पंद्रह साल बाद मुंबई एयरपोर्ट पर हुई एक मुलाक़ात ने दो पुराने दोस्तों—विनय और नेहा—की अधूरी मोहब्बत को फिर से जगा दिया।
कॉलेज के सुनहरे दिन, प्यार का इज़हार, जुदाई का दर्द और ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाई… यह मर्मस्पर्शी हिंदी प्रेमकथा दिल को छू लेती है।
यह कहानी सिर्फ़ रोमांस नहीं, बल्कि रिश्तों की गहराई, विश्वास और दूसरे मौके की ताक़त को भी दर्शाती है।
पढ़िए “पंद्रह साल बाद… अधूरी मोहब्बत की नई सुबह” और महसूस कीजिए प्यार, दर्द और उम्मीद से भरी यह दिल छू लेने वाली दास्तान।
रात के साढ़े दस बज रहे थे।
मुंबई एयरपोर्ट का पैसेंजर लाउंज यात्रियों की भीड़, अनाउंसमेंट्स और भागते-दौड़ते कदमों से गूंज रहा था। सफ़ेद रोशनी में चमकती काँच की दीवारें और एयरकंडीशन की ठंडी हवा उस भीड़-भाड़ को भी सहज बनाने की कोशिश कर रही थीं।
विनय अपनी दिल्ली जाने वाली फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था। उसके हाथ में बोर्डिंग पास था और सामने रखी कॉफी टेबल पर उसने अपनी पुरानी डायरी खोल रखी थी। आदत से मजबूर, वह हर सफ़र के पहले कुछ पंक्तियाँ लिख लिया करता था—जैसे अपने मन को हल्का करने का कोई तरीका हो।
तभी अचानक लाउडस्पीकर से अनाउंसमेंट हुआ—
“Attention Please… Due to bad weather conditions, flight no. 305 to Delhi has been cancelled.”
यह सुनकर विनय चौंक गया।
उसने सोचा शायद उसने ग़लत सुना हो। जल्दी से उठकर वह Enquiry Counter की ओर बढ़ा ताकि पुष्टि कर सके।
वह अभी काउंटर तक पहुँचा भी नहीं था कि सामने से कोई महिला तेज़ी से दौड़ती हुई आती दिखी। उसकी चाल, उसकी घबराहट, सब कुछ विनय को कुछ जाना-पहचाना सा लगा। जैसे कोई बहुत पुराना चेहरा अचानक भीड़ में नज़र आ गया हो।
वह पास आई तो चेहरा साफ़ दिखा।
विनय की सांसें थम गईं।
“नेहा…” उसके होंठों से अनायास ही निकला।
महिला रुक गई।
उसने हैरानी से विनय की तरफ़ देखा। अगले ही पल उसकी आँखों में पहचान की चमक कौंधी।
“विनय…? अरे तुम??”
पंद्रह साल बाद, भीड़-भरे एयरपोर्ट के बीच ये दो पुराने चेहरे आमने-सामने खड़े थे। वक्त जैसे थम गया।
कुछ पल दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। चेहरों की झुर्रियाँ, आंखों की थकान, और होंठों पर हल्की मुस्कान—सब कुछ उन पंद्रह सालों की दूरी बयां कर रहे थे।
विनय ने धीरे से कहा—
“यक़ीन नहीं होता, सचमुच तुम हो नेहा? इतने सालों बाद…”
नेहा ने हल्की हंसी के साथ जवाब दिया—
“हाँ, मैं ही हूँ। और सोचो, हम दोनों एक ही वक़्त पर एक ही फ्लाइट के लिए… कितना अजीब संयोग है।”
दोनों पास के एक खाली सोफ़े पर बैठ गए। बाहर रनवे पर खड़े जहाज़ों की लाइटें टिमटिमा रही थीं, लेकिन दोनों के लिए उस वक़्त पूरी दुनिया बस एक-दूसरे के चेहरे में सिमट आई थी।
विनय ने धीरे से पूछा—
“तुम कैसी हो नेहा? ज़िन्दगी कैसी चल रही है?”
