गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

“दूर कहीं उजाला”

 

कहानी: “दूर कहीं उजाला”

(एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा)




पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव—टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छतों से भरा, जहाँ सूरज की रोशनी भी गरीबी को चीरकर नहीं निकल पाती थी।
वहाँ रहती थी गौरी—रधुआ काका और रामबती की इकलौती बेटी।

गौरी का बचपन पहाड़ी झरनों, कच्ची पगडंडियों और सूखे खेतों के बीच बीता।
नंगे पैर खेतों में दौड़ना, माँ के साथ जंगल से लकड़ियाँ लाना, और हर शाम पिता को चाय पर दाल-चावल परोसना—यही उसका संसार था।

पूरे गाँव में लोग कहते—

“रधुआ की लड़की बड़ी सुहागन सी है, आँखों में जैसे कोई उजली किरण चमकती हो…”

पर उम्र बढ़ने के साथ वही चमक धीरे-धीरे धुँधली हो गई।
सोलह की होते-होते उसके चेहरे से वह कंचन जैसी हँसी गायब होने लगी।
दिन-प्रतिदिन उसके शरीर में कमजोरी बढ़ रही थी।

माँ बार-बार उसके माथे पर हाथ रखकर कहती—

“बिटिया, तू दिन-ब-दिन दुबली क्यों होती जा रही है?”

गौरी केवल मुस्कुरा देती—
“कुछ नहीं अम्मा, बस थक जाती हूँ…”

पर असलियत यह थी कि उसके भीतर कोई बीमारी घर कर चुकी थी।
गाँव का झोला-छाप डॉक्टर हर बार वही दवा देता—पीली टिकिया, लाल सिरप।
पर हालत बिगड़ती ही गई।

और जैसे भगवान ने उसी समय उसकी किस्मत मोड़ने का निश्चय किया हो, गाँव में पहुँचा जगमोहन—रधुआ काका का दूर का रिश्तेदार।
शहर में छोटा-मोटा बिज़नेस करता था, उम्र करीब चालीस, देह से मजबूत, आवाज़ भारी और आँखों में अजीब-सी चमक।

गौरी को खाट पर पड़ी देखकर वह बोला—

“काका, इसे शहर ले चलिए। यहाँ इलाज नहीं मिलेगा।
मैं ले जाऊँ? अच्छा डॉक्टर दिखा दूँगा।”

रधुआ काका ने अपनी गरीबी की चादर समेट ली।
वह बोले—

“बेटा, तुम्हारा बहुत अहसान होगा। पर खर्चा…?”

“मेरा है न काका। चिंता मत कीजिए।”

रामबती की आँखों में डर था।
पर उम्मीद भी।

और एक दिन, बस इतना ही कहना काफी था कि गौरी की जिंदगी ने करवट बदल ली।


शहर…
गौरी के लिए यह किसी दूसरे ग्रह जैसा था।
चारों ओर ट्रैफिक, रोशनी, अजनबी चेहरे, और हवा में धूल-मिट्टी की जगह पेट्रोल का धुआँ।

जगमोहन उसे एक छोटे से कमरे में ले आया—एक ऐसा कमरा जहाँ बस एक लोहे की चारपाई, एक अलमारी और एक गैस चूल्हा रखा था।

पहले हफ्ते में वह सचमुच उसे डॉक्टरों के पास ले गया।
दवाएँ मिलीं, इंजेक्शन लगे, कई तरह के टेस्ट हुए।
धीरे-धीरे गौरी की हालत सुधरने लगी।

पर समय के साथ उसके सामने सच्चाई खुलने लगी।

“चाचा, घर कब चलेंगे?” उसने एक दिन हिम्मत करके पूछा।

जगमोहन ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा—

“तेरे माँ-बाप को अभी पैसे भेजूँगा। तू यहाँ आराम कर। घर जाकर क्या करेगी?
तेरा इलाज अभी बाकी है।”

गौरी देखती रही—उसकी बातों में झूठ का धुआँ घुला हुआ था।

धीरे-धीरे वह उससे घर के काम करवाने लगा—खाना बनाना, कपड़े धोना, पोछा लगाना…
और फिर एक दिन वह उसके सामने यह कहते हुए खड़ा था—

“गौरी, अब तू यहीं रहेगी। तेरे माँ-बाप को भी समझा दिया है कि तू ठीक है।”

गौरी के पैरों के तले ज़मीन खिसक गई।

“पर… मैं वापस जाना चाहती हूँ चाचा… मेरी माँ—”

“बस!”
जगमोहन का स्वर ऐसा था कि गूँज कमरे की दीवारों से टकराने लगी।

“तुझसे अच्छा कौन है यहाँ? खाना-पीना मिल रहा है, इलाज हुआ।
अब ज्यादा दिमाग मत चलाया कर।”

गौरी पहली बार रो पड़ी।
रोते-रोते ही उसे लगा—उसका बचपन, उसका घर, उसकी माँ की गोद… सब उससे छिन गया है।

और यहीं से शुरू हुआ वह दौर जहाँ गौरी का जीवन किसी और की मुट्ठी में कैद था।


दिन महीने बने, और महीने साल।
गौरी ने चुपचाप सब सहना सीख लिया—दर्द, मजबूरी, अकेलापन, और जगमोहन की कठोरता।

समय के साथ वह माँ भी बनी—दो बच्चों की।
उनके जन्म से पहले उसने कितनी रातें आँसू पोंछकर बिताई थीं, यह वह खुद भी भूल गई थी।

पर बच्चों के आने से उसका सूना जीवन थोड़ा भरने लगा।

वह उनकी छोटी-छोटी उँगलियों में प्यार खोज लेती,
उनकी मासूम मुस्कान में अपना भविष्य।

पर जगमोहन बूढ़ा हो रहा था, कमजोर हो रहा था।
वह पहले जैसा हावी नहीं रह पाया।
आर्थिक संकट बढ़ रहा था।

एक दिन उसने कहा—

“गौरी, यहाँ गुज़र नहीं होता।
हम दूसरे शहर चलेंगे। वहाँ कुछ काम मिलेगा।”

गौरी को फर्क नहीं पड़ता था।
क्योंकि उसके लिए हर शहर, हर गली, हर घर एक जैसा ही था—
कैदखाना।


नया शहर पिछली जगह से बड़ा था।
भरी हुई गलियाँ, ऊँचे मकान, और बीच में एक छोटा-सा मजदूरों का मोहल्ला—जहाँ उन्हें एक कमरे का घर मिला।

यहीं रहती थी कॉलोनी नं. 14
यहीं पहली बार गौरी की मुलाकात हुई विराज से।

विराज लगभग गौरी की उम्र का था—शांत, जिम्मेदार, और गहरी आँखों वाला इंसान।
घर में पत्नी, एक बेटी, और बूढ़ी माँ।
घर ठीक-ठाक चलता था, पर परिवार में प्यार का वो ताप नहीं था जो जीवन को अर्थ देता है।

पहली मुलाकात साधारण थी—
पानी की लाइन में।

“दीदी, आपकी बाल्टी मेरी बाल्टी से पहले है। आप रख लीजिए,”
विराज ने मुस्कुराते हुए कहा।

गौरी ने धीरे से कहा—
“नहीं, आप पहले भर लीजिए… मेरे पास समय है।”

उसकी आवाज़ में एक ऐसी विनम्रता थी जो हमेशा मजबूर लोगों में होती है—संकोची, दबा हुआ, पर सच्चा।

धीरे-धीरे रोज़ की वही लाइन एक अजीब-सी सहजता में बदल गई—

संक्षिप्त बातें,
हल्की मुस्कानें,
और गौरी की आँखों में पहली बार कोई ऐसा दिखा जो उसे देखता था।


गौरी हर दिन पानी की लाइन में विराज से मिलती।
उनकी मुलाकातें छोटी थीं, पर उनमे अपनापन भरा होता—जैसे दोनों एक-दूसरे से अनकही बातों की सांझ लेने लगे हों।

एक दिन विराज ने पूछा—

“आपका नाम क्या है?”

