एक रात का इंतज़ार
सर्दियों की एक लंबी
रात थी। दिसंबर की हवा में कंपकंपाहट थी, और आसमान में बादल लुका-छिपी खेल रहे थे। शहर का वो छोटा सा
रेलवे स्टेशन, जो
दिन में भीड़-भाड़ और शोर से दूर रहता था, रात में और भी ज्यादा खामोश और ठंडा हो जाता था। स्टेशन के
वेटिंग रूम की बत्ती हल्की पीली थी, जो दीवारों पर एक पुरानी थकान की तरह फैल रही थी।
रात
के लगभग 9 बज रहे थे जब मनोज
स्टेशन पर पहुँचा। उम्र रही होगी करीब पचास साल। सिर पर सफेद बाल, गले में मफलर, हाथ में एक छोटा बैग। चेहरा गंभीर लेकिन
थका हुआ नहीं—बल्कि
ऐसा जैसे किसी गहरी सोच में डूबा हो। वह वेटिंग रूम के कोने में पड़ी एक लकड़ी की
बेंच पर बैठ गया और एक लंबी साँस ली।
मनोज
लखनऊ जा रहा था। उसकी ट्रेन सुबह चार बजे थी। वह घर से जल्दी निकल आया था—दरअसल, निकलना ज़रूरी भी था। घर का माहौल ऐसा
हो गया था कि वहाँ रहना अब बोझ लगता था। पत्नी से रिश्ता अब सिर्फ औपचारिक था,
और बच्चों की अपनी दुनिया थी। उसे लगता
था कि अब वह घर में एक पुराना सामान बन गया है—जिसका होना न होना एक जैसा।
स्टेशन
की घड़ी ने साढ़े नौ बजाए। तभी वेटिंग रूम का दरवाज़ा फिर से खुला।
हल्के कदमों से एक
महिला अंदर आई। उम्र रही होगी तीस-पैंतीस साल के आसपास। लंबी, सादी सलवार-कमीज़ पहने, कांधे पर बैग टांगे हुए। बाल खुले हुए,
हल्के-से उलझे, और चेहरा... थका हुआ, लेकिन आँखों में एक खास तरह की चमक।
उसका
नाम था किरण।
वह
ग्वालियर जा रही थी, सुबह
तीन बजे की ट्रेन थी। थोड़ी हिचकिचाहट के साथ उसने कोने की बेंच पर जगह ली। मनोज
ने उसकी ओर एक नजर डाली, फिर
अपनी किताब खोल ली। लेकिन दिमाग अब किताब में नहीं था। उस औरत की आंखों में एक
अजीब सी बेचैनी थी जो मनोज को अपनी ओर खींच रही थी।
कुछ
मिनटों की चुप्पी के बाद, मनोज
ने पहल की।
"ग्वालियर?"
किरण चौंकी। "जी?"
"आप ग्वालियर जा रही
हैं न?"
"हाँ... सुबह तीन बजे
की ट्रेन है।"
"मैं
लखनऊ जा रहा हूँ। चार बजे की है।"
"अरे! तो हम दोनों को
पूरी रात यहीं बितानी पड़ेगी," किरण मुस्कुरा दी।
मनोज भी मुस्कुरा दिया। "लगता है
आज रात की चाय एक-दो बार पीनी पड़ेगी।"
मनोज ने अपने बैग से
एक थरमस निकाला। "गरम चाय है, अगर
आप चाहें तो..."
किरण
थोड़ी झिझकी, लेकिन
फिर मान गई। "थोड़ा-सा चलेगा। ठंड तो हड्डियों तक घुस गई है।"
चाय
की चुस्कियों के साथ बातों का सिलसिला शुरू हुआ। पहले ट्रेन के बारे में, फिर शहर के बारे में, और फिर जिंदगी के बारे में।
किरण
ने बताया कि वह एक स्कूल में पढ़ाती है। शादी को आठ साल हो चुके हैं, लेकिन पति एक प्राइवेट कंपनी में इतने
व्यस्त रहते हैं कि हफ्तों तक ढंग से बात नहीं हो पाती। कोई शिकायत नहीं थी,
लेकिन एक खामोशी थी उसकी आवाज़ में।
मनोज
ने भी अपनी जिंदगी खोली। "दो बेटियाँ हैं मेरी। बड़ी अब कॉलेज में है। पत्नी
से अब ज्यादा बात नहीं होती। सब कुछ है, लेकिन कुछ नहीं है।"
"हां,
मैं समझ सकती हूं," किरण बोली। "कभी-कभी लगता है कि हम
रिश्तों की भीड़ में खुद को खो देते हैं।"
उनकी
बातें अब गहराई छू रही थीं। दोनों के बीच कोई ऐसा वादा नहीं था, कोई अपेक्षा नहीं थी—बस एक रात और थोड़ी सी ईमानदारी।
वक़्त जैसे ठहर गया
था। स्टेशन की दीवारें, वो
पुराना फर्श, सब
गवाह बन रहे थे उस नर्म मुलाकात के। किरण ने मनोज से पूछा,
"आपको
कभी लगा कि आपकी ज़िंदगी कुछ और हो सकती थी?"