नेहा ने गहरी सांस ली।
“अभी सब बताऊँगी… लेकिन पहले तुम सुनाओ। इतने सालों बाद मिल रहे हैं। मुझे तो लग रहा है जैसे हम वापस कॉलेज के दिनों में पहुँच गए हैं।”
विनय मुस्कुराया।
उसकी आँखों में पुराने दिनों की चमक लौट आई।
और फिर, जैसे ही दोनों ने एक-दूसरे को गौर से देखना शुरू किया, उनका मन पंद्रह साल पीछे चला गया—दिल्ली, श्रीराम कॉलेज के सुनहरे दिनों की ओर।
विनय और नेहा दोनों की आंखें जैसे किसी अदृश्य परदे से ढँक गई थीं। एयरपोर्ट की आवाज़ें धीरे-धीरे धुंधली हो गईं और दिमाग़ में एक पुराना दृश्य उभरने लगा—
दिल्ली का श्रीराम कॉलेज।
हरी-भरी कैंपस, चहल-पहल से भरी गलियां और हर ओर नए छात्रों की उत्सुकता।
विनय उसी भीड़ में खड़ा था, हाथ में एडमिशन की फाइल लिए।
तभी अचानक तेज़ हवा के झोंके से किसी की फाइल के सारे पन्ने उड़कर चारों ओर बिखर गए।
विनय तुरंत झुककर कागज़ समेटने लगा।
जैसे ही उसने ऊपर देखा, सामने खड़ी थी—नेहा।
उसकी आँखों में घबराहट और होंठों पर हल्की मुस्कान।
“थैंक यू… अगर तुम न होते तो मेरे सारे पेपर उड़ जाते।”
विनय ने सिर हिलाया,
“कोई बात नहीं, वैसे भी कॉलेज का पहला दिन है… सबको मदद चाहिए।”
बस वहीं से दोस्ती की शुरुआत हुई।
अगले कुछ हफ्तों में दोनों कई क्लासेज़ में साथ बैठे।
लाइब्रेरी में बुक्स ढूँढना, नोट्स शेयर करना, और सबसे ज़्यादा मज़ेदार—कैंटीन में समोसे और चाय।
नेहा को अदरक वाली चाय बेहद पसंद थी। हर बार वह वेटर को कहती—
“भैया, चाय में अदरक ज़रूर डालना।”
विनय हँसता,
“तुम्हारे बिना शायद कैंटीन वाले अदरक रखना ही भूल जाएं।”
धीरे-धीरे दोनों कॉलेज के सबको एक-दूसरे के साथ दिखने लगे।
लोग कहते—
“ये दोनों तो जैसे एक ही टीम हैं।”
ग्रेजुएशन के तीन साल की पढ़ाई में हर प्रोजेक्ट और प्रैक्टिकल दोनों साथ करते।
नेहा बेहद अनुशासित और सीरियस थी, जबकि विनय थोड़ा मस्तमौला।
नेहा अक्सर डाँटती—
“विनय, तुम इतनी लापरवाह क्यों रहते हो? अगर वक़्त पर काम नहीं किया तो मार्क्स कट जाएंगे।”
विनय मुस्कुराकर जवाब देता—
“तुम हो न, मेरे मार्क्स की गारंटी। वैसे भी तुम्हारी प्लानिंग के बिना मैं आधा भी काम नहीं कर पाता।”
यह तकरार ही उनकी दोस्ती की जान बन गई थी।
कॉलेज का कल्चरल फेस्ट—रंगमंच, नाटक, नृत्य और गाने।
विनय और नेहा हमेशा साथ भाग लेते।
एक बार दोनों ने मिलकर डुएट सॉन्ग गाया। जब पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठा, नेहा की आँखें चमक उठीं।
विनय ने वहीं मन-ही-मन महसूस किया—उसकी खुशी ही मेरी खुशी है।
तीसरे साल में पहुँचते-पहुँचते, विनय का दिल धीरे-धीरे नेहा के लिए कुछ और महसूस करने लगा।
वह हर बात में उसे ढूँढने लगा—क्लास में, लाइब्रेरी में, यहाँ तक कि खाली गलियारों में भी।
नेहा को शायद अंदाज़ा था, लेकिन उसने कभी कुछ नहीं कहा।
एक दिन कैंटीन में बैठे-बैठे दोनों अपने भविष्य के बारे में बातें कर रहे थे।
विनय बोला—
“मेरा सपना है कि ग्रेजुएशन के बाद MBA करूँ, किसी बड़ी कंपनी में जॉब लूँ।”
नेहा ने जवाब दिया—
“और मैं चाहती हूँ पोस्ट-ग्रेजुएशन करूँ और फिर प्रोफ़ेसर बनूँ। मुझे हमेशा से पढ़ाना अच्छा लगता है।”
दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा।
उनमें एक अजीब सा सुकून था—जैसे ये सपने अकेले के नहीं, दोनों के हों।
साल का आखिरी क्लास ।
एग्ज़ाम्स में अब सिर्फ़ दस दिन बाकी थे।
कॉलेज कैंटीन में शोर-शराबे के बीच, विनय ने हिम्मत जुटाई।
उसने धीरे से कहा—
“नेहा… मुझे तुमसे कुछ कहना है।”
नेहा ने किताब बंद की और मुस्कुराई—
“क्या?”
विनय की आवाज़ काँप रही थी।
“मैं… मैं तुम्हें पसंद करता हूँ। सिर्फ़ दोस्त की तरह नहीं, उससे भी ज्यादा।”
नेहा कुछ पल चुप रही। उसकी आँखों में नमी और होंठों पर हल्की मुस्कान थी।
फिर धीरे से बोली—
“विनय, मुझे भी तुम अच्छे लगते हो… बहुत।”
उस दिन दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामकर वादा किया—
एग्ज़ाम के बाद, हम अपने रिश्ते को आगे बढ़ाएँगे।
एग्ज़ाम ख़त्म होते ही, नेहा ने विनय को अपने घर बुलाया।
माता-पिता से मिलवाया।
पिता ने पूछा—
“विनय, तुम्हारी आगे की योजना क्या है?”
