जीवन में कभी-कभी ऐसी मुलाक़ातें होती हैं, जो पल भर के लिए ही सही, लेकिन दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यह कहानी है अरुण और अनु की – एक ट्रैवल ब्लॉगर और एक फैशन डिज़ाइनर, जिनकी मुलाक़ात रत्नागिरी की खूबसूरत वादियों में हुई। दोनों की यह मुलाक़ात धीरे-धीरे एक भावनात्मक यात्रा में बदल गई, जिसने उन्हें प्यार का नया अहसास कराया।
अरुण एक पचास वर्षीय व्यक्ति था। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर भी उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी और जिज्ञासा ज़िंदा थी। शादी को लगभग पच्चीस साल हो चुके थे। पत्नी, बच्चे, परिवार—सब कुछ था उसके पास। बाहर से देखने पर उसकी ज़िंदगी संतोषजनक और पूरी लगती थी, लेकिन भीतर कहीं न कहीं वह ख़ुद को अधूरा महसूस करता था।
अरुण एक ट्रैवल ब्लॉगर था। देश-विदेश की यात्राएँ करना, वहाँ की संस्कृति को जानना, स्थानीय खान-पान का स्वाद लेना और सबसे बढ़कर वहाँ के लोगों से बातचीत कर उनकी कहानियाँ सुनना—यही उसका जुनून था। परिवार को उसने हमेशा आराम और सुरक्षा दी थी, मगर दिल के किसी कोने में उसे लगता था कि यह यात्राएँ ही उसकी असली साँस हैं।
गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हुईं तो उसने तय किया कि इस बार वह रत्नागिरी जाएगा। पश्चिमी घाट की हरी-भरी पहाड़ियाँ, समुद्र का नीला विस्तार और वहाँ की अनूठी संस्कृति हमेशा से उसे आकर्षित करती रही थी।
उसने एक सप्ताह का पूरा कार्यक्रम बनाया।
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पहले दिन आसपास के प्रमुख दर्शनीय स्थल देखना।
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दूसरे दिन समुद्र तट और मंदिरों का भ्रमण।
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तीसरे दिन स्थानीय गाँव और बाज़ार की खोज।
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चौथे और पाँचवें दिन पहाड़ी इलाक़ों और झरनों की सैर।
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आख़िरी दो दिन विश्राम और लेखन के लिए।
योजना तय करने के बाद उसने टिकट बुक कराई और तय दिन पर रत्नागिरी पहुँच गया। स्टेशन से बाहर निकलते ही नमकीन हवा के झोंके ने उसका स्वागत किया। समंदर की महक, आसपास की हरियाली और शहर की सादगी ने उसके मन को ताज़गी से भर दिया।
उसने अपने बजट के हिसाब से एक छोटे मगर साफ़-सुथरे होटल में कमरा लिया। कमरे की खिड़की से दूर पहाड़ियाँ दिखाई देती थीं, और नीचे सड़क पर लोग अपनी-अपनी रफ़्तार से ज़िंदगी जीते नज़र आते थे।
पहले दिन उसने होटल में थोड़ा आराम किया और फिर अपने कैमरे और नोटबुक के साथ निकल पड़ा। उसने समुद्र किनारे शाम बिताई, स्थानीय मछुआरों से बातचीत की, और फिर पास के बाज़ार से कुछ स्नैक्स लेकर होटल लौट आया। रात को थकान के बावजूद वह अपने लैपटॉप पर बैठा और दिनभर के अनुभवों को लिखने लगा।
अगली सुबह उसने तय किया था कि वह जल्दी उठकर एक टैक्सी किराए पर लेगा और शहर के प्रमुख स्थलों को देखने निकलेगा।
सूरज की पहली किरणें खिड़की से कमरे में आईं तो अरुण उठ बैठा। नहाकर, कपड़े पहनकर और कैमरे को कंधे पर लटकाकर वह सड़क पर आ गया।
सड़क पर सुबह की हल्की ठंडी हवा बह रही थी। लोग अपने-अपने कामों में जुटे हुए थे। अरुण टैक्सी की तलाश में इधर-उधर देखने लगा। तभी उसकी नज़र एक और यात्री पर पड़ी—करीब पैंतीस साल की एक महिला, जो उसके पास आकर खड़ी हो गई थी।
उसके चेहरे पर एक आत्मविश्वास भरी चमक थी। वह अकेली थी, हाथ में एक छोटा बैकपैक और कंधे पर कैमरा लटकाए हुए। अरुण ने सोचा—
"शायद कोई सोलो ट्रैवलर है, मेरी तरह।"
कुछ ही देर में एक टैक्सी वहाँ आकर रुकी। दोनों लगभग एक साथ उसकी ओर बढ़े। टैक्सी ड्राइवर ने मुस्कुराते हुए कहा,
“कहाँ जाना है साहब? मैडम?”
अरुण ने कहा,
“मुझे रत्नागिरी और आसपास के दर्शनीय स्थल देखने हैं। क्या आप पूरा दिन घूमाने का चार्ज बताएँगे?”
