियो कम होने लगे थे, हँसी और मौन ज़्यादा।

लेकिन हर हँसी के पीछे एक डर छुपा था—विदाई का डर।

अनु ने एक शाम कहा—
अरुण जी, सोचकर ही दिल काँप जाता है कि परसों आप चले जाएँगे। फिर शायद कभी मुलाक़ात न हो।”

अरुण ने गहरी साँस लेकर कहा—
“हाँ, यही सच है। हम दोनों जानते हैं कि यह रिश्ता सिर्फ इन सात दिनों का है। लेकिन इन सात दिनों ने जो हमें दिया है, वह सात जन्मों से कम नहीं।”

अनु ने उसके कंधे पर सिर रख दिया। हवा में नमक और आँसुओं की गंध थी।


उस रात दोनों होटल की छत पर बैठे थे। ऊपर पूरा आसमान तारों से भरा था। समुद्र की लहरों की आवाज़ दूर से आ रही थी।

अरुण ने अनु से कहा—
“अगर ज़िंदगी हमें पहले मिला देती तो शायद सब अलग होता।”

अनु ने कहा—
“लेकिन शायद तब हमारी कहानी इतनी खूबसूरत नहीं होती। अधूरी चीज़ें ही तो दिल में हमेशा ज़िंदा रहती हैं।”

अरुण ने अनु का हाथ थामकर कहा—
“तो वादा करो, चाहे जो हो जाए, ये सात दिन हमेशा याद रखोगी।”

अनु ने आँसुओं भरी मुस्कान के साथ कहा—
“वादा है, 
अरुण जी। ये सात दिन मेरी पूरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल पल रहेंगे।”


अरुण और अनु की मुलाकात किसी सपने जैसी थी — सात दिनों तक दोनों ने साथ-साथ घूमा, बातें कीं, हंसी-मजाक किया और जीवन के कुछ सबसे यादगार पल संजोए। परंतु जब विदा का समय आया, उन्होंने एक अनोखा वचन लिया —

वे न तो एक-दूसरे का मोबाइल नंबर लेंगे, न ही सोशल मीडिया पर जुड़ेंगे। क्योंकि उनका मानना था कि यह रिश्ता किसी “बंधन” से नहीं बंधा होना चाहिए, बल्कि **यादों और किस्मत के भरोसे** पर टिका होना चाहिए।


उन्होंने प्रण लिया कि अगर किस्मत ने चाहा तो वे फिर मिलेंगे, वरना यह मुलाकात उनकी आखिरी होगी। शायद अगला जन्म ही उनका सच्चा मिलन लेकर आए।


झपकते ही बीत गई वह रात, जैसे वक्त ने उनके लिए कदम रोकने से इंकार कर दिया हो।

सुबह की सुनहरी किरणें खिड़की से भीतर झांक रही थीं, पर दोनों के मन पर अंधेरे का साया था।


अरुण के चेहरे पर हल्की उदासी थी, मानो हज़ार बातें कहना चाहता हो पर शब्द उसके होंठों तक आते-आते खो जाते।

अनु की आँखों में नींद से ज़्यादा बेचैनी थी, जैसे वह अपने दिल के हर कोने में इस पल को कैद करना चाह रही हो।

“अरुण, अगर किस्मत ने चाहा तो फिर मिलेंगे, वरना अगला जन्म हमारा होगा।”


अरुण ने मुस्कराने की कोशिश की, पर आँखों की नमी छुपा न सका।


उस रात दोनों देर तक चुप बैठे रहे। चाँद उनके दिलों की बेचैनी का गवाह था।

 



सुबह अरुण ने होटल की खिड़की से झांकते हुए देखा— वातावरण एकदम शांत था।

रत्नागिरी की पहाड़ियाँ मानो विदाई का सगीत बजा रही थीं।

उसने धीमे से कहा,

“अनु, आज हमें आख़िरी जगह घूमना है। टैक्सी वाला दस बजे आएगा। चलो, तैयार हो जाओ।”


अनु उस समय आईने के सामने खड़ी थी। उसने हल्की मुस्कान के साथ अरुण की ओर देखा,

पर उस मुस्कान के पीछे छुपा दर्द दोनों समझ रहे थे।

सात दिनों की यह यात्रा जैसे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी बन चुकी थी।

हर जगह, हर मोड़, हर हंसी— सब उनके दिल की किताब में दर्ज हो चुके थे।


अनु ने धीरे से कहा,

“अरुण, ये सात दिन जैसे सात जन्मों के बराबर रहे। काश… वक्त यहीं थम जाता।”


अरुण उसके शब्दों को सुनकर खामोश हो गया।

उसने बस खिड़की से बाहर देखते हुए उत्तर दिया—

“हाँ, काश…”


कमरे में एक अजीब सी चुप्पी पसर गई।

सिर्फ घड़ी की सुइयाँ चल रही थीं, जैसे याद दिला रही हों कि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता।


अनु ने सिर हिलाया। दोनों ने बिना कुछ कहे सामान समेटा। उनके दिलों में बस एक ही ख्याल था—आज के बाद शायद हम कभी न मिलें।