विनय ने ईमानदारी से कहा—
“मैं MBA करना चाहता हूँ, सर।”
नेहा के पिता ने गंभीर स्वर में कहा—
“अच्छा है। पहले करियर बनाओ, फिर शादी की बात करेंगे।”
विनय और नेहा दोनों ने सिर हिलाया।
उनके दिल में एक विश्वास था—ये रिश्ता टिकेगा।
लेकिन ज़िन्दगी हमेशा वैसे नहीं चलती जैसे हम सोचते हैं।
समय की रफ़्तार तेज़ होती है, और सपनों की राहें कई बार अलग-अलग।
एग्ज़ाम ख़त्म हो चुके थे।
कॉलेज की कैंटीन, लाइब्रेरी, क्लासरूम—हर जगह अब खालीपन था।
तीन साल की यादें मानो दीवारों पर उभर आई थीं।
विनय और नेहा कैंपस में घूमते हुए आख़िरी बार सब कुछ देख रहे थे।
लाइब्रेरी के उस कोने को, जहाँ दोनों देर रात तक पढ़ाई किया करते थे।
कैंटीन की उस खिड़की को, जहाँ से बरसात देखते हुए अदरक वाली चाय पी थी।
और वो ऑडिटोरियम, जहाँ दोनों ने मिलकर डुएट गाया था।
नेहा बोली—
“विनय, सोचो, अब हम रोज़ यहाँ नहीं आएँगे। सब खत्म हो गया।”
विनय ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा—
“कुछ भी खत्म नहीं हुआ, नेहा। ये तो बस शुरुआत है। हमारी कहानी अभी लंबी है।”
लेकिन दोनों के दिल में पता था कि अब राहें अलग होने वाली हैं।
कुछ ही दिनों बाद विनय मुंबई चला गया।
उसने वहाँ की एक नामी यूनिवर्सिटी में MBA का एडमिशन लिया।
नई जगह, नए दोस्त, नया माहौल।
नेहा दिल्ली में ही रुकी। उसने पोस्ट-ग्रेजुएशन शुरू कर दिया।
उसका सपना था प्रोफ़ेसर बनने का, और वह उसी दिशा में बढ़ रही थी।
शुरू-शुरू में दोनों की खूब बातें होती थीं।
लंबे-लंबे फोन कॉल्स, देर रात तक चैटिंग, और हर छोटी-बड़ी बात शेयर करना।
विनय अक्सर कहता—
“बस दो साल, नेहा। MBA पूरा होते ही मैं तुम्हारे पापा से शादी की बात करने आऊँगा।”
नेहा मुस्कुराकर जवाब देती—
“मैं इंतज़ार करूँगी, विनय।”
लेकिन वक्त के साथ सब बदलने लगा।
MBA का कोर्स बेहद कठिन था।
केस स्टडीज़, प्रेज़ेंटेशन्स, प्रोजेक्ट्स—विनय दिन-रात इन्हीं में उलझा रहता।
वहीं नेहा भी अपनी पढ़ाई, रिसर्च पेपर्स और कॉलेज की ज़िम्मेदारियों में व्यस्त हो गई।
अब फोन कॉल्स कम हो गए।
चैटिंग में भी सिर्फ़ छोटे-छोटे मैसेज रह गए—
“कैसी हो?”
“ठीक हूँ, तुम?”
वो गहराई, वो लंबी बातें धीरे-धीरे गायब होने लगीं।
दोनों महसूस तो करते थे, पर कुछ कह नहीं पाते थे।
विनय का MBA अब अंतिम सेमेस्टर में पहुँच गया था।
वह भविष्य के सपनों में खोया था—जॉब, करियर, और नेहा के साथ शादी।
तभी एक दिन उसके फ़ोन पर व्हाट्सऐप का मैसेज आया।
भेजने वाली—नेहा।
संदेश पढ़ते ही विनय की आँखें फटी की फटी रह गईं।
नेहा ने लिखा था—
“विनय, पापा ने मेरी शादी एक और लड़के से तय कर दी है। वह दिल्ली के एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर है। मैं उसे दो साल से जानती हूँ और मुझे लगता है कि मैं उसके साथ ज्यादा खुश रहूँगी।”
विनय के हाथ काँपने लगे।
उसने बार-बार मैसेज पढ़ा, उम्मीद की शायद ये मज़ाक हो।
लेकिन कुछ ही दिनों बाद, व्हाट्सऐप पर एक और मैसेज आया—
नेहा और संजय की शादी का कार्ड।
विनय का दिल चकनाचूर हो गया।
जिस लड़की के साथ उसने भविष्य के सारे सपने सजाए थे, वो अचानक किसी और की दुल्हन बनने जा रही थी।
उसने खुद को संभालते हुए सिर्फ़ इतना जवाब लिखा—
“नेहा, तुम्हें शादी की ढेरों शुभकामनाएँ। भगवान तुम्हें हमेशा खुश रखे।”
लेकिन अंदर से वह पूरी तरह टूट चुका था।
दिल्ली में शहनाई गूँज रही थी।
लाल जोड़े में सजी नेहा मंच पर बैठी थी। उसके चेहरे पर मुस्कान थी, पर आँखों में कहीं न कहीं एक अजीब सी उदासी भी।
सामने संजय बैठा था—लंबा, पढ़ा-लिखा, कॉलेज में प्रोफ़ेसर।
पर नेहा के दिल में सवाल था—क्या यही वो इंसान है जिसके साथ मैं सचमुच खुश रह पाऊँगी?