“गौरी,” उसने बमुश्किल मुस्कुराकर कहा।

“अच्छा नाम है,”
विराज बोला, “आप यहाँ नई आई हैं शायद?”

“हाँ… कुछ महीनों पहले आए थे।”

विराज ने कुछ पल उसे देखा।

“आप… ठीक हैं?”

यह प्रश्न सामान्य था,
लेकिन उन तीन शब्दों में एक सच्ची चिंता थी,
जो गौरी को वर्षों बाद मिली थी।

गौरी की आँखें अनायास भर आईं।
पर उसने तुरंत पलकें झुका लीं—

“हाँ, मैं ठीक हूँ।”

उस दिन गौरी को पता चला कि कोई अनजान भी आपके दुख को पढ़ सकता है।

धीरे-धीरे कॉलोनी के लोग नोटिस करने लगे कि विराज और गौरी अक्सर एक ही वक्त पानी भरने आते हैं।
कोई कुछ नहीं कहता, पर निगाहों में सवाल तैरते रहते।

मगर दोनों के लिए यह मुलाकातें किसी दवा से कम नहीं थीं।


विराज का अपना घर भी टूटा हुआ था, बस लोग उससे देखते नहीं थे।

उसकी पत्नी रेखा, आपस में तालमेल बिल्कुल नहीं था।
रेखा हमेशा नाराज़, चिड़चिड़ी, और बात-बात पर लड़ने को तैयार।
विराज अपने दर्द मन में दबाकर चुपचाप नौकरी करता, घर खर्च चलाता, और रात को थककर सो जाता।

उसकी माँ कई बार कहती—

“बेटा, तेरी आँखों की चमक क्यों कम हो गई है?”

विराज बस मुस्कुरा देता—
“थक जाता हूँ, माँ।”

लेकिन सच्चाई यह थी कि घर में कोई उसे समझता नहीं था।

गौरी उससे बात करती तो वह खुल जाता।
उसे लगता जैसे वह किसी पुराने दोस्त से बात कर रहा हो—जो बिना बोले भी सब समझ लेता हो।

उधर गौरी की जिंदगी भी आसान नहीं थी।

जगमोहन बीमारी से ग्रस्त और उदासीन होकर कोने में पड़ा रहता।
कभी-कभार खाँसता, कभी चिढ़कर चिल्ला देता।

गौरी उसकी दवा, खाना और बच्चों की देखभाल अकेले करती।
उसका जीवन एक अटूट जिम्मेदारी बन चुका था।

विराज से मुलाकातें उसे कुछ पल की राहत देती थीं—
एक ऐसा सहारा जिसकी उसे ज़रूरत थी,
पर वह किसी से कह नहीं सकती थी।


कभी-कभी भाग्य दो लोगों को एक ही पथ पर ला खड़ा करता है,
जहाँ शब्द नहीं बोलते—दिल बोलता है।

एक शाम, जब गौरी सब्ज़ी लेकर लौट रही थी, अचानक बिजली चली गई।
गली अँधेरे में डूब गई।
वह घबराई—बच्चे घर में अकेले थे।

तभी विराज पहुँचा।
उसने मोबाइल की टॉर्च जलाकर कहा—

“आइए, मैं छोड़ देता हूँ।”

गौरी कुछ कह पाती इससे पहले ही उसकी आँखों में डर देखकर विराज ने समझ लिया कि वह चिंतित है।

“चलिए, अंधेरा है… रास्ता खराब है,”
विराज ने सहज भाव से कहा।

दोनों साथ चलते रहे।
गौरी को लगा जैसे किसी ने उसके जीवन की अनगिनत परतों में जमा डर को हल्का कर दिया है।

दरवाज़े तक पहुँचकर उसने धीमे स्वर में कहा—

“धन्यवाद।”

विराज बोला—

“कभी भी… अकेली मत आया कीजिए, ठीक है?”

उसकी आँखों में चिंता थी—सच्ची।

उस रात गौरी देर तक सो नहीं सकी।
वह सोचती रही—
क्यों एक अजनबी उसके लिए इतना भाव रखता है?
क्यों उसकी एक मुस्कान उसके दिन भर के दर्द पर मरहम लगा देती है?

उधर विराज भी सोच रहा था—
गौरी की आँखों में जो दर्द है,
क्या वह कभी खत्म होगा?

धीरे-धीरे, ये भावनाएँ किसी नाम की भूख नहीं रखती थीं—बस अपनापन चाहती थीं।


कॉलोनी में बातें बनने लगीं।

“गौरी और वह विराज… रोज़ बातें करते हैं।”
“अरे, दोनों की उम्र भी बराबर है… कुछ न कुछ तो चल रहा होगा।”

लोगों के पास काम भले न हो,
पर दूसरों के जीवन में झाँकने का हुनर खूब था।

जगमोहन, जो अब लाचार और कमजोर हो चुका था,
इन बातों को सुनता तो चुप रहता।
शायद उसे पता था कि उसने गौरी को कभी जीने का मौका ही नहीं दिया।
लोगों की नजरें अब उसे भी चुभने लगी थीं,
पर विरोध की ताकत उसमें बची नहीं थी।

एक दिन उसने बस इतना कहा—

“गौरी… मोहल्ले में लोग बातें बना रहे हैं।
और… तू भी कुछ सोच-समझकर किया कर।”

गौरी ने सिर झुका लिया।

उसने कहा—

“मैं कुछ गलत नहीं करती… बस बातें होती हैं।”

जगमोहन ने लंबी साँस ली—

“गलत क्या है… सही क्या है… इसका फैसला दुनिया जल्दी कर देती है।”

उसकी आवाज़ में पछतावा था या ईर्ष्या—गौरी कभी समझ नहीं पाई।

पर उसके बाद गौरी और विराज की मुलाकातें और भी खामोश हो गईं।
बातें कम, आँखों का आदान-प्रदान ज्यादा।

पर भावनाएँ…
वे किसी पर रुकती नहीं थीं।


वह शहर की वही पुरानी कॉलोनी… वही शाम की हल्की धूप…
लेकिन अब जीवन कुछ बदलने लगा था।

गौरी, जिसका जीवन सालों से कर्तव्यों की जंजीरों में उलझा हुआ था—
अंदर से टूट चुकी थी, पर बाहर से कठोर बनकर जीना उसने सीख लिया था।

विराज उससे उम्र में बराबर, पर दिल से कहीं अधिक समझदार था।
गौरी जब पहली बार उससे मिली थी, बस नमस्ते तक ही रिश्ता था,
लेकिन धीरे-धीरे बातों की ये डोर बढ़कर एक सहारे में बदल गई।

गौरी को पहली बार महसूस हुआ कि कोई उसे समझ रहा है—
उसकी चुप्पी, उसके डर, उसके भीतर की बरसों पुरानी थकान को।

और विराज…
वो तो जैसे किसी अनकहे वादे की तरह उसके आस-पास रहने की वजह ढूँढ ही लेता था।

दोनों के बीच कोई सीमा पार नहीं हुई थी,
पर भावनाएँ
वह तो सीमाएँ देखती ही नहीं थीं।


गौरी के बच्चे अब बड़े हो गए थे।
उन्होंने अपनी माँ के जीवन को हमेशा एक “जिम्मेदारी” के रूप में देखा था,
कभी एक इंसान के रूप में नहीं।

बच्चों को लगता—
उनकी माँ को बस वही करना चाहिए जो घर की इज्ज़त बनाए रखे,
उनके फैसलों के हिसाब से चले।

जब उन्होंने देखा कि विराज अक्सर घर आता है,
तो कानाफूसियां शुरू हो गईं।

“माँ की उम्र में लोग ऐसा करते हैं क्या?”
“पड़ोस में बदनामी हो रही है…”

ऐसी बातें गौरी के दिल में तीर बनकर चुभतीं।
वह कुछ नहीं कह पाती—
क्योंकि उम्रभर कहा ही क्या था?