तभी वह महिला भी आगे बढ़कर बोली,
“मुझे भी यही पूछना था। मैं कोलकाता से आई हूँ और रत्नागिरी घूमने का प्लान है।”
ड्राइवर ने दोनों को देखा और मुस्कुराते हुए बोला,
“तो फिर क्यों न आप दोनों साथ ही चलिए? एक ही गाड़ी में घूम लीजिए, खर्च भी बाँट जाएगा और सफ़र भी अच्छा कटेगा।”
अरुण ने हल्की-सी झिझक के साथ महिला की ओर देखा। उसने भी मुस्कुराकर हामी भर दी।
ड्राइवर ने गाड़ी चालू की और सफ़र शुरू हुआ।
रास्ते भर अरुण और वह महिला, जिसका नाम बाद में पता चला अनु, अपने-अपने कामों में व्यस्त रहे। अरुण अपने कैमरे से फोटो खींचता रहा, नोट्स बनाता रहा, जबकि अनु अपने मोबाइल से वीडियो शूट कर रही थी। दोनों ने ज़्यादा बातचीत नहीं की।
शाम तक वे कई जगह घूमे, लेकिन दोनों के बीच केवल औपचारिक-सी बातें हुईं—
“ये जगह अच्छी है।”
“हाँ, बहुत सुंदर है।”
“आप कहाँ से हैं?”
“दिल्ली।”
“मैं कोलकाता से।”
इतनी ही बातें।
"ये तो बिल्कुल चुप-चुप सी है। अगर यही साथ में घूमेगी तो मैं बोर हो जाऊँगा। कल से मैं दूसरी टैक्सी ले लूँगा।"
उस रात उसने होटल लौटकर डिनर किया और सोने से पहले डायरी में लिखा—
"रत्नागिरी सुंदर है, लेकिन आज का दिन बहुत अकेला गुज़रा। शायद कल मैं किसी और टैक्सी का इंतज़ाम कर लूँ।"
लेकिन उसे यह अंदाज़ा नहीं था कि अगला दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे यादगार दिन बनने वाला है।
नाश्ता कर वह फिर सड़क पर पहुँचा। टैक्सी वही थी, वही ड्राइवर, और हाँ—वही महिला भी।
ड्राइवर ने हँसते हुए कहा—
“साहब, मैडम, लगता है कि आज भी आप दोनों साथ ही घूमेंगे। मेरा तो काम आसान हो जाएगा।”
अरुण कुछ कह पाता उससे पहले अनु ने मुस्कुराकर कहा—
“जी हाँ, क्यों नहीं। कल का दिन तो अच्छा ही रहा।”
अरुण ने हैरानी से उसकी ओर देखा। “अच्छा? मैंने तो सोचा था वह तो बात भी नहीं करना चाहती।”
लेकिन अरुण ने कुछ कहा नहीं और बस गाड़ी में बैठ गया।
गाड़ी चली। रास्ते में कुछ देर तक खामोशी रही, फिर अनु ने धीरे से कहा—
“कल शायद मैं थोड़ी थकी हुई थी, इसलिए आपसे ठीक से बात नहीं कर पाई। दरअसल लंबी यात्रा के बाद मन ही नहीं कर रहा था बातचीत का। आज सोच रही हूँ, सफ़र लंबा है तो क्यों न थोड़ा एक-दूसरे को जानें।”
अरुण मुस्कुराया।
“बिल्कुल, यात्रा तभी यादगार बनती है जब हम साथियों को जानें-समझें। वरना तो सब कुछ बस तस्वीरों में सिमटकर रह जाता है।”
अनु ने अपनी आँखों में चमक लिए कहा—
“सही कहा आपने। तो शुरुआत मैं ही करती हूँ। मेरा नाम अनु है। मैं कोलकाता से हूँ। पेशे से फैशन डिज़ाइनर हूँ, लेकिन साथ ही यात्रा करना मेरा जुनून है। जब भी समय मिलता है, मैं बैग उठाती हूँ और किसी नई जगह चल पड़ती हूँ।”
अरुण ने गहरी साँस लेते हुए कहा—
“वाह! यह तो शानदार है। मैं भी कुछ-कुछ ऐसा ही करता हूँ। दरअसल मैं एक ट्रेवल ब्लॉगर हूँ। भारत के कोने-कोने में घूम चुका हूँ। अलग-अलग संस्कृति, खाना, लोग—यही सब मेरे ब्लॉग और चैनल का हिस्सा हैं।”
अनु ने उत्सुकता से कहा—
“ओह, तो आप ब्लॉगर हैं! अच्छा हुआ मैंने कल ही आपसे बातें शुरू नहीं कीं, वरना शायद मेरी ही तस्वीरें आपके कैमरे में भर जातीं।”
दोनों ज़ोर से हँस पड़े। हँसी की इस लहर ने जैसे उनके बीच की सारी झिझक तोड़ दी।
अब गाड़ी में लगातार बातचीत चलने लगी।
अरुण ने पूछा—
“तो अनु जी, आप सोलो ट्रैवल क्यों करती हैं? अकेले सफ़र करना थोड़ा मुश्किल नहीं होता?”