विनय शादी में नहीं आया।
हालाँकि उसे न्यौता मिला था, कार्ड पर उसका नाम भी था, लेकिन वह जानता था कि वहाँ जाकर उसका दिल और टूटेगा।
उसने खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया और सारी रात शराब के गिलास के साथ गुज़ारी।
शादी के बाद भी कभी-कभी नेहा के मैसेज विनय तक पहुँचते थे—
छोटी-मोटी बातें, हालचाल पूछना।
लेकिन विनय हर बार अंदर से बिखर जाता।
आख़िरकार उसने फैसला किया।
उसने अपना मोबाइल नंबर बदल दिया, ताकि नेहा से पूरी तरह दूर हो सके।
उसके दिल में एक ही बात घर कर गई—
“अब मैं कभी शादी नहीं करूँगा।”
MBA पूरा होने के बाद विनय को मुंबई में ही एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई।
उसका करियर सँवरने लगा, लेकिन दिल का खालीपन वही रहा।
दूसरी तरफ़, नेहा शादी के बाद अपने नए जीवन में व्यस्त हो गई।
उसके और विनय के बीच की सारी बातें, सारे वादे अब अतीत की धुंध में खो गए।
मुंबई की नई नौकरी, बड़ी कंपनी, शानदार ऑफिस—सब कुछ था।
सहकर्मी कहते—
“विनय, तुम्हारे पास तो सब कुछ है। बढ़िया करियर, अच्छा पैसा, बड़ा फ्लैट। और क्या चाहिए?”
लेकिन विनय हर बार मुस्कुराकर जवाब देता—
“हाँ, सब कुछ है…”
फिर रात को अपने खाली फ्लैट में लौटकर महसूस करता कि उसके पास कुछ भी नहीं है।
दीवारों पर सन्नाटा था।
डाइनिंग टेबल पर सिर्फ़ एक प्लेट रखी होती।
बिस्तर पर सिर्फ़ एक तकिया।
विनय की डायरी अब उसकी सबसे बड़ी दोस्त बन गई थी।
हर रात वह उसमें लिखता—
“नेहा, काश तुम होतीं।”
शादी के शुरुआती दिन ठीक-ठाक थे।
संजय अच्छा इंसान लगा, पढ़ा-लिखा, समझदार।
लेकिन वक्त बीतते ही उसकी असली तस्वीर सामने आने लगी।
संजय बहुत गुस्सैल था।
छोटी-छोटी बातों पर झगड़ता, और कई बार तो हाथ भी उठा देता।
नेहा ने शुरू में समझाने की कोशिश की—
“संजय, शादी प्यार और भरोसे से चलती है। तुम ऐसे क्यों करते हो?”