कॉलोनी की औरतें तो जैसे बस मौका तलाश रही थीं।

“विराज को देखो, दिन-दिन घर आता है…”
“गौरी भी न, उम्र भूल गई है क्या?”
“शर्म तो करनी चाहिए…”

गौरी हर बार पीछे मुड़कर देखती—
क्या सच में उसने कुछ गलत किया है?

क्या अकेली औरत को दोस्ती का हक नहीं?
क्या उसे सहारे की ज़रूरत नहीं?
और सबसे बड़ा सवाल—
क्या वह इंसान नहीं?

लेकिन समाज के जवाब हमेशा एक जैसे थे—
औरत का दिल नहीं होता, सिर्फ़ कर्तव्य होते हैं।


समाज, परिवार, पड़ोस—
सबकी बातों का भार गोरी के चेहरे पर उतरने लगा।
खामोशी बढ़ती जा रही थी।

विराज समझ रहा था।

एक दिन उसने साफ-साफ कहा—

“गौरी, मैं तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं बनना चाहता।
अगर तुम कहो तो मैं आना बंद कर दूँगा…”

गौरी ने सिर झुका लिया।
वह क्या कहती?

वह बोलना चाहती थी—
“मत जाओ… तुम्हारे बिना मैं और टूट जाऊँगी…”

पर उसके होंठ अटक गए।

उसके जीवन में क्या कभी किसी ने उसकी इच्छा पूछी थी?


एक दिन बात हद से आगे बढ़ गई।

गौरी के बड़े बेटे ने गुस्से में कहा—

“माँ! आज के बाद वह आदमी इस घर में कदम नहीं रखेगा!
हमारी बदनामी हो रही है।
अगर आपने उससे बात भी की, तो हमारा रिश्ता खत्म समझिए।”

गौरी पत्थर बन गई।
उसका दिल धड़कना भूल चुका था।

वह जानती थी—
अब वह कुछ नहीं कह पाएगी।
यह वही बच्चा था जिसे उसने  खुद खाना खाकर नहीं, बल्कि खुद भूखी रहकर पाला।
जिसके लिए वर्षों संघर्ष किए…

आज वही बेटा उसे चरित्र के तराजू पर तौल रहा था।


बच्चों के डर से विराज ने आना बंद कर दिया।
लेकिन भावनाएँ कहाँ रुकती हैं?

गौरी कभी किसी पड़ोसन के फोन से बात कर लेती,
कभी चुपके से गेट के पास खड़ी हो जाती—
बस विराज को देखने के लिए।

पर एक दिन यह भी पकड़ा गया।

उसकी बहू ने तानों की बरसात कर दी—

“हमने रोका था न!
अब उम्र में इश्क़ करेंगी?”
“हमें लोगों को क्या जवाब देना है?”

गौरी शांत रही।
उसकी आँखों में सिर्फ़ एक ही सवाल था—
“मेरा अपना जीवन मेरा क्यों नहीं?”


उस दिन गौरी देर शाम बाहर निकली।
कॉलोनी के पार्क की बेंच पर विराज पहले से बैठा था।

दोनों एक-दूसरे को चुपचाप देखते रहे।
बहुत देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।

फिर विराज बोला—

“गौरी…
अब तुम्हारी हालत मैं और नहीं देख सकता।
तुम्हें उम्रभर किसी ने अपना जीवन चुनने नहीं दिया।
पहले पति… फिर बच्चे… फिर समाज…”

गौरी के आँसू गिरने लगे।

वो लंबे समय बाद किसी के सामने टूटी थी।

विराज ने धीरे से कहा—

“अगर तुम चाहो…
तो हम कहीं दूर चल सकते हैं।
जहाँ न कोई जानने वाला हो,
न कोई रोकने वाला.”

गौरी ने सिर उठाया।
उसकी आँखों में पहली बार—
उम्मीद थी।


उस रात गौरी ने कोई बात नहीं की।
वह बस सोचती रही…

कितने साल बीत गए?
जीवन दिया किसके लिए?
और मिला क्या?
अपनी खुशी का एक कतरा भी नहीं।

क्या उसे जीने का हक नहीं?
क्या वह एक इंसान नहीं?

सुबह होते-होते फैसला साफ हो गया।

उसने एक छोटा-सा बैग उठाया,
घर के मंदिर के सामने खड़ी हुई,
और धीरे से कहा—

“हे भगवान…
आज पहली बार मैं अपने लिए जीने जा रही हूँ।
गलत हूँ या सही…
फैसला आपका।
पर मेरी आत्मा आज आज़ाद होना चाहती है।”

वह बाहर आई।
गेट पर विराज खड़ा था।

दोनों ने पीछे मुड़कर एक बार देखा—
वह घर, जिसने उसे सिर्फ़ कर्तव्य दिए,
कभी खुशी नहीं दी।

उसने अंतिम बार अपने आँगन को देखा और कहा—

“अब बस।
अब मैं अपने लिए जिऊँगी।”

और दोनों चल दिए—
एक नए शहर की ओर,
एक नई शुरुआत की ओर।


समाज कहता है—
“यह रिश्ता गलत है।”
पर दिल कहता है—
“गलत तो वह जीवन था जिसमें वह खुद के लिए जी ही नहीं पाई।”

समाज कहता है—
“बच्चों की इज्ज़त खराब।”
पर सच यह है—
बच्चों ने उसकी इज्ज़त कभी समझी ही नहीं।

समाज कहता है—
“उम्र ढल चुकी है।”
दिल कहता है—
“खुशी की कोई उम्र नहीं।”

और यही प्रश्न कहानी का केंद्र बन जाता है—

क्या समाज के अनुसार सब कुछ सही होना चाहिए?
या इंसान की आत्मा के अनुसार?


गौरी और विराज सुबह की पहली बस से किसी दूर शहर पहुँचे।
दोनों ने शहर का नाम भी बिना पूछे चुन लिया था—
क्योंकि अब उनके लिए नामों से ज्यादा मायने रखती थी आज़ादी

बस से उतरते ही दोनों ने एक हल्की-सी राहत महसूस की—
यहाँ उन्हें कोई नहीं जानता।
कोई यह नहीं पूछेगा कि “रिश्ता क्या है?”
कोई ताना नहीं मारेगा कि “उम्र में यह सब शोभा नहीं देता।”

यह पहली बार था
जब गौरी ने अपने कदमों को अपने निर्णयों के साथ आगे बढ़ते महसूस किया।


दोनों के पास बहुत पैसे नहीं थे।
विराज ने किराए पर एक छोटा-सा कमरा लिया—
कमरा छोटा था, पर दोनों के सपनों से बड़ा।

गौरी ने घरों में खाना बनाने और सिलाई का काम पकड़ लिया।
विराज ने एक दुकान में सहायक का काम शुरू कर दिया।

काम कठिन था—
लंबे घंटे, कम पैसे, अपरिचित लोग…

लेकिन एक बात अलग थी—
यह जीवन उन्होंने खुद चुना था।
पहली बार किसी ने उन्हें मजबूर नहीं किया था।

हर शाम दोनों थक कर लौटते,
एक-दूसरे को देखते,
और मुस्कुरा देते।
बस यही मुस्कान पूरे दिन की थकान मिटा देती।


धीरे-धीरे पड़ोसियों ने उन्हें सिर्फ़ “पति-पत्नी” मान लिया।
किसी ने यह नहीं पूछा कि शादी कब हुई थी,
क्यों हुई थी,
किसने कराई थी।