अनु ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा—
“मुश्किल तो होता है, लेकिन यही आज़ादी मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। किसी के बंधन में नहीं, किसी की योजना के हिसाब से नहीं—बस मैं और मेरी यात्रा। हाँ, कभी-कभी अकेलापन महसूस होता है, पर फिर वही अकेलापन मुझे अपने आप से जोड़ देता है।”
अरुण ने धीरे से कहा—
“आपकी बात सुनकर लगता है कि आप ज़िंदगी को गहराई से जीती हैं। मुझे तो अब तक यही लगा था कि यात्रा सिर्फ़ घूमने और फोटो खींचने का नाम है, लेकिन आपसे बात करके समझा कि यात्रा आत्मा से भी जुड़ सकती है।”
अनु ने हल्की मुस्कान दी—
“और आपको देखकर लग रहा है कि आप भी ज़िंदगी को बहुत करीब से जीते हैं। आपके कैमरे में सिर्फ़ तस्वीरें नहीं, कहानियाँ भी क़ैद होती होंगी।”
अरुण थोड़ा भावुक हो गया। सच तो यही था कि उसने अब तक अपनी यात्राओं में कई कहानियाँ सुनीं और लिखीं, लेकिन अपनी कहानी किसी से साझा करने का मौका नहीं मिला।
दिन भर वे दोनों अलग-अलग जगह घूमे। कभी मंदिर, कभी समुद्र किनारा, कभी कोई किला। हर जगह अरुण अनु की तस्वीरें खींचता, अनु हरी के वीडियो शूट करती। दोनों एक-दूसरे को सुझाव देते कि कहाँ से फोटो अच्छा आएगा, किस तरह वीडियो में पृष्ठभूमि सुंदर लगेगी।
धीरे-धीरे उनमें सहजता आ रही थी।
दोपहर को जब वे एक छोटे से ढाबे में स्थानीय भोजन करने बैठे, तब अनु ने कहा—
“अरुण जी, आप तो बहुत यात्राएँ कर चुके हैं। कभी ऐसा हुआ कि कोई जगह आपके दिल में हमेशा के लिए बस गई हो?”
अरुण ने चुपचाप कुछ पल सोचा और कहा—
“हाँ, हुआ है। कई जगहों ने मुझे छुआ है, लेकिन… सच कहूँ तो कभी-कभी इंसान ही जगह से ज़्यादा याद रह जाते हैं। किसी जगह की असली सुंदरता वहाँ के लोगों में होती है।”
अनु ने सिर हिलाया।
“बिलकुल सही। मुझे भी लगता है कि यादें जगहों से नहीं, लोगों से बनती हैं। शायद यही वजह है कि मैं अब तक अकेली हूँ, लेकिन जब भी सफ़र में कोई अच्छा इंसान मिलता है, तो लगता है यात्रा सफल हुई।”
अरुण ने उसकी आँखों में देखा। कुछ देर के लिए दोनों के बीच मौन छा गया।
शाम होते-होते वे फिर होटल लौट आए। लेकिन इस बार माहौल अलग था। अब दोनों के बीच चुप्पी नहीं थी, बल्कि एक नया अपनापन था।
रात को अरुण ने अपने डायरी में लिखा—
"आज का दिन खास रहा। अनु नाम की यह यात्री न जाने क्यों दिल के बहुत करीब लग रही है। उसकी बातें, उसका आत्मविश्वास और उसकी सादगी… सबकुछ अजीब-सा सुकून देता है। मैं सोच रहा था कि इसे छोड़ दूँगा, पर अब लगता है कि इसी के साथ घूमना ठीक रहेगा। शायद यही यात्रा मुझे यादगार बनने वाली है।"
तीसरा दिन था। सुबह-सुबह मौसम बेहद सुहावना था। रातभर हुई हल्की बारिश से रत्नागिरी की पहाड़ियाँ धुली-धुली लग रही थीं। हवा में मिट्टी और नमक की महक घुली हुई थी।
अरुण हमेशा की तरह तैयार होकर नीचे आया तो देखा कि अनु पहले से टैक्सी में बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह आज कुछ अलग ही लग रही थी—हल्की नीली ड्रेस, खुले बाल और चेहरे पर ताज़गी भरी मुस्कान।
“गुड मॉर्निंग, अरुण जी!” अनु ने हाथ हिलाते हुए कहा।
अरुण ने मुस्कुराकर जवाब दिया—“गुड मॉर्निंग, अनु जी। आज तो आप बिल्कुल… क्या कहूँ… जैसे बादलों के बीच इंद्रधनुष।”
अनु हँस पड़ी—“अरे, आप तो बड़े कवि निकले। मुझे तो लगा था आप सिर्फ़ ब्लॉग लिखते हैं।”
अरुण ने भी हँसते हुए कहा—“कभी-कभी दिल की बातें शब्दों में ढल जाती हैं।”
गाड़ी चल पड़ी। आज उनका प्लान था पास के एक झरने और गाँव को घूमने का। रास्ते भर दोनों लगातार बातें करते रहे। अब वह औपचारिकता नहीं रही थी, बल्कि सहज दोस्ती का भाव आ गया था।
अरुण ने पूछा—“तो अनु जी, आपने शादी क्यों नहीं की? मतलब, आपकी उम्र भी अब…”
अनु ने उसकी बात बीच में काटते हुए कहा—“हाँ हाँ, मुझे पता है, लोग यही सवाल पूछते हैं। दरअसल, मुझे कभी ऐसा साथी ही नहीं मिला जिसके साथ मैं सच में जुड़ सकूँ। सबको लगता था मैं बस घर संभालूँगी, उनके हिसाब से चलूँगी। लेकिन मैं तो अपने सपनों और आज़ादी को छोड़ नहीं सकती थी। और शायद इसी वजह से अब तक अकेली हूँ।”
अरुण ने उसकी बात ध्यान से सुनी। कुछ देर चुप रहा और फिर बोला—
“आपकी बात में सच्चाई है। ज़िंदगी साथी के साथ तभी खूबसूरत होती है जब दोनों एक-दूसरे को समझें, सपनों का सम्मान करें। वरना तो रिश्ते बोझ बन जाते हैं।”
अनु ने गहरी नज़र से उसकी ओर देखा—“और आपकी शादी? आप तो शादीशुदा हैं ना?”