लेकिन संजय की आदतें नहीं बदलीं।
इसी बीच नेहा को एक बेटी हुई।
उस बच्ची की हँसी में नेहा को थोड़ी राहत मिलती, लेकिन संजय का क्रोध और बेरुख़ी कम नहीं हुई।
दस साल तक नेहा ने सब सहा।
लेकिन एक दिन उसने तय कर लिया—अब और नहीं।
आख़िरकार, कोर्टरूम में नेहा और संजय आमने-सामने खड़े थे।
कागज़ों पर दस्तख़त होते ही रिश्ता खत्म हो गया।
नेहा ने अपने छोटे से सामान के साथ मायके लौटने का फैसला किया।
अब वह दिल्ली में अपनी माँ और पाँच साल की बेटी के साथ रहती थी।
पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे थे।
नेहा अक्सर रात को सोचती—
“शायद पापा होते तो मेरा फैसला आसान होता। लेकिन अब मुझे ही अपनी बेटी के लिए मजबूत बनना होगा।”
मुंबई में विनय का करियर बुलंदियों पर था।
पदोन्नति पर पदोन्नति, मोटी सैलरी, विदेश यात्राएँ।
लेकिन उसके दिल में हमेशा खालीपन था।
लोग पूछते—
“विनय, अब शादी कर लो। उम्र निकल रही है।”
वह हर बार एक ही जवाब देता—
“शादी? नहीं… मैंने फैसला कर लिया है। अब मैं कभी शादी नहीं करूँगा।”
उसकी यह ज़िद किसी को समझ नहीं आती।
पर वह जानता था—जिसे चाहता था, वो अब उसकी नहीं है। और उसके जैसा कोई और है ही नहीं।
विनय और नेहा दोनों ने अपनी-अपनी दुनिया में समझौता कर लिया।
नेहा अपनी बेटी में खुशियाँ ढूँढती रही।
विनय अपने काम में डूबा रहा।
दोनों की ज़िन्दगियाँ अलग-अलग पटरी पर दौड़ रही थीं।
लेकिन दोनों के दिलों में कहीं न कहीं एक कोना अब भी खाली था—
एक-दूसरे के नाम का।
मुंबई एयरपोर्ट पर बैठा विनय अब भी हैरानी से नेहा को देख रहा था।
उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत तो थी, लेकिन उसमें ज़िन्दगी की थकान साफ़ झलक रही थी।
नेहा की आँखों के नीचे हल्के काले घेरे, माथे पर हल्की लकीरें—ये सब बता रहे थे कि उसने जीवन में बहुत कुछ सहा है।
विनय ने धीरे से कहा—
“नेहा… सच कहूँ तो मैंने कभी सोचा नहीं था कि हम दोबारा मिलेंगे। वो भी इस तरह।”
नेहा ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—
“हाँ, मैंने भी नहीं। लगता है किस्मत का खेल है।”
दोनों पास के सोफ़े पर बैठ गए।
बाहर बारिश की बूँदें एयरपोर्ट की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से टकरा रही थीं।
भीड़-भाड़ के बीच भी दोनों को ऐसा लग रहा था जैसे समय रुक गया हो।
नेहा ने कहा—
“मैं कॉलेज की तरफ़ से एक कॉन्फ़्रेंस में आई थी। अब वापसी की फ्लाइट पकड़नी थी, लेकिन वो कैंसिल हो गई। और देखो, उसी फ्लाइट से तुम भी जा रहे थे।”
विनय ने हँसते हुए कहा—
“कभी-कभी लगता है ऊपर वाला हमें मिलाने के लिए ही सारी फ्लाइट्स बिगाड़ देता है।”
दोनों हँसे, लेकिन उस हँसी में छिपा दर्द एक-दूसरे से छुपा नहीं था।
कुछ देर बाद विनय ने झिझकते हुए कहा—
“नेहा, मेरे पास एक सुझाव है। मैं यहीं मुंबई में रहता हूँ। मेरा फ्लैट पास ही है। अगर चाहो तो आज रात वहीं चलें। कल सुबह फिर से फ्लाइट ले लेंगे। होटल की झंझट से बच जाओगी।”
नेहा कुछ पल चुप रही।
उसके मन में असहजता थी—पंद्रह साल बाद, सीधे उसके घर?
लेकिन विनय की आँखों में उसे वही पुराना भरोसा दिखा।
नेहा ने धीरे से सिर हिलाया—
“ठीक है, लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि मुझे तुम पर भरोसा है।”
दोनों ने टैक्सी ली।
शहर की रोशनी, ट्रैफिक का शोर, और बारिश से भीगी सड़कों के बीच टैक्सी दौड़ रही थी।
विनय ने धीरे से पूछा—
“नेहा, तुम्हारी फैमिली कैसी है? तुम्हारे पति… सब ठीक है न?”
नेहा ने गहरी सांस ली।
उसकी आँखें झुक गईं।
“शुरुआत में सब ठीक था, विनय। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल गया। संजय और मेरे बीच दूरियाँ बढ़ती गईं। कई बार तो उसने मुझ पर हाथ भी उठाया। आखिरकार, चार साल पहले हमारा तलाक हो गया। अब मैं अपनी पाँच साल की बेटी के साथ दिल्ली में माँ के पास रहती हूँ।”
विनय सन्न रह गया।
उसने सोचा, किस्मत ने नेहा के साथ इतना कठोर क्यों किया?
धीरे से बोला—
“मुझे अफ़सोस है, नेहा। तुमने ये सब अकेले झेला।”
नेहा ने उसकी ओर देखा।
“और तुम? तुम्हारी शादी नहीं हुई?”
विनय हल्की हँसी हँस पड़ा।
“नहीं। मैंने तो निश्चय कर लिया था कि अब शादी नहीं करूँगा। सच कहूँ तो… तुम्हारे बाद मुझे कोई और मिला ही नहीं।”
नेहा की आँखें भर आईं।
टैक्सी के शीशे पर गिरती बारिश की बूँदें जैसे उसके आँसुओं को छुपा रही थीं।
कुछ देर बाद टैक्सी एक सोसाइटी के सामने रुकी।
विनय का फ्लैट साफ-सुथरा और बेहद व्यवस्थित था।
नेहा ने हैरानी से कहा—
“ये सचमुच तुम्हारा घर है? बिना किसी औरत के हाथों के इतना सजा-संवरा हुआ?”