लोगों ने बस इतना देखा—
दो लोग साथ रहते हैं, शांत रहते हैं, काम पर जाते हैं और एक-दूसरे की इज्ज़त करते हैं।

गौरी ने महसूस किया—
इज्ज़त रिश्ते के नाम से नहीं,
व्यवहार से मिलती है।

और यही बात उसे उसकी पुरानी ज़िंदगी की याद दिलाती,
जहाँ वह सबके लिए “कर्तव्यनिष्ठ पत्नी और माँ” थी,
पर किसी की नज़र में “इंसान” नहीं।


अब दोनों के बीच वह संकोच नहीं था,
न डर, न चोरी-छुपी बातचीत,
न कोई दीवार।

अब वह खुलकर हँसते थे,
खुलकर बातें करते,
और एक-दूसरे की थकान मिटा देते।

गौरी अक्सर कहती—

“विराज, मुझे लगता है मैं पहली बार जी रही हूँ।”

विराज मुस्कुरा देता—

“मुझे लगता है मैं पहली बार खुश हूँ।”

उनका प्यार किसी फिल्मी रोमांस जैसा नहीं था—
यह शांत, पर गहरा था…
ठहरे हुए पानी की तरह—
जो बाहर शांत दिखता है,
पर अंदर अथाह है।


लेकिन अतीत इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता।

एक दिन गौरी के मोबाइल पर उसके बेटे का कॉल आया।
बहुत समय से कोई संपर्क नहीं था।

“माँ… आप ठीक हो?”
आवाज़ में गुस्सा नहीं था, बस पछतावा था।

गौरी चुप रही।
उसने पूछा—

“तुम ठीक हो?”

“हाँ माँ… पर घर वैसा नहीं रहा।
आपके बिना खाली-खाली है।”

गौरी की आँखें भर आईं,
पर उसने दिल कड़ा किया।

“मैं खुश हूँ बेटा।
जहाँ हूँ, ठीक हूँ।”

बेटा कुछ कहना चाहता था,
लेकिन गौरी ने बात वहीं खत्म कर दी।

फिर कई दिनों तक वह बेचैन रही।

विराज ने समझाया—

“अतीत छाया जैसा होता है गौरी…
पीछे रहता है, पर आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता।”

और गौरी ने महसूस किया कि
कभी-कभी दूरी ही बेहतर होती है—
खुद के लिए भी, और रिश्तों के लिए भी।


समय के साथ विराज की सेहत कमजोर होने लगी।
काम की थकान, उम्र, और पुरानी परेशानियाँ अपना असर दिखाने लगी थीं।

गौरी उसकी दवा, खाना, और हर ज़रूरत का ध्यान रखती।

एक दिन डॉक्टर ने कहा—

“उन्हें आराम की ज़रूरत है।
टेंशन बिल्कुल मत लेने दीजिए।”

गौरी ने मुस्कुराकर जवाब दिया—

“डॉक्टर साहब,
अब इनके पास टेंशन देने वाला कोई नहीं…
और संभालने वाली मैं हूँ।”

विराज ने उसकी ओर देखा,
और उसकी आँखों में एक गहरा अपनापन उतर आया।

उन्होंने धीरे से कहा—

“जीवन बचा कितना है पता नहीं…
पर जो भी है,
अब उसी के साथ जीना है।”

गौरी ने उसका हाथ थाम लिया।

“हम दोनों मिलकर जितना है, उतना अच्छा जी लेंगे।”


वर्ष बीत गए।
उनका छोटा-सा घर अब यादों से भर चुका था।
गौरी रोज़ सुबह खिड़की खोलती,
धूप अंदर आती, और उसे लगता कि जीवन अब भी मुस्कुरा रहा है।

एक सुबह विराज नींद में ही शांत हो गया।
कोई दर्द नहीं, कोई आह नहीं—
बस एक धीमी-सी साँस के साथ जैसे कह गया—

“धन्यवाद… मुझे जीवन देने के लिए।”

गौरी ने उसे शांत चेहरा देखकर
पहली बार महसूस किया कि
प्यार का अंत मृत्यु नहीं होता—
यादों के रूप में वह हमेशा जिंदा रहता है।

उसने उसकी चीज़ें संभालीं,
तस्वीरें उठाईं,
और अपने दिल में एक शांत सुकून महसूस किया।

वह अकेली थी—
पर इस बार अकेलापन बोझ नहीं था।
यह एक ऐसी संगत का परिणाम था
जो मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होती।


विराज के जाने के बाद
गौरी ने वही शहर नहीं छोड़ा।

क्यों?

क्योंकि यहीं उसने पहली बार
अपने लिए जीना सीखा था।

यहीं उसे बिना सवालों के इज्ज़त मिली थी।
यहीं उसे प्यार मिला था—
पवित्र, शांत, बिना किसी दिखावे का।

गौरी ने एक चीज़ और तय की—
अब वह दूसरों की दया या रिश्ता माँगकर नहीं जिएगी।
वह अब उतनी ही मजबूत हो चुकी थी
कि खुद का जीवन संभाल सके।

हर शाम वह खिड़की पर बैठती,
बिल्कुल वहीं जहाँ विराज बैठा करता था,
और फुसफुसाकर कहती—

“हमने जिंदगी को आखिरकार जी ही लिया, विराज…”
“और यही हमारी जीत है।”


यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती—
क्योंकि प्यार कभी खत्म नहीं होता।

समाज ने शायद उन्हें गलत कहा,
लेकिन इंसानियत ने उन्हें सही ठहराया।
दो टूटे हुए लोग,
जिन्होंने एक-दूसरे के सहारे
जीवन को जीने का नया अर्थ दिया।

बुधवार, 26 नवंबर 2025

“मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा: IGI दिल्ली से Phuket Thailand तक”

 “मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा: IGI दिल्ली से Phuket Thailand तक”

 एक सपना जो सालों से पल रहा था

ज़िंदगी में कुछ पल ऐसे होते हैं जो हमारे दिल की गहराइयों में हमेशा के लिए बस जाते हैं। ऐसे पल, जिनकी हम वर्षों तक कल्पना करते हैं, सपने देखते हैं… और जब वह सपना सच होता है, तो दिल की धड़कनें भी जैसे एक नई लय में धड़कने लगती हैं।

मेरे लिए मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा—दिल्ली से फुकेत—ऐसा ही एक सपना था।
यह सिर्फ एक यात्रा नहीं थी, बल्कि एक भावनात्मक सफर था, एक अनुभव था जिसने मुझे दुनिया को एक नई दृष्टि से देखने का मौका दिया।

इस व्लॉग में मैं आपको साथ लेकर चलूँगा—
घर से निकलने की घबराहट, IGI एयरपोर्ट की चमक, इमिग्रेशन का अनुभव, टेकऑफ का रोमांच, बादलों के बीच उड़ते हुए मेरे एहसास, और आखिरकार… थाईलैंड की उस धरती तक, जहाँ पहली बार विदेशी हवा ने मेरा स्वागत किया।

साथ बने रहिए… यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं, हर यात्रा प्रेमी की कहानी है जिसे पहली बार आसमान के पार जाने का मौका मिलता है।

सफर की शुरुआत: रात की नमी में दबी उत्सुकता

उस रात मेरी नींद वैसे भी पूरी नहीं हुई थी।
मन में सिर्फ एक ही बात घूम रही थी—
“कल मैं अपने जीवन की पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान भरने वाला हूँ।”

मैंने एक बार फिर अपने बैग चेक किए—पासपोर्ट, टिकट, ID, चार्जर, कैमरा, ट्राइपॉड… सब कुछ जैसे परीक्षा देने जा रहा हूँ।