अरुण ने लंबी साँस छोड़ी—“हाँ, हूँ। बीवी अच्छी है, बच्चे अच्छे हैं। लेकिन सच कहूँ तो… मैं कभी पूरी तरह उस रिश्ते में खुद को नहीं ढूँढ पाया। जिम्मेदारियाँ, समाज, परिवार—सबने मिलकर मुझे बाँध दिया। कभी-कभी लगता है जैसे मेरी ज़िंदगी मैंने नहीं, हालात ने तय की।”
अनु उसकी बात सुनकर चुप हो गई। उसकी आँखों में एक गहरी समझ थी। शायद उसने पहली बार किसी को इतना ईमानदार होकर यह कहते सुना था।
झरने के पास पहुँचकर दोनों उतर गए। पानी की कलकल धारा, हरे-भरे पेड़ और पक्षियों की चहचहाहट—सबकुछ जैसे किसी दूसरी दुनिया का हिस्सा था।
अनु पत्थरों पर बैठकर पैर पानी में डुबोए हुई थी। अरुण उसके पास आया और कैमरे से उसकी तस्वीर लेने लगा।
“आपके चेहरे पर जो मासूमियत है न, वही तस्वीर को खास बना देती है।”
अनु मुस्कुराई—“आप तो मुझे मॉडल बना देंगे।”
“क्यों नहीं? आपसे बेहतर मॉडल और कौन हो सकता है?”
धीरे-धीरे बातचीत का सिलसिला गहराता गया। दोनों ने अपने बचपन की कहानियाँ साझा कीं। अरुण ने बताया कि कैसे वह गाँव से निकलकर पढ़ाई करने शहर आया, फिर नौकरी की, फिर शादी हो गई और ज़िम्मेदारियों ने उसे घेर लिया।
अनु ने बताया कि कैसे उसने छोटे शहर से निकलकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष किया, अपने काम से पहचान बनाई, लेकिन अकेलेपन का सामना भी किया।
शाम को वे एक छोटे से गाँव में पहुँचे। वहाँ के लोग बेहद सादगी से रहते थे। अनु को यह सब देखकर बेहद अच्छा लगा। उसने गाँव की औरतों से उनके पहनावे और कढ़ाई के बारे में पूछा। अरुण ने बच्चों से बातें कीं और उनकी तस्वीरें खींचीं।
गाँव के बुज़ुर्ग ने दोनों को अपनी झोपड़ी में चाय पिलाई। अनु ने धीरे से कहा—“अरुण जी, कभी-कभी लगता है असली खुशी यहीं है। ये लोग कितने सादे हैं, लेकिन चेहरे पर सच्ची मुस्कान है।”
अरुण ने सहमति में सिर हिलाया—“हाँ, शायद यही ज़िंदगी है। हम शहर वाले तो दिखावे में उलझकर असली सुख भूल जाते हैं।”
होटल लौटते हुए अनु खामोश थी। अरुण ने पूछा—“क्या सोच रही हैं?”