विनय मुस्कुराया—
“हाँ, शायद मैंने रहना सीख लिया है। लेकिन सच्चाई ये है कि घर चाहे कितना भी सुंदर हो, अकेले रहने पर वो सिर्फ़ चार दीवारें ही लगता है।”
नेहा चुप हो गई।
उसे याद आया, कॉलेज के दिनों में विनय का कमरा हमेशा बिखरा हुआ रहता था।
आज का ये बदलाव उसे और भी भावुक कर गया।
विनय किचन में चला गया और बोला—
“तुम्हें तो अदरक वाली चाय बहुत पसंद है न? अभी बनाता हूँ।”
नेहा किचन तक आई।
उसकी आँखों में आँसू थे।
“नहीं विनय, आज मैं बनाऊँगी। बहुत दिन हो गए तुम्हारे लिए चाय बनाए।”
उस पल दोनों की आँखों से आंसू बह निकले।
किचन की छोटी सी जगह में खड़े होकर उन्हें लगा जैसे वे फिर से कॉलेज के दिनों में लौट आए हों।
किचन से अदरक वाली चाय की महक पूरे फ्लैट में फैल गई।
नेहा कप लेकर लिविंग रूम में आई और विनय के सामने रखते हुए बोली—
“याद है, कॉलेज कैंटीन में तुम हमेशा कहते थे कि मेरी बनाई चाय का कोई जवाब नहीं।”
विनय ने कप हाथ में लेते हुए मुस्कुराया—
“हाँ, और आज इतने सालों बाद फिर वही स्वाद मिला है। सच कहूँ तो… लगता है मैं फिर से वही पुराना विनय बन गया हूँ।”
दोनों ने एक साथ चाय की चुस्की ली।
चाय के हर घूँट के साथ जैसे उनके बीच की चुप्पियाँ पिघलती चली गईं।
नेहा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
“वो फेस्ट याद है? जब हम दोनों ने डुएट सॉन्ग गाया था और पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूँज उठा था?”
विनय की आँखों में चमक आ गई।
“कैसे भूल सकता हूँ? वो पहला दिन था जब मुझे लगा था कि तुम्हारी खुशी मेरी सबसे बड़ी जीत है।”
दोनों एक-दूसरे को देखते हुए हँस पड़े।
हँसी के बीच उनकी आँखों में आँसू भी थे।
कुछ देर चुप्पी रही।
फिर विनय ने धीरे से कहा—
“नेहा, मैं तुमसे एक सवाल पूछूँ? तुमने मुझे क्यों छोड़ा? जब हमने इतना कुछ सोचा था… तो अचानक सब क्यों बदल गया?”
नेहा की आँखें झुक गईं।
उसकी आवाज़ काँप रही थी।
“विनय, उस वक़्त मैं कमज़ोर पड़ गई थी। पापा की बातों को मैंने अपनी किस्मत मान लिया। मुझे लगा शायद वही सही है। लेकिन… ये मेरी सबसे बड़ी भूल थी। और उसकी सज़ा मुझे मिल चुकी है।”
विनय ने गहरी सांस ली।
“मैंने भी कोशिश की थी तुम्हें भुलाने की, लेकिन कभी नहीं कर पाया। मैंने तो तय कर लिया था कि अब शादी नहीं करूँगा।”
नेहा ने उसकी ओर देखते हुए कहा—
“और मैंने सोचा था कि शायद तुम्हें भूल जाऊँगी… लेकिन सच तो ये है कि आज भी जब अकेली होती हूँ, तो तुम्हारी यादें ही साथ देती हैं।”
रात गहराती गई।
दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया।
कभी हँसते, कभी रोते, कभी खामोश हो जाते।
विनय बोला—
“तुम्हें पता है, मैंने कई बार सोचा कि तुमसे फिर मिलूँ। लेकिन डर लगता था कि कहीं तुम मुझे पहचानो ही न, या फिर कहो कि अब हमारी कहानी खत्म हो चुकी है।”
नेहा ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“विनय, हमारी कहानी कभी खत्म नहीं हुई। बस बीच में रुक गई थी।”
उस पल दोनों की आँखों से आँसू बह निकले।
लेकिन उन आँसुओं में ग़म से ज्यादा राहत थी—जैसे दिल का बोझ हल्का हो रहा हो।
घड़ी ने दो बजाए।
बाहर बारिश रुक चुकी थी, लेकिन दोनों की बातें रुकने का नाम नहीं ले रही थीं।
नेहा ने कहा—
“काश ये रात कभी खत्म न हो।”
विनय ने धीमे स्वर में जवाब दिया—
“हाँ, काश…”
सोफ़े पर बैठकर दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामे कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक की अधूरी दास्तान सुनी और सुनाई।
पूरी रात गुज़र गई—ना नींद आई, ना थकान महसूस हुई।
उनके लिए ये रात किसी नई सुबह की तरह थी।
रात लगभग ढल चुकी थी। खिड़की के बाहर हल्की-सी भोर की रौशनी दिखने लगी थी।
नेहा खामोश बैठी थी, उसकी उंगलियाँ कप के किनारे पर बार-बार घूम रही थीं।
विनय ने देखा, उसके चेहरे पर मुस्कान तो है, लेकिन आँखों के पीछे एक गहरा दर्द भी छिपा हुआ है।
विनय ने धीरे से कहा—
“नेहा… तुम सच बताओ। तुम खुश हो? तुम्हारी ज़िन्दगी ठीक है?”