लेकिन दिल के अंदर कहीं न कहीं हल्की सी घबराहट थी।

पहली विदेश यात्रा… और दिल में लाखों सवाल।

सब कुछ समेटकर जैसे ही मैं घर से बाहर निकला, रात की वह ठंडी हवा चेहरे से टकराई।
एक एहसास आया—
“हाँ, अब यह सफर शुरू हो चुका है।”

रास्ते का उत्साह: दिल्ली की सड़कों पर चलती कार

रात के करीब 3 बजे थे।
सड़कों पर ट्रैफिक कम था, लेकिन मेरे मन में भावनाओं का ट्रैफिक भरा पड़ा था।
कार की खिड़की से बाहर देखते हुए ऐसा लगता था जैसे दिल्ली शहर भी मेरे साथ जाग रहा हो।

हर मोड़ पर मन कह रहा था—
“अब बस IGI पहुँच जाऊँ, फिर असली मज़ा शुरू होगा।”

मैंने YouTube पर कई वीडियो देखे थे—
“पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा कैसे करें”,
“इमिग्रेशन में क्या होता है”,
“फ्लाइट टेकऑफ कैसा लगता है”…

लेकिन आज मैं खुद उसे अनुभूत करने वाला था।

Indira Gandhi International Airport का पहला दृश्य

जैसे ही कार IGI के गेट की ओर मुड़ी, सामने जो चमक दिखाई दी, वह दिल में उतर गई।
बड़ा–सा प्रवेश द्वार, लाइटों की चमक, विदेशी टैक्सियाँ, लगेज ट्रॉलियाँ, और अलग-अलग देशों से आए लोग…

पहली बार यह सब देखते हुए मैं कुछ पल के लिए चुप हो गया।
सोचा—
“यही है वह जगह, जहाँ से सपने उड़ान भरते हैं।”

Terminal 3 का विशाल भवन, उसकी काँच की दीवारें, और अंदर दिखाई देता नीला-पीला प्रकाश…
सच कहूँ तो, पहली झलक ही दिल जीत ले गई।

मैंने अपने कैमरे को ऑन किया और व्लॉग रिकॉर्डिंग शुरू की—
"दोस्तों, आज मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा शुरू हो रही है… और मैं पहुँच चुका हूँ IGI एयरपोर्ट दिल्ली। आज मैं जा रहा हूँ फुकेत, थाईलैंड।"

वह वाक्य बोलते समय खुद पर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि यह सब सच में हो रहा है।

Terminal 3 का रोमांच

जैसे ही मैं अंदर गया, सामने विशाल हॉल दिखा—
नीचे चमकती टाइल्स, ऊपर लटकी सुनहरी कला-कृतियाँ, और चारों ओर यात्रियों की चहल-पहल।

हर कोई अपने-अपने गंतव्य की ओर जा रहा था—
कोई दुबई, कोई लंदन, कोई न्यूयॉर्क…
और मैं…
Phuket, Thailand ❤️

चेक-इन काउंटर पर पहुँचते ही मेरा दिल थोड़ा तेज़ धड़कने लगा।
पासपोर्ट पहली बार अंतरराष्ट्रीय काउंटर पर जा रहा था।

“Sir, where are you travelling?”
"Phuket, Thailand," मैंने गर्व से कहा।

उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरा पासपोर्ट, टिकट, और बैग चेक किया।
कुछ मिनटों बाद मेरे हाथ में बोर्डिंग पास था।

बोर्डिंग पास हाथ में आने का वह एहसास…
जैसे किसी सैनिक को जीत का प्रतीक मिल गया हो।

मैंने कैमरे की ओर देखते हुए कहा—
“दोस्तों, अब असली सफर शुरू… चलिए चलते हैं इमिग्रेशन की तरफ।”

इमिग्रेशन: सबसे अहम चरण

इमिग्रेशन काउंटर की लंबी लाइन देखते ही थोड़ी घबराहट हुई।
सब लोग शांत खड़े थे, कोई मोबाइल पर बात कर रहा था, कोई कागज़ तैयार कर रहा था।

मैं भी लाइन में लगा।
जब मेरी बारी आई तो अधिकारी ने पूछा—
"Is this your first international trip?"
मैंने मुस्कुराकर कहा, "Yes, sir."

उन्होंने पासपोर्ट देखा, कुछ पल के लिए कंप्यूटर स्क्रीन पर टाइप किया…
और फिर — मुट्ठ की आवाज़ जैसी मुहर की आवाज़
THPP
पासपोर्ट पर पहली विदेशी मुहर लग चुकी थी।

मैंने मन में कहा —
“हाँ! यह हो गया… मैं अब सचमुच इंटरनेशनल ट्रैवलर हूँ।”

कैमरे में मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
“दोस्तों, पासपोर्ट पर पहली मुहर लग चुकी है… और यह एहसास बताने लायक नहीं।”

सिक्योरिटी चेक और Departure Gate

अगला चरण था सिक्योरिटी चेक।
सब बहुत तेज़ी से हुआ।

जैसे ही मैं आगे बढ़ा, सामने Duty-Free Shops की चमक दिखाई दी।
परफ्यूम, घड़ियाँ, चॉकलेट्स, लग्जरी ब्रांड्स…

यह सब देखकर अहसास हुआ कि यह जगह हर यात्री के लिए एक छोटा–सा संसार है।

Gate number स्क्रीन पर देखकर मैं अपनी फ्लाइट की ओर बढ़ा।
सामने खड़ी थी—मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान।
वह विमान मानो मुझे बुला रहा था—
“चलो… अब दुनिया बदलने वाली है तुम्हारी।”

विमान में बैठने का जादुई पल

जब बोर्डिंग शुरू हुई, मैं लाइन में खड़ा हुआ।
दरवाजे से अंदर कदम रखते ही एयरहोस्टेस की मुस्कुराहट ने डर को आधा कम कर दिया।

मुझे खिड़की वाली सीट मिली थी—मेरी सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई।

मैं बैठा और बाहर देखा—
रनवे की रोशनी, टैक्सी करती गाड़ियाँ, और दूर खड़ी बड़ी-बड़ी फ्लाइट्स…
यह सब मुझे सपने जैसा लग रहा था।

सीट बेल्ट बाँधते ही दिल धड़कने लगा।
यह वही पल था जिसके बारे में मैंने वर्षों से सोचा था।

टेकऑफ: जब धरती पीछे छूटने लगी

फ्लाइट धीरे–धीरे रनवे पर आगे बढ़ने लगी।
एक क्षण ऐसा आया जब उसने रफ्तार पकड़ी—
और अचानक…
आकाश में उड़ान भर ली।

दिल में एक चुभन–सी हुई, आँखें हल्की सी नम हुईं।
नीचे दिल्ली पीछे छूट रही थी—इमारतें छोटी हो रही थीं…
और मेरे सपने बड़े।

जब विमान बादलों को चीरकर ऊँचाई पर पहुँचा, मैंने कैमरा खिड़की की ओर घुमाया—
बाहर रूई जैसे बादल थे, सूरज हल्का नारंगी…
जैसे स्वर्ग नीचे बिछा हो।

मैंने खुद से कहा—
“यह मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत पलों में से एक है।”

आसमान में 4 घंटे: शांति, सौंदर्य, और अनंत आकाश

फ्लाइट में भोजन मिला, मैंने खाया।
कुछ देर बाद फ्लाइट की लाइट्स धीमी हो गईं।

मैंने खिड़की से बाहर देखा—
नीचे बादलों की चादर…

मन में एक ही विचार आया—
“ज़िंदगी में कम से कम एक बार ऐसा सफर जरूर करना चाहिए।”