अनु ने धीरे से कहा—“सोच रही हूँ कि कभी-कभी अजनबी भी कितने अपने से लगने लगते हैं। जैसे आप… दो दिन पहले तक बिल्कुल अजनबी थे, लेकिन अब लगता है कि मैं आपको बरसों से जानती हूँ।”
अरुण ने मुस्कुराकर कहा—“शायद यही यात्रा की खूबसूरती है। रास्ते में मिले लोग ही हमारी यादों का हिस्सा बन जाते हैं।”
उस रात अरुण ने अपनी डायरी में लिखा—
"आज अनु से बहुत बातें हुईं। मैंने अपना मन खोलकर रख दिया और उसने भी। यह अजीब है—कभी-कभी ज़िंदगी में ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे आप सबकुछ कह सकते हैं, जो बिना जज किए सुन लेते हैं। अनु… अब सिर्फ़ एक साथी यात्री नहीं, बल्कि मेरे दिल का हिस्सा बनती जा रही है।"
चौथा दिन था। सूरज की किरणें समंदर से उगते हुए सुनहरी गोले की तरह चमक रही थीं। रत्नागिरी की पहाड़ियों पर फैली हल्की धुंध अब धीरे-धीरे छंट रही थी। मौसम में एक अजीब-सी नमी थी जो दिल को रोमांचित कर रही थी।
अरुण सुबह उठकर होटल की छत पर खड़ा था। नीचे सड़क पर लोग अपनी दिनचर्या में लग चुके थे। लेकिन उसके दिल में आज कुछ और ही हलचल थी। पिछली रात अनु से हुई लंबी बातचीत ने उसके मन को अजीब-सी बेचैनी और सुकून दोनों दिया था।
“क्या यह सिर्फ दोस्ती है? या इससे आगे कुछ और?”—अरुण के मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा था।
आज का प्लान पास के पहाड़ी मंदिर और फिर समुद्र किनारे सूर्यास्त देखने का था। टैक्सी आ चुकी थी। अरुण नीचे पहुँचा तो अनु पहले से मौजूद थी। उसने हल्के पीले रंग की साड़ी पहनी थी, बाल खुले हुए थे और चेहरे पर वही सादगी भरी मुस्कान थी।
अरुण ने देखते ही मन ही मन सोचा—
"ये लड़की… क्यों इतनी खास लगने लगी है मुझे? मैं तो इसे बस तीन दिन से जानता हूँ।"
गाड़ी चल पड़ी। रास्ते में दोनों चुप थे, लेकिन यह चुप्पी अब अजीब नहीं लग रही थी। यह चुप्पी एक सहज मौन थी, जिसमें शब्दों से ज़्यादा भावनाएँ बह रही थीं।
पहाड़ी पर बने मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी थीं। दोनों धीरे-धीरे चढ़ रहे थे। हवा ठंडी थी, और चारों ओर हरियाली फैली हुई थी।
अनु अचानक रुक गई, साँस फुल गई थी।
“थोड़ा आराम करें?” उसने कहा।
अरुण ने मुस्कुराकर कहा—“हाँ, बिल्कुल। वैसे भी यात्रा का मज़ा तब है जब हम ठहरकर भी नज़ारे देखें।”
दोनों एक पत्थर पर बैठ गए। नीचे से समुद्र का नीला विस्तार दिखाई दे रहा था। अनु ने अरुण की ओर देखा और कहा—
“अरुण जी, आपसे एक बात कहूँ? आपसे बातें करके लगता है कि मैं अकेली नहीं हूँ। इतने सालों में मैंने बहुत सफ़र किया, बहुत लोग मिले, लेकिन किसी से इतनी सहजता नहीं हुई।”
अरुण ने उसकी आँखों में देखा। उन आँखों में सच्चाई और अपनापन था। उसने धीरे से कहा—
“शायद इसलिए क्योंकि हम दोनों ही अपने भीतर कहीं अकेले हैं। और जब दो अकेलेपन मिलते हैं तो दोस्ती बनती है… या शायद उससे भी कुछ ज़्यादा।”
अनु कुछ पल तक चुप रही। फिर हल्की-सी मुस्कान दी।
“आप तो बहुत दार्शनिक बातें करते हैं।”
मंदिर पहुँचकर दोनों ने शांत वातावरण में पूजा की। घंटियों की आवाज़, मंत्रों की गूँज और धूप की महक ने वातावरण को पवित्र बना दिया। अनु ने आँखें बंद करके हाथ जोड़े। अरुण उसकी ओर देखता रहा। उसके चेहरे पर एक ऐसी मासूम आस्था थी कि अरुण का मन भर आया।
मंदिर से बाहर निकलते समय अनु ने कहा—
“काश, यह यात्रा कभी ख़त्म न हो।”
अरुण ने मन ही मन सोचा—
"काश सच में ऐसा हो पाता।"
शाम को दोनों समुद्र किनारे पहुँचे। सूरज डूब रहा था। आसमान नारंगी और लाल रंगों से भर गया था। लहरें किनारे से टकरा रही थीं।
दोनों रेत पर बैठ गए। कुछ देर तक बस लहरों की आवाज़ सुनते रहे।
अरुण ने धीरे से कहा—
“अनु, क्या आपने कभी किसी से प्यार किया है?”
अनु ने उसकी ओर देखा, फिर नज़रें झुका लीं।
“नहीं… मतलब, कॉलेज में कभी किसी पर क्रश हुआ था, लेकिन वह बस मोह था। सच्चा प्यार शायद कभी नहीं मिला। और आप?”
अरुण ने गहरी साँस ली।
“शादी तो हुई, लेकिन… प्यार? शायद नहीं। पत्नी से रिश्ते निभाए, पर दिल की गहराई में जो चाहत होती है, वह कभी नहीं मिली।”
अनु ने उसकी ओर देखा। दोनों की आँखें मिल गईं। कुछ पल के लिए जैसे समय ठहर गया। हवा, लहरें, सूरज—सब गवाह बन गए उस मौन के।
फिर अनु ने धीरे से कहा—
“तो क्या अब…?”