नेहा ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखें अचानक भर आईं।
“खुश? हाँ, लोग यही मानते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि मेरी ज़िन्दगी… टूट चुकी है, विनय।”
नेहा ने काँपती आवाज़ में कहना शुरू किया—
“शादी के बाद शुरू में सब अच्छा था। मैंने सोचा था शायद पापा सही थे… लेकिन धीरे-धीरे हालात बदलते गए।
संजय… गुस्सैल इंसान था। छोटी-छोटी बातों पर चिल्लाना, अपमान करना, और कई बार हाथ भी उठाना… सब आम हो गया था।”
विनय की आँखों में हैरानी और गुस्सा दोनों थे।
“उसने तुम्हें मारा?”
नेहा ने सिर झुका लिया।
“हाँ… और मैं हर बार सोचती थी कि शायद अगली बार नहीं होगा। लेकिन हुआ… बार-बार हुआ।
फिर मेरी बेटी आई। मुझे लगा बच्ची आने से सब बदल जाएगा। पर कुछ भी नहीं बदला।
चार साल पहले मैंने हिम्मत की और तलाक ले लिया। अब मैं अपनी बेटी के साथ माँ के घर रहती हूँ।”
उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े।
विनय ने चुपचाप उसकी ओर रुमाल बढ़ा दिया।
कुछ देर चुप्पी रही।
फिर नेहा ने पूछा—
“और तुम, विनय? तुमने शादी क्यों नहीं की? ज़िन्दगी अकेले कैसे काटी?”
विनय ने गहरी साँस ली।
“मैंने कोशिश की थी, नेहा। लेकिन हर जगह मुझे तुम्हारा चेहरा नज़र आता था।
मैंने खुद को समझाया कि आगे बढ़ो, पर नहीं बढ़ पाया।
कई बार घर वालों ने दबाव डाला, लेकिन मैंने साफ़ कह दिया—शादी नहीं करनी।”
उसकी आवाज़ भारी हो गई।
“सच कहूँ, नेहा… तुम्हारे बाद मैंने कभी किसी और को अपना माना ही नहीं। अकेलापन तो था, लेकिन तुम्हारी यादें मेरे साथ थीं। और शायद इसी वजह से मैं जीता रहा।”
नेहा उसकी बातें सुनते हुए फूट-फूटकर रो पड़ी।
विनय ने उसका हाथ पकड़ लिया।
दोनों कुछ देर तक कुछ बोले ही नहीं। बस चुपचाप एक-दूसरे के करीब बैठे रहे।
उस खामोशी में भी बहुत कुछ था—
पछतावा, दर्द, मोहब्बत, और वो सुकून… जो सिर्फ पुराने और सच्चे रिश्तों में मिलता है।
बाहर सूरज निकल चुका था।
नेहा ने धीरे से कहा—
“विनय, कभी-कभी सोचती हूँ… अगर उस दिन मैंने तुम्हारा हाथ नहीं छोड़ा होता, तो शायद मेरी ज़िन्दगी बिल्कुल अलग होती।”
विनय ने उसकी ओर देखा और बोला—
“हो सकता है। लेकिन अब भी देर नहीं हुई है, नेहा। ज़िन्दगी हमें फिर से एक मौका दे रही है।”
नेहा ने उसकी आँखों में देखा।
उस पल उसे लगा जैसे 15 साल का फासला मिट गया हो।
सुबह की धूप खिड़की से अंदर आ रही थी।
नेहा चुपचाप खड़ी बाहर आसमान की ओर देख रही थी।
विनय सोफ़े पर बैठा उसे देख रहा था। इतने सालों बाद भी उसे लगता था कि नेहा वैसी ही है—सिर्फ चेहरे पर थोड़ी थकान और आँखों में छिपे दुख ने फर्क डाला था।
विनय के दिल में हलचल थी।
वो चाहता था कि आज सब कह दे, जो इतने सालों से दबा रखा था।
विनय उठकर नेहा के पास आया और धीमे स्वर में बोला—
“नेहा, मैं अब और चुप नहीं रह सकता।
मैंने तुम्हें हमेशा चाहा है। कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक… और सच तो ये है कि मैंने तुम्हारे अलावा कभी किसी और के बारे में सोचा ही नहीं।”
नेहा की साँसें तेज़ हो गईं।
उसने काँपते होंठों से कहा—
“विनय… मैं भी तुम्हें कभी भूल नहीं पाई। लेकिन मैं डरती हूँ… मैं एक तलाकशुदा औरत हूँ, एक बच्ची की माँ हूँ। क्या तुम सच में मुझे वैसे ही अपनाओगे?”