थाईलैंड का पहला दृश्य:  समंदर

करीब 4 घंटे बाद सामने समुद्र दिखाई दिया।
नीला पानी…
उसके बीच टापू…
और आसमान में सूरज का हल्का सुनहरा रंग…

यह दृश्य देखकर ऐसा लगा मानो किसी ने एक पेंटिंग को जीवन दे दिया हो।

मैंने कैमरे में कहा—
“दोस्तों… स्वागत है थाईलैंड में, यह सब मैं कभी नहीं भूलूँगा।”

Phuket International Airport की धरती पर पहली बार कदम

जैसे ही विमान उतरा, मैं खिड़की से बाहर देखता ही रह गया।
सामने नारियल के पेड़, साफ़ हवा, और विदेशी माहौल।

जब विमान का दरवाजा खुला और मैंने सीढ़ियाँ उतरीं—
वह हवा…
वह महक…

एक पूरी तरह नई दुनिया का स्वागत थी।

पहली Entry stamp लगवाते समय मेरे चेहरे पर मुस्कान थी।

मैंने मन में कहा—
“यह सिर्फ शुरुआत है…”

Thailand की हवा, चेहरे, और माहौल

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही मन खुश हो गया—
मस्कुराते लोग, अंग्रेजी–थाई भाषा की आवाजें, समुद्री हवा…

हर चीज अलग थी।
हर चीज खूबसूरत।

इस यात्रा ने मुझे क्या सिखाया?

यह यात्रा सिर्फ घूमने की नहीं थी—
यह जीवन का एक पाठ थी।

मैंने सीखा—
● सपनों को पूरा किया जा सकता है
● दुनिया बहुत बड़ी और खूबसूरत है
● यात्रा हमें बदल देती है
● डर सिर्फ शुरुआती बाधा है
● आकाश की कोई सीमा नहीं—हमारी क्यों हो?

समापन: मेरी कहानी, मेरी यात्रा

यह मेरी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा थी—
दिल्ली से Phuket तक।

और आज जब मैं इस व्लॉग को रिकॉर्ड कर रहा हूँ, मन में बस एक ही बात है—
“सफर जितना बाहर का होता है, उतना ही अंदर का भी।”

आप सबका धन्यवाद,
जो मेरे साथ इस कहानी के हर पल में जुड़े रहे।


रविवार, 2 नवंबर 2025

धोखे की उड़ान – अमित और किंजल की अधूरी दास्तान

 

💔 “धोखे की उड़ान – अमित और किंजल की अधूरी दास्तान”



लखनऊ का रहने वाला अमित मिश्रा, उम्र 29 साल, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है जो पिछले पाँच सालों से बैंगलोर में एक बड़ी आईटी कंपनी में नौकरी कर रहा है।
अमित एक सरल, इमोशनल और परिवार से गहराई से जुड़ा हुआ इंसान है। ऑफिस में उसकी अपनी एक पहचान है— मेहनती, सच्चा और शांत स्वभाव वाला लड़का।

उसके माता-पिता अब उसकी शादी की बात करने लगे थे। घरवालों को लगता था कि अब बेटा बस जाए।
अमित को भी कोई एतराज़ नहीं था, बस उसकी एक छोटी सी शर्त थी — “जिससे शादी करूँ, उससे दिल से जुड़ाव हो।”


दीपावली आने वाली थी। अमित ने तीन दिन की छुट्टी ली और फ्लाइट से लखनऊ जाने का प्लान बनाया।
फ्लाइट मुंबई से होकर जाती थी — बैंगलोर ✈️ मुंबई ✈️ लखनऊ।

वो सुबह जल्दी एयरपोर्ट पहुँचा। सामान चेक-इन कराया और गेट नंबर 12 पर बैठ गया। मोबाइल में माँ का मैसेज आया —

“बेटा, पहुँचते ही कॉल करना। और हाँ, इस बार एक लड़की दिखाने की बात भी पक्की है। लड़की मुंबई में जॉब करती है, बहुत अच्छी फैमिली है।”

अमित ने मुस्कुराते हुए रिप्लाई किया —

“ठीक है माँ, जैसा आप कहें।”


फ्लाइट ने मुंबई एयरपोर्ट पर टेकऑफ़ से पहले थोड़ी देर के लिए रुकना था। अमित की सीट विंडो वाली थी — 17A
जब यात्रियों की अदला-बदली हो रही थी, तभी एक लड़की आई — हाथ में लैपटॉप बैग, बाल खुले हुए, आँखों में तेज़ और चेहरे पर आत्मविश्वास।
उसका टिकट भी 17A का ही था।

लड़की ने सीट नंबर देखा और बोली —

“Excuse me! यह मेरी सीट है।”

अमित ने मुस्कुराते हुए कहा —

“नहीं, ये मेरी है। देखिए टिकट।”

दोनों ने टिकट दिखाए — और कमाल की बात यह कि दोनों के टिकट पर एक ही सीट नंबर था।

एयर होस्टेस को बुलाया गया, उसने सिस्टम चेक किया और बोली —

“Sir, आपके पास 17A है, और मैडम का 17B। शायद printing mistake हो गई।”

अमित ने हँसते हुए कहा —

“कोई बात नहीं, आप window seat ले लीजिए, मुझे बीच में भी चलेगा।”

लड़की मुस्कुराई —

“Thank you, लेकिन आपको भी तो बाहर देखने का मन होगा!”

अमित बोला —

“मैं रोज़ कोडिंग में इतना बाहर नहीं देख पाता कि अब clouds क्या दिखेंगे!”

दोनों हँस पड़े।


फ्लाइट उड़ान भर चुकी थी। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद बातचीत शुरू हुई।
लड़की का नाम किंजल  था — लखनऊ  की रहने वाली, और मुंबई में एक MNC कंपनी में HR के पद पर काम करती थी।

बहुत आत्मनिर्भर, खुशमिज़ाज और खुली सोच वाली लड़की।

बातचीत में धीरे-धीरे अपनापन आने लगा।

अमित: “तो आप लखनऊ क्यों जा रही हैं?”
किंजल (हँसते हुए): “वही वजह जो शायद आपकी भी होगी।”
अमित: “मतलब?”
किंजल: “शादी के लिए लड़का देखने।”

अमित चौक गया —

“अरे! सच में? मैं भी तो अपनी शादी के लिए जा रहा हूँ!”

दोनों हँस पड़े।
फ्लाइट की सीट अब एक कहानी की शुरुआत बन चुकी थी।


फ्लाइट लखनऊ लैंड कर चुकी थी। दोनों ने एक-दूसरे को मुस्कुराकर अलविदा कहा।

अमित: “Good luck for your meeting.”
किंजल: “Same to you, Mr. Software Engineer.”

अमित घर पहुँचा तो माँ ने बताया कि दो दिन बाद “लड़की देखने” का प्रोग्राम है।
अमित ने पूछा — “कहाँ?”
माँ ने जवाब दिया — “अलीगंज में, लड़की का नाम किंजल है।”

अमित के होंठों पर मुस्कान थी —

“किंजल… कहीं वही तो नहीं?”


रविवार की सुबह थी। अमित अपने माता-पिता के साथ तय पते पर पहुँचा।
दरवाज़ा खुला — और सामने वही चेहरा!
किंजल, वही जो फ्लाइट में मिली थी, वही मुस्कान, वही आँखें।

दोनों कुछ पल के लिए हैरान रह गए।
किंजल की माँ बोली — “अरे, आप दोनों पहले से एक-दूसरे को जानते हैं क्या?”

अमित ने हल्की हँसी में कहा —

“जी, हमारी मुलाक़ात आसमान में हुई थी।”

कमरे में सब हँस पड़े।


दोनों को अकेले में बात करने का मौका दिया गया।
अमित ने कहा —

“कभी सोचा नहीं था कि फ्लाइट में मिली लड़की मेरी शादी की लिस्ट में होगी।”

किंजल ने जवाब दिया —

“किस्मत भी कभी-कभी बहुत क्रिएटिव होती है।”

दोनों ने बातें कीं — पसंद, करियर, सोच, परिवार।
सब कुछ सामान्य और सहज लगा।

किंजल: “शादी एक ज़िम्मेदारी है, मैं चाहती हूँ कि हम एक-दूसरे को थोड़ा समय दें।”
अमित: “मुझे भी जल्दी नहीं है, मैं समझता हूँ प्यार को पनपने का समय देना चाहिए।”

परिवार वाले भी खुश थे। सबने तय किया —

“छह महीने तक एक-दूसरे को समझिए, फिर फैसला कीजिए।”


आने वाले हफ्तों में अमित और किंजल रोज़ बातें करने लगे — कॉल, वीडियो चैट, मैसेज…
किंजल बहुत हँसमुख थी, अमित के दिन अब हँसी से भरे थे।
कभी ऑफिस के बाद वे लंबी कॉल पर अपने-अपने बचपन की कहानियाँ साझा करते।

अमित को लगता था कि उसने अपनी “जीवनसंगिनी” पा ली है।


छह महीने बाद, दोनों परिवारों ने शादी तय कर दी।
शादी लखनऊ के एक बड़े होटल में धूमधाम से हुई।
अमित और किंजल अब पति-पत्नी थे।

पहली रात — सुहागरात — किंजल ने गंभीर होकर कहा —

“अमित, मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ। मुझे थोड़ा समय चाहिए, मैं अभी mentaly ready नहीं हूँ physical relation के लिए। क्या तुम मुझे थोड़ा वक्त दोगे?”

अमित ने धीरे से कहा —

“किंजल, प्यार जबरदस्ती नहीं होता, मैं तुम्हारा इंतज़ार कर सकता हूँ… जितना चाहे उतना।”

किंजल ने राहत की साँस ली और बोली —

“तुम बहुत अच्छे हो अमित।”


शादी को तीन महीने हो चुके थे। सब कुछ ठीक था — या शायद दिखाई दे रहा था।
किंजल का व्यवहार थोड़ा बदलने लगा था। वह अक्सर मोबाइल में बिज़ी रहती, किसी “ऑफिस फ्रेंड” से लंबे चैट करती थी।
अमित ने कई बार पूछा —

“किससे बात कर रही हो?”
किंजल ने मुस्कुराकर टाल दिया — “ऑफिस के प्रोजेक्ट की बात है।”

अमित ने सोचा — शायद सच हो, आखिर वह HR है, लोगों से बात तो करनी ही होती है।

लेकिन अंदर ही अंदर एक शक का बीज अंकुरित हो चुका था।


शादी के चार महीने बीत चुके थे।
अमित अब भी वही पुराना स्नेही पति था, लेकिन किंजल का रवैया बदल चुका था।
वो अक्सर ऑफिस का बहाना बनाकर देर से घर लौटती, कभी-कभी छुट्टी के दिन भी कहती —

“आज मीटिंग है, जाना ज़रूरी है।”

अमित को अजीब लगता, मगर वो शक नहीं करता था।
वो सोचता — “किंजल मॉडर्न लड़की है, शायद काम का दबाव हो।”

लेकिन हर रोज़, हर रात कुछ न कुछ ऐसा होता जो अमित के मन में अनकहे सवाल छोड़ जाता।


एक रात किंजल सोई हुई थी, मोबाइल साइलेंट मोड पर था।
अमित पानी पीने उठा तो मोबाइल पर “Rahul calling…” चमका।
दिल धड़क उठा।
वो कॉल मिस हो गया, लेकिन तुरंत एक मैसेज आया —

“Good night baby 😘, miss you.”

अमित का दिल सन्न रह गया।
वो कुछ देर तक मोबाइल को देखता रहा, फिर धीरे से रख दिया।
उसने कुछ नहीं कहा, बस तकिये की तरफ़ मुंह फेरकर लेट गया।

उसकी आँखों में अब नींद नहीं थी, बस सवाल थे।


सुबह अमित ने खुद को सामान्य दिखाया।
किंजल किचन में चाय बना रही थी। अमित ने सहज लहजे में पूछा —

“कल रात कोई कॉल आया था तुम्हारे मोबाइल पर, शायद राहुल?”

किंजल का चेहरा पलभर को सफेद पड़ गया, फिर बोली —

“अरे वो राहुल… ऑफिस का दोस्त है, मजाक में ऐसा बोल देता है।”

अमित ने मुस्कुरा कर कहा —

“ठीक है, मजाक तो अच्छे दोस्त करते ही हैं।”

लेकिन भीतर कुछ टूट चुका था।


अब अमित चुपके से किंजल को observe करने लगा।
वो देखता कि जब भी राहुल का नाम मोबाइल पर आता, किंजल थोड़ा घबरा जाती।
कभी मुस्कुरा कर मोबाइल छिपा लेती, कभी तुरंत स्क्रीन बंद कर देती।

एक रात उसने तय किया कि अब सच्चाई जाननी ही होगी।
किंजल के सो जाने के बाद उसने मोबाइल अनलॉक किया।

वहाँ व्हाट्सएप चैट में पढ़ा —

राहुल: “अब कब तक उसे मूर्ख बनाए रखोगी?”
किंजल: “बस थोड़ा और समय दो, फिर सब आसान होगा।”
राहुल: “याद है, हमारा प्लान? एक natural तरीका चुनना होगा।”
किंजल: “हाँ, मैं तैयार हूँ, बस सही वक्त का इंतज़ार है।”

अमित के हाथ काँपने लगे।
उसने आगे स्क्रॉल किया — पुरानी तस्वीरें, दिल वाले इमोजी, और ऐसे मेसेज जो सब कुछ कह रहे थे।

“काश हमारे घरवाले समझ पाते।”
“अब जब तुम उसकी हो, तो जल्दी खत्म करो ये नाटक।”

अमित की आँखों में आँसू आ गए।
वो धीरे से उठकर बालकनी में चला गया।
रात के तीन बजे का सन्नाटा था, लेकिन उसके भीतर तूफान मच चुका था।


अगले दिन अमित ने तय किया कि वो कुछ कहेगा नहीं — बस सब कुछ जानने की कोशिश करेगा।
उसने  एक दोस्त प्राइवेट डिटेक्टिव मनीष से मदद ली।
मनीष साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट भी था।
अमित ने कहा —

“मुझे बस ये जानना है कि ये राहुल कौन है, कहाँ काम करता है, और मेरी पत्नी से उसका क्या रिश्ता है।”

मनीष ने कहा —

“ठीक है, दो दिन का वक्त दो।”

दो दिन बाद मनीष ने अमित को एक रिपोर्ट दी।
रिपोर्ट पढ़कर अमित का सिर घूम गया —

“राहुल सिंह – मुंबई निवासी, बेरोजगार। चार साल पहले किंजल के साथ रिलेशन में था। किंजल के घरवालों ने रिश्ता तोड़ दिया क्योंकि राहुल काम नहीं करता था। लेकिन दोनों अब भी गुपचुप कॉन्टैक्ट में हैं।”


अमित अब समझ चुका था कि जिस लड़की को उसने इतना सम्मान, समय और प्यार दिया — वही उसकी पीठ पीछे किसी और के साथ साजिश कर रही है।
वो हर रात सोचता — “क्या मुझसे कोई गलती हुई थी?”

लेकिन जवाब सिर्फ़ एक था — “नहीं… गलती सिर्फ़ भरोसा करने की थी।”


एक दिन अमित के ऑफिस में एक पार्टी थी। उसने सोचा —

“आज किंजल को साथ ले चलता हूँ, शायद माहौल बदल जाए।”

किंजल बहुत खुश दिख रही थी। उसने लाल रंग की ड्रेस पहनी थी, बाल खुले हुए थे।
दोस्तों ने अमित से कहा —

“अरे मिश्रा, आज तो अपनी वाइफ के लिए कुछ गाना सुनाओ!”