मनोज
ने गहरी सांस ली। "हाँ, कई
बार। पर अब लगता है जो है, वही
किस्मत है।"
"अगर
वक्त वापस लाया जा सके, तो
क्या बदलते?"
"शायद
खुद को थोड़ा और समझता... और किसी को दिल से चाहता।"
किरण
की आंखें भीग गईं। "शायद मैं भी..."
उनकी
आंखें अब ज़्यादा कह रही थीं, शब्दों
से भी ज़्यादा। दो अजनबी, दो
कहानियाँ, एक स्टेशन, और एक रात का समय। क्या यही था
इत्तेफाक़? या किस्मत की कोई चाल?
घड़ी ने एक बजा दिया
था। स्टेशन पर सन्नाटा था। कुछ लोग इधर-उधर लेटे हुए थे, कुछ अख़बार ओढ़े नींद में थे।
किरण
और मनोज अब एक-दूसरे के बगल में बैठ चुके थे। मनोज ने अपना शॉल उसके कंधे पर रख
दिया।
"आपको
ठंड लग रही है।"
"और
आपको?"
"आपके
पास तो मैं बैठा हूँ न," मनोज
ने मुस्कुराकर कहा।
उनके
बीच कोई स्पर्श नहीं हुआ, लेकिन
एहसास गहराने लगा था। दिल की दीवारें गिरने लगी थीं।
"अगर
ये रात कभी खत्म न हो..." किरण ने कहा।
"तो
शायद हम हमेशा यहाँ रह जाएं," मनोज
ने जवाब दिया।
वक्त जैसे रुक गया
था। स्टेशन के बाहर की ठंड अब उन्हें महसूस नहीं हो रही थी। वो वेटिंग रूम जैसे
किसी और ही दुनिया का हिस्सा बन गया था। मनोज की आँखों में एक गहराई थी और क़िरण
के लबों पर एक मुस्कान। बिना कहे, बिना
छुए, दोनों एक-दूसरे के
बहुत क़रीब आ गए थे।
किरण ने धीरे से कहा,
"शायद ये रात हमेशा याद रहेगी।"
"मैं दुआ करूँगा कि तुम्हारी
ज़िंदगी में फिर कभी ऐसा अकेलापन ना आए," मनोज ने कहा।
"और अगर कभी आए, तो शायद कोई
और वेटिंग रूम मिल जाए," क़िरण ने मुस्कुराते हुए कहा।
किरण
ने चुपचाप अपना बैग उठाया। उसकी आँखों में कुछ टूटता हुआ सा था।
"आपसे
मिलकर अच्छा लगा," उसने
कहा।
"आपसे
बात करके लगा जैसे सालों बाद किसी ने सुना," मनोज बोला।
कुछ
पल चुप्पी छाई रही। किरण ने कहा, "न नंबर लिया, न
दिया... अजीब हैं
हम।"
"शायद
यही सही है। अगर दोबारा मिलना लिखा होगा, तो मिलेंगे।"
दोनों ने एक-दूसरे का नाम जाना, दिल की बातें
साझा कीं, एक रात में एक रिश्ता बनाया, लेकिन न कोई
नंबर मांगा, न कोई वादा किया।
बस एक याद छोड़ दी—एक छोटी सी मुलाक़ात, एक ठंडी रात, और एक वेटिंग
रूम की दीवारों के बीच सजी एक अधूरी कहानी।
किरण की ट्रेन आई। वह
चढ़ गई, खिड़की से बाहर देखा—मनोज खड़ा था, मुस्कराता हुआ, लेकिन आँखों में नमी थी।
ट्रेन
चल पड़ी।
मनोज खामोशी से बेंच
पर बैठ गया। एक घंटे बाद उसकी ट्रेन आई। वह चढ़ गया, खिड़की के पास बैठा और रात के उस छोटे
स्टेशन को देखता रहा, जहाँ
उसे एक ऐसा रिश्ता मिला, जिसे
नाम देना मुमकिन नहीं था।
कोई
प्रेम नहीं था, कोई
वादा नहीं था, लेकिन
एक एहसास था जो ज़िंदगी भर साथ रहने वाला था।
कई साल बाद...
मनोज
रिटायर हो चुका था। एक दिन अख़बार पढ़ते वक्त उसने एक लेख पढ़ा—"रिश्तों की परिभाषा बदलती है, पर कुछ रिश्ते समय की सीमाओं से परे
होते हैं।"
उसके
चेहरे पर मुस्कान आ गई। वह उठा, अपनी
पुरानी डायरी खोली, और
एक पेज पर लिखा:
"एक
रात, एक स्टेशन, एक औरत—जिससे मैं कभी दोबारा नहीं मिला,
लेकिन जिसने मुझे जिंदगी भर का साथ दे
दिया… बिना वादा, बिना नाम, बिना पहचान।"
यही थी उनकी अधूरी लेकिन सबसे सच्ची
कहानी – ‘एक
रात का इंतज़ार’।
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