विनय ने दृढ़ता से कहा—
“नेहा, तुम्हारी बेटी मेरी अपनी होगी। और तुम्हारा अतीत? वो तुम्हारी गलती नहीं थी, बल्कि तुम्हारे हालात थे।
मैंने तो हमेशा तुम्हें वैसे ही चाहा है जैसे तुम हो। और आज भी वही चाहता हूँ।”
नेहा की आँखों से आँसू बह निकले।
वो रोते हुए बोली—
“काश मैंने ये पहले समझा होता… तो शायद आज ये हालात न होते। विनय, मैंने बहुत कुछ खोया है… लेकिन अब मैं और खोना नहीं चाहती।”
नेहा ने धीरे से विनय का हाथ पकड़ लिया।
“विनय, अगर तुम सच में मुझे अपनाना चाहते हो… तो मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ—मैं आज तुमसे पहले से भी ज़्यादा प्यार करती हूँ।”
विनय ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
“तो सुन लो, नेहा… मैं भी आज उतना ही नहीं, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा प्यार करता हूँ जितना कॉलेज के दिनों में करता था।”
दोनों के आँसू बह रहे थे।
वो एक-दूसरे के गले लग गए।
जैसे 15 साल का बोझ एक पल में उतर गया हो।
उस आलिंगन में ना कोई सवाल था, ना कोई डर।
सिर्फ भरोसा था—कि अब ज़िन्दगी उन्हें फिर से एक साथ जीने का मौका दे रही है।
बाहर धूप और तेज़ हो चुकी थी।
लेकिन उनके लिए आज की सुबह किसी नये सवेरा से कम नहीं थी।
सुबह का समय था।
नेहा अपना ट्रॉली बैग लेकर दरवाज़े की ओर बढ़ी।
चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन आँखों में भारीपन साफ़ झलक रहा था।
विनय ने बैग उठाकर बाहर तक पहुँचा दिया।
दोनों चुपचाप खड़े रहे—जैसे कुछ कहना चाहते हों लेकिन शब्द साथ न दे रहे हों।
नेहा ने मन ही मन सोचा—
“काश वो मुझे रोक ले…”
और विनय सोच रहा था—
“काश वो खुद कह दे कि मैं रुक जाऊँ…”
नेहा दरवाज़े से बाहर निकली ही थी कि अचानक उसका पाँव फिसल गया।
वो गिरने ही वाली थी कि विनय ने झट से उसे संभाल लिया।
दोनों एक-दूसरे से लिपट गए।
नेहा की आँखों से आँसू छलक पड़े।
विनय की आवाज़ भीग गई—
“नेहा, मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ जितना पहले करता था… बल्कि अब और ज़्यादा।”
नेहा ने सिर उठाकर उसकी आँखों में देखा और कहा—
“और मैं तुमसे पहले से भी ज़्यादा। मैंने जो गलती 15 साल पहले की थी, उसकी सज़ा मुझे मिल चुकी है। अब मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ना चाहती।”
विनय ने नेहा का हाथ थाम लिया।
“तो फिर अब कोई दूरी नहीं। तुम्हारी बेटी मेरी भी बेटी है, नेहा। और तुम… मेरी हमेशा की साथी।”
नेहा सिसकते हुए मुस्कुरा दी।
उसने अपना सिर विनय के कंधे पर रख दिया।
दोनों की आँखों से बहते आँसू इस बार दुख के नहीं, बल्कि सुकून और खुशी के थे।
उस पल उन्हें लगा मानो किस्मत ने 15 साल बाद उनकी अधूरी कहानी को फिर से जोड़ दिया हो।
बाहर सूरज पूरी तरह निकल चुका था।
रोशनी पूरे कमरे में फैल रही थी।
नेहा ने धीरे से कहा—
“विनय, अब हमारी ज़िन्दगी की नई शुरुआत है।”
विनय ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया—
“हाँ, नेहा। अब कोई जुदाई नहीं। बस साथ… हमेशा के लिए।”
उस सुबह दोनों ने तय किया कि अब वे मिलकर जीवन बिताएँगे।
नेहा अपनी बेटी के साथ एक नया घर बसाएगी और विनय, जो इतने सालों से अकेला था, अब उसका और उसकी बेटी का सहारा बनेगा।
यह नई शुरुआत थी—
जहाँ अधूरे सपने पूरे होंगे,
जहाँ अतीत की तकलीफ़ें पीछे छूट जाएँगी,
और जहाँ प्यार एक बार फिर अपनी असली मंज़िल पा लेगा।