अमित मुस्कुराया और गाना शुरू किया —
🎶 “तू मिले दिल खिले… और जीने को क्या चाहिए…” 🎶

सभी तालियाँ बजा रहे थे।
किंजल की आँखों में आँसू आ गए — शायद शर्म, शायद पछतावा, या शायद डर।

पार्टी के बाद दोनों घर लौटे।
अमित ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उस रात उसने दोबारा मोबाइल चेक किया — और पाया कि किंजल ने राहुल को मैसेज किया था —

“वो कुछ समझ गया है, हमें जल्दी कुछ करना होगा।”

अब अमित ने तय कर लिया — “बस अब खेल खत्म।”


अगली सुबह अमित ने खुद को बेहद शांत दिखाया।
उसने किंजल से कहा —

“किंजल, मुझे अब सब पता चल चुका है।”

किंजल के चेहरे का रंग उड़ गया।

“क्या मतलब?”

अमित ने कहा —

“राहुल के बारे में सब जानता हूँ। लेकिन मैं कोई झगड़ा नहीं चाहता। तुम चाहो तो मैं तुम्हें डिवोर्स दे दूँ। आधी प्रॉपर्टी तुम्हारे नाम कर दूँ। बस मुझसे एक आखिरी बार राहुल से मिलवा दो।”

किंजल ने अविश्वास से उसकी तरफ देखा —

“तुम सच में ऐसा करोगे?”
अमित: “हाँ, अगर तुम खुश हो जाओगी तो मुझे कोई ग़म नहीं।”

किंजल ने राहुल को मैसेज किया —

“वो तैयार है, मिलो।”


अगली सुबह  की हवा कुछ अलग थी।
अमित ने तय कर लिया था — आज सब कुछ खत्म होगा, लेकिन अपने तरीके से।
वो अब भी सामान्य दिख रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

किंजल अब भी थोड़ा डरी हुई थी, पर अमित की शांति देखकर उसे लगा कि शायद वो वाकई मान गया है।
वो सोच रही थी —

“शायद सब आसान हो जाएगा। बस एक बार राहुल आ जाए…”


अमित ने  फ्लाइट टिकटें बुक कीं  ।
फिर किंजल से कहा —

“मैं चाहता हूँ कि मैं और राहुल आमने-सामने बैठकर बात करें।
मुझे न कोई बदला चाहिए, न झगड़ा। बस सच्चाई और एक शांत अंत।”

किंजल को भी यही लगा कि अमित की “पागलपंती” अब खत्म हो गई है।
वो तुरंत राज़ी हो गई और राहुल को कॉल किया —

“राहुल, सब ठीक है, अमित मान गया है। वो आधी प्रॉपर्टी देने को तैयार है, बस तुम आ जाओ।”

राहुल ने कहा —

“वाह! आखिर मेरी किंजल जीत गई।”


तीन दिन बाद राहुल बैंगलोर आया।
अमित ने खुद उसे एयरपोर्ट से रिसीव किया।
राहुल ने मुस्कुरा कर कहा —

“भाई, तुम तो बहुत समझदार निकले।”

अमित ने भी हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया —

“समझदारी में ही तो सच्चा इंसान दिखता है।”

दोनों साथ में कार से घर पहुँचे।
किंजल अंदर ही अंदर बेचैन थी।
वो सोच रही थी — “अब सब हमारे नाम हो जाएगा।”


अमित ने अपने स्टडी रूम में बैठकर फाइल खोली।
उसमें बैंक बॉन्ड, प्रॉपर्टी के पेपर, और एक लीगल डीड रखी थी।

अमित: “देखो राहुल, ये दस करोड़ के बॉन्ड हैं, और ये फ्लैट मेरे नाम पर है।
यहाँ मैंने सब पर साइन कर दिए हैं। अब ये तुम्हारे नाम होंगे।”

राहुल की आँखों में लालच चमक उठा।
उसने कहा —

“वाह! भाई, तुम तो दिलदार निकले। इतना पैसा, इतनी प्रॉपर्टी!
मैं तो सोच भी नहीं सकता था।”

किंजल अब भी थोड़ा नर्वस थी।
अमित ने मुस्कुरा कर कहा —

“लेकिन एक छोटी-सी शर्त है।”

राहुल ने कहा —

“बोलो भाई, कैसी शर्त?”

अमित ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा —

“तुम्हें किंजल को छोड़ना होगा।”


राहुल पहले तो हँस पड़ा —

“अरे भाई, मज़ाक मत करो। ये सब तो किंजल की वजह से ही मिला है।”

अमित ने कहा —

“कोई मज़ाक नहीं कर रहा। ये सब तुम्हारे नाम होगा, लेकिन किंजल अब तुम्हारी नहीं रहेगी।”

राहुल कुछ पल चुप रहा, फिर हँसते हुए बोला —

“इतने पैसों के लिए? हाँ भाई, मैं 1 नहीं 10 किंजल छोड़ सकता हूँ!
मुझे ऐसी बहुत मिल जाएँगी।”

ये सुनते ही किंजल के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
वो काँपती आवाज़ में बोली —

“राहुल… ये क्या कह रहे हो तुम?”

राहुल ने बेशर्मी से कहा —

“अब क्या चाहिए? जो चाहिए था वो मिल गया। अब तुम अपने अमित जी के साथ रहो।”

किंजल की आँखों से आँसू गिरने लगे।
उसने गुस्से में कहा —

“तुम धोखेबाज़ हो राहुल! मैंने तुम्हारे लिए सबकुछ दाँव पर लगा दिया था।”

राहुल ने ठंडे स्वर में कहा —

“तुम्हारी गलती है, बेवकूफी मतलब प्यार नहीं होता।”


तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
दो पुलिसवाले अंदर आए।
अमित ने कहा —

“इंस्पेक्टर साहब, यही है राहुल सिंह।”

राहुल चौक गया —

“ये क्या मज़ाक है?”

इंस्पेक्टर ने कहा —

“हमने तुम्हारी कॉल रिकॉर्डिंग और चैट्स ट्रेस कर ली हैं।
 अमित मिश्रा की हत्या की साजिश का केस तुम्हारे खिलाफ़ दर्ज है।”

राहुल चिल्लाया —

“नहीं! ये झूठ है!”

अमित ने कहा —

“सच का वक्त हमेशा आता है, राहुल।
प्यार धोखे पर नहीं, भरोसे पर टिकता है।”

पुलिस राहुल को हथकड़ी लगाकर ले गई।
किंजल फूट-फूटकर रो रही थी।


किंजल ज़मीन पर बैठी थी।
वो बड़बड़ाई —

“मैंने सब खो दिया… राहुल भी, और तुम भी।”

अमित की आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरे पर दृढ़ता थी।
उसने कहा —

“किंजल, मैं तुमसे सच्चा प्यार करता था।
लेकिन अब तुमसे उतनी ही नफ़रत करूँगा जितना पहले प्यार करता था।
तुम मेरे घर में रह सकती हो अगर चाहो,
लेकिन मेरा भरोसा और मेरा दिल अब तुम्हारे लिए कभी नहीं खुलेगा।”

किंजल ने रोते हुए कहा —

“क्या तुम मुझे माफ़ नहीं कर सकते?”

अमित ने गहरी सांस ली —

“माफ़ कर दूँगा… लेकिन भूल नहीं पाऊँगा।”


कुछ महीनों बाद किंजल ने खुद को अमित से अलग कर लिया।
वो मुंबई वापस चली गई, और वहाँ से विदेश नौकरी के लिए निकल गई।

अमित फिर से अपने