अरुण ने उसकी बात अधूरी ही पकड़ ली।
“अब शायद देर हो चुकी है। मैं शादीशुदा हूँ, जिम्मेदारियाँ हैं। लेकिन दिल… दिल तो उम्र नहीं देखता, हालात नहीं देखता।”
अनु की आँखों में नमी आ गई। उसने धीमे स्वर में कहा—
“आप सच कहते हैं। दिल तो बस धड़कता है। और कभी-कभी उस धड़कन की आवाज़ ही सबसे बड़ी सच्चाई होती है।”
अरुण ने अनायास उसका हाथ पकड़ लिया। अनु ने हाथ नहीं छुड़ाया। दोनों चुपचाप बैठे रहे। लहरें उनके पैरों से टकरा रही थीं, जैसे प्रकृति भी उनकी अनकही भावनाओं को सुन रही हो।
वापसी के रास्ते में दोनों ज्यादा बोले नहीं। लेकिन उनके बीच की खामोशी अब बोझ नहीं थी, बल्कि गहराई से भरी थी।
होटल पहुँचकर विदा लेते समय अनु ने धीमे स्वर में कहा—
“अरुण जी, आज का दिन… मेरी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत दिनों में से एक रहेगा।”
अरुण ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा—
“मेरे लिए भी, अनु। मेरे लिए भी।”
उस रात अरुण ने अपनी डायरी में लिखा—
"आज अनु मेरे दिल के और भी करीब आ गई। शायद यह दोस्ती से आगे है। मैं जानता हूँ कि यह रिश्ता समाज के लिए गलत है, लेकिन दिल की दुनिया में कोई नियम नहीं चलते। अनु के साथ रहकर जो सुकून मिलता है, वह मैंने कभी महसूस नहीं किया।"
पाँचवाँ दिन था। अब यात्रा का आधा से अधिक समय बीत चुका था। अरुण और अनु के बीच की दूरी लगभग मिट चुकी थी। जो मौन पहले अजनबीपन का था, वह अब अपनापन बन चुका था। अब उनकी हँसी, बातचीत और साथ चलना-फिरना एक आदत-सा हो गया था।
सुबह टैक्सी में बैठते ही ड्राइवर ने मज़ाक किया—
“लगता है अब आप दोनों दोस्त से भी बढ़कर साथी बन गए हैं। हर जगह इतने अच्छे से घुलमिल जाते हैं।”
अनु शरमा गई और खिड़की की ओर देखने लगी। अरुण ने हल्की मुस्कान दी लेकिन भीतर कहीं उसका दिल तेज़ धड़कने लगा।
आज का प्लान पास के एक झरने और पहाड़ी ट्रेक का था। रास्ता लंबा था, लेकिन दोनों की बातें उसे छोटा बना रही थीं।
अनु ने अरुण से पूछा—
“आपके बच्चे कितने साल के हैं?”
अरुण ने जवाब दिया—“बड़ा बेटा कॉलेज में है और बेटी बारहवीं में। दोनों अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। कभी-कभी लगता है उन्हें मेरी ज़रूरत भी नहीं रही।”
अनु चुप हो गई। उसके मन में सवाल उठा—“अगर अरुण का परिवार उसे पूरी तरह बाँधकर रखता, तो क्या वह यहाँ मेरे साथ इतना खुल पाता?”
झरने तक पहुँचते-पहुँचते हल्की बारिश शुरू हो गई। दोनों ने पास के एक बड़े पेड़ के नीचे शरण ली। बारिश की बूँदें चारों ओर गिर रही थीं, मिट्टी की सोंधी खुशबू हवा में घुल गई थी।
अनु ने हाथ फैलाकर बारिश की बूँदें पकड़ीं। वह हँसते हुए बोली—
“अरुण जी, मुझे बारिश बहुत पसंद है। लगता है जैसे आसमान अपने सारे दुख बहा रहा हो।”
अरुण ने उसकी हँसी को देखा। उसके भीतर जैसे कुछ पिघल गया।
“अनु, काश मैं भी ऐसे ही खुलकर हँस पाता। लेकिन मेरी हँसी पर हमेशा जिम्मेदारियों का बोझ रहता है।”
अनु ने धीरे से उसकी ओर देखा—
“तो आज हँसिए। आज आप कोई पति, कोई पिता, कोई ज़िम्मेदार इंसान नहीं… बस अरुण हैं, जो यात्रा कर रहे हैं, जो आज़ाद हैं।”
अरुण उसकी बातों में खो गया। वह पल उनके लिए समय से परे था—सिर्फ दो दिल, बारिश और प्रकृति।
झरने के पास पहुँचकर दोनों ने पानी में पैर डुबोए। अनु बाल बांध रही थी, तभी उसका पाँव फिसल गया। अरुण ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया। अनु उसके कंधे से टिक गई। दोनों की नज़रें मिलीं। पानी की आवाज़ के बीच वह मौन उनके दिलों की धड़कनों को और साफ़ सुना रहा था।
अनु ने धीरे से कहा—
“अरुण जी, आप जानते हैं ना… मैं ये सब समझती हूँ। आप शादीशुदा हैं। ये रिश्ता कभी नाम नहीं पा सकता। फिर भी…”
अरुण ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया—
“हाँ, मैं जानता हूँ। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे बिना ये यात्रा अधूरी है। अनु, मैं तुम्हारे साथ बिताया हर पल अपनी साँसों में कैद कर लेना चाहता हूँ।”
अनु की आँखों से आँसू छलक आए। उसने सिर झुका लिया।
“काश… समाज, हालात, उम्र… ये सब न होते।”
अरुण ने उसके आँसू पोंछे और बस इतना कहा—
“प्यार इन सबसे बड़ा होता है। भले ही अधूरा रहे, लेकिन सच्चा रहता है।”
अब यात्रा के केवल दो दिन बचे थे। दोनों के बीच की नज़दीकियाँ अब साफ़ झलकने लगी थीं। अब वे मंदिरों या समुद्र के किनारों पर बैठकर बस बातें करते। फोटो और वीडियो कम होने लगे थे, हँसी और मौन ज़्यादा।
लेकिन हर हँसी के पीछे एक डर छुपा था—विदाई का डर।
अनु ने एक शाम कहा—
“अरुण जी, सोचकर ही दिल काँप जाता है कि परसों आप चले जाएँगे। फिर शायद कभी मुलाक़ात न हो।”
अरुण ने गहरी साँस लेकर कहा—
“हाँ, यही सच है। हम दोनों जानते हैं कि यह रिश्ता सिर्फ इन सात दिनों का है। लेकिन इन सात दिनों ने जो हमें दिया है, वह सात जन्मों से कम नहीं।”
अनु ने उसके कंधे पर सिर रख दिया। हवा में नमक और आँसुओं की गंध थी।
उस रात दोनों होटल की छत पर बैठे थे। ऊपर पूरा आसमान तारों से भरा था। समुद्र की लहरों की आवाज़ दूर से आ रही थी।
अरुण ने अनु से कहा—
“अगर ज़िंदगी हमें पहले मिला देती तो शायद सब अलग होता।”
अनु ने कहा—
“लेकिन शायद तब हमारी कहानी इतनी खूबसूरत नहीं होती। अधूरी चीज़ें ही तो दिल में हमेशा ज़िंदा रहती हैं।”
अरुण ने अनु का हाथ थामकर कहा—
“तो वादा करो, चाहे जो हो जाए, ये सात दिन हमेशा याद रखोगी।”
अनु ने आँसुओं भरी मुस्कान के साथ कहा—
“वादा है, अरुण जी। ये सात दिन मेरी पूरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल पल रहेंगे।”
अरुण और अनु की मुलाकात किसी सपने जैसी थी — सात दिनों तक दोनों ने साथ-साथ घूमा, बातें कीं, हंसी-मजाक किया और जीवन के कुछ सबसे यादगार पल संजोए। परंतु जब विदा का समय आया, उन्होंने एक अनोखा वचन लिया —
वे न तो एक-दूसरे का मोबाइल नंबर लेंगे, न ही सोशल मीडिया पर जुड़ेंगे। क्योंकि उनका मानना था कि यह रिश्ता किसी “बंधन” से नहीं बंधा होना चाहिए, बल्कि **यादों और किस्मत के भरोसे** पर टिका होना चाहिए।
उन्होंने प्रण लिया कि अगर किस्मत ने चाहा तो वे फिर मिलेंगे, वरना यह मुलाकात उनकी आखिरी होगी। शायद अगला जन्म ही उनका सच्चा मिलन लेकर आए।
झपकते ही बीत गई वह रात, जैसे वक्त ने उनके लिए कदम रोकने से इंकार कर दिया हो।
सुबह की सुनहरी किरणें खिड़की से भीतर झांक रही थीं, पर दोनों के मन पर अंधेरे का साया था।
अरुण के चेहरे पर हल्की उदासी थी, मानो हज़ार बातें कहना चाहता हो पर शब्द उसके होंठों तक आते-आते खो जाते।
अनु की आँखों में नींद से ज़्यादा बेचैनी थी, जैसे वह अपने दिल के हर कोने में इस पल को कैद करना चाह रही हो।
“अरुण, अगर किस्मत ने चाहा तो फिर मिलेंगे, वरना अगला जन्म हमारा होगा।”
अरुण ने मुस्कराने की कोशिश की, पर आँखों की नमी छुपा न सका।
उस रात दोनों देर तक चुप बैठे रहे। चाँद उनके दिलों की बेचैनी का गवाह था।
सुबह अरुण ने होटल की खिड़की से झांकते हुए देखा— वातावरण एकदम शांत था।
रत्नागिरी की पहाड़ियाँ मानो विदाई का सगीत बजा रही थीं।
उसने धीमे से कहा,
“अनु, आज हमें आख़िरी जगह घूमना है। टैक्सी वाला दस बजे आएगा। चलो, तैयार हो जाओ।”
अनु उस समय आईने के सामने खड़ी थी। उसने हल्की मुस्कान के साथ अरुण की ओर देखा,
पर उस मुस्कान के पीछे छुपा दर्द दोनों समझ रहे थे।
सात दिनों की यह यात्रा जैसे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी बन चुकी थी।
हर जगह, हर मोड़, हर हंसी— सब उनके दिल की किताब में दर्ज हो चुके थे।
अनु ने धीरे से कहा,
“अरुण, ये सात दिन जैसे सात जन्मों के बराबर रहे। काश… वक्त यहीं थम जाता।”
अरुण उसके शब्दों को सुनकर खामोश हो गया।
उसने बस खिड़की से बाहर देखते हुए उत्तर दिया—
“हाँ, काश…”
कमरे में एक अजीब सी चुप्पी पसर गई।
सिर्फ घड़ी की सुइयाँ चल रही थीं, जैसे याद दिला रही हों कि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता।
अनु ने सिर हिलाया। दोनों ने बिना कुछ कहे सामान समेटा। उनके दिलों में बस एक ही ख्याल था—आज के बाद शायद हम कभी न मिलें।
आज का कार्यक्रम था शहर के सबसे प्रसिद्ध मंदिर का दर्शन करना। टैक्सी मंदिर के दरवाज़े पर रुकी। वहाँ सीढ़ियाँ थीं, जिन पर चढ़ते हुए दोनों ने महसूस किया कि हर कदम भारी है।
मंदिर में घनघनाती घंटियों की आवाज़, धूप-बत्ती की खुशबू और भक्तों की भीड़ थी। अरुण और अनु साथ खड़े होकर आरती में शामिल हुए।
आरती के बाद अनु ने आँखें बंद कर प्रार्थना की—
“हे भगवान, मुझे इतनी शक्ति देना कि इस जुदाई को सह सकूँ। और अरुण जी को हमेशा खुश रखना।”
अरुण ने भी मन ही मन प्रार्थना की—
“भगवान, यह रिश्ता शायद समाज की नज़रों में सही न हो, लेकिन मेरे दिल में यह सबसे पवित्र है। इसे अधूरा मत होने देना।”
दोनों ने प्रसाद लिया और मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए। अनु ने धीरे से कहा—
“अरुण जी, क्या आप सच में चले जाएँगे?”
अरुण ने लंबी साँस लेकर कहा—
“हाँ अनु, यही सच है। घर पर मेरा इंतज़ार है, परिवार है… और तुम्हारी भी अपनी दुनिया है। लेकिन ये सात दिन… ये हमेशा हमारे दिल में जिंदा रहेंगे।”
अनु की आँखों से आँसू छलक पड़े। अरुण ने उसका हाथ पकड़ लिया, लेकिन आसपास लोगों की भीड़ थी। दोनों ने अपने जज़्बात दबा लिए।
मंदिर से लौटते समय टैक्सी की खिड़की से बाहर देखते हुए अनु चुप रही।अरुण भी चुप था। बीच-बीच में सिर्फ़ टैक्सी का हॉर्न या सड़क की आवाज़ सुनाई देती थी।
टैक्सी वाले ने कहा—
“साहब, आप दोनों तो बहुत अच्छे लगते हैं। लगता ही नहीं पहली बार मिले हैं।”
अरुण और अनु ने एक-दूसरे की ओर देखा और हल्की मुस्कान दी। लेकिन उस मुस्कान में दर्द छुपा था।
शाम तक पैकिंग हो गई। टैक्सी उन्हें एयरपोर्ट तक छोड़ने आई। रास्ते भर अनु खामोश रही। वह बस बाहर देख रही थी, मानो हर पेड़-पौधे, हर मोड़ को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो।
एयरपोर्ट पर पहुँचकर दोनों ने सामान ट्रॉली पर रखा। अब वह वक्त आ चुका था, जिससे दोनों डर रहे थे।
अरुण ने धीरे से कहा—
“अनु, अलविदा कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन वादा करो, इस रिश्ते को बोझ नहीं बनाओगी। इसे अपनी ताक़त बनाना।”
अनु की आँखें भर आईं। उसने कांपते होंठों से कहा—
“अरुण जी, आपसे मिलकर मैंने जाना कि सच्चा प्यार क्या होता है। मैं इन सात दिनों को अपनी पूरी ज़िंदगी जीऊँगी।”
भीड़ के बीच खड़े होकर दोनों कुछ पल मौन रहे। अरुण का दिल चाहता था कि वह अनु को गले से लगा ले, लेकिन आसपास लोगों की नज़रों ने उसे रोक दिया।
आख़िरकार अनु ने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया और फुसफुसाई—
“अलविदा… शायद हमेशा के लिए।”
अरुण ने उसकी हथेली दबाई और कहा—
“नहीं, अनु। यह अलविदा नहीं है। यह बस एक ठहराव है। हमारी यादें हमें हमेशा जोड़कर रखेंगी।”
फ्लाइट का अनाउंसमेंट हुआ। अरुण ने भारी कदमों से अंदर की ओर बढ़ना शुरू किया। अनु वहीं खड़ी रही। उसकी आँखें अरुण को तब तक देखती रहीं, जब तक वह भीड़ में गुम नहीं हो गया।
टैक्सी से लौटते समय अनु की गोद में सिर्फ़ उसकी साड़ी का पल्लू था और आँखों में ढेर सारे आँसू। उसे लग रहा था जैसे उसकी दुनिया फिर से खाली हो गई।
होटल के कमरे में पहुँचते ही उसने बिस्तर पर सिर रखकर रोना शुरू कर दिया। लेकिन रोते-रोते उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान भी थी—
“अरुण जी, आपने मुझे वो एहसास दिया जो शायद किसी को ज़िंदगी में भी नहीं मिलता। मैं हमेशा आपको याद रखूँगी।”
इस तरह उनकी यात्रा समाप्त हुई—प्यार में डूबी हुई, लेकिन अधूरी।
दोनों जानते थे कि वे अपनी-अपनी दुनिया में लौट जाएँगे, लेकिन उनका दिल हमेशा एक-दूसरे से जुड़ा रहेगा।
उनकी प्रेमकहानी अधूरी रही, लेकिन उसी अधूरेपन ने उसे अमर बना दिया।