आज का कार्यक्रम था शहर के सबसे प्रसिद्ध मंदिर का दर्शन करना। टैक्सी मंदिर के दरवाज़े पर रुकी। वहाँ सीढ़ियाँ थीं, जिन पर चढ़ते हुए दोनों ने महसूस किया कि हर कदम भारी है।

मंदिर में घनघनाती घंटियों की आवाज़, धूप-बत्ती की खुशबू और भक्तों की भीड़ थी। अरुण और अनु साथ खड़े होकर आरती में शामिल हुए।

आरती के बाद अनु ने आँखें बंद कर प्रार्थना की—
“हे भगवान, मुझे इतनी शक्ति देना कि इस जुदाई को सह सकूँ। और 
अरुण जी को हमेशा खुश रखना।”

अरुण ने भी मन ही मन प्रार्थना की—
“भगवान, यह रिश्ता शायद समाज की नज़रों में सही न हो, लेकिन मेरे दिल में यह सबसे पवित्र है। इसे अधूरा मत होने देना।”

दोनों ने प्रसाद लिया और मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए। अनु ने धीरे से कहा—
अरुण जी, क्या आप सच में  चले जाएँगे?”

अरुण ने लंबी साँस लेकर कहा—
“हाँ अनु, यही सच है। घर पर मेरा इंतज़ार है, परिवार है… और तुम्हारी भी अपनी दुनिया है। लेकिन ये सात दिन… ये हमेशा हमारे दिल में जिंदा रहेंगे।”

अनु की आँखों से आँसू छलक पड़े। अरुण ने उसका हाथ पकड़ लिया, लेकिन आसपास लोगों की भीड़ थी। दोनों ने अपने जज़्बात दबा लिए।


मंदिर से लौटते समय टैक्सी की खिड़की से बाहर देखते हुए अनु चुप रही।अरुण भी चुप था। बीच-बीच में सिर्फ़ टैक्सी का हॉर्न या सड़क की आवाज़ सुनाई देती थी।

टैक्सी वाले ने कहा—
“साहब, आप दोनों तो बहुत अच्छे लगते हैं। लगता ही नहीं पहली बार मिले हैं।”

अरुण और अनु ने एक-दूसरे की ओर देखा और हल्की मुस्कान दी। लेकिन उस मुस्कान में दर्द छुपा था।


शाम तक पैकिंग हो गई। टैक्सी उन्हें एयरपोर्ट तक छोड़ने आई। रास्ते भर अनु खामोश रही। वह बस बाहर देख रही थी, मानो हर पेड़-पौधे, हर मोड़ को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो।

एयरपोर्ट पर पहुँचकर दोनों ने सामान ट्रॉली पर रखा। अब वह वक्त आ चुका था, जिससे दोनों डर रहे थे।

अरुण ने धीरे से कहा—
“अनु, अलविदा कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन वादा करो, इस रिश्ते को बोझ नहीं बनाओगी। इसे अपनी ताक़त बनाना।”

अनु की आँखें भर आईं। उसने कांपते होंठों से कहा—
अरुण जी, आपसे मिलकर मैंने जाना कि सच्चा प्यार क्या होता है। मैं इन सात दिनों को अपनी पूरी ज़िंदगी जीऊँगी।”

भीड़ के बीच खड़े होकर दोनों कुछ पल मौन रहे। अरुण का दिल चाहता था कि वह अनु को गले से लगा ले, लेकिन आसपास लोगों की नज़रों ने उसे रोक दिया।

आख़िरकार अनु ने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया और फुसफुसाई—
“अलविदा… शायद हमेशा के लिए।”

अरुण ने उसकी हथेली दबाई और कहा—
“नहीं, अनु। यह अलविदा नहीं है। यह बस एक ठहराव है। हमारी यादें हमें हमेशा जोड़कर रखेंगी।”

फ्लाइट का अनाउंसमेंट हुआ। अरुण ने भारी कदमों से अंदर की ओर बढ़ना शुरू किया। अनु वहीं खड़ी रही। उसकी आँखें अरुण को तब तक देखती रहीं, जब तक वह भीड़ में गुम नहीं हो गया।


टैक्सी से लौटते समय अनु की गोद में सिर्फ़ उसकी साड़ी का पल्लू था और आँखों में ढेर सारे आँसू। उसे लग रहा था जैसे उसकी दुनिया फिर से खाली हो गई।

होटल के कमरे में पहुँचते ही उसने बिस्तर पर सिर रखकर रोना शुरू कर दिया। लेकिन रोते-रोते उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान भी थी—
अरुण जी, आपने मुझे वो एहसास दिया जो शायद किसी को ज़िंदगी में भी नहीं मिलता। मैं हमेशा आपको याद रखूँगी।”


 इस तरह उनकी यात्रा समाप्त हुई—प्यार में डूबी हुई, लेकिन अधूरी।
दोनों जानते थे कि वे अपनी-अपनी दुनिया में लौट जाएँगे, लेकिन उनका दिल हमेशा एक-दूसरे से जुड़ा रहेगा।

उनकी प्रेमकहानी अधूरी रही, लेकिन उसी अधूरेपन ने उसे अमर बना दिया।


“दूर कहीं उजाला”

  कहानी: “दूर कहीं उजाला” (एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा) पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव —टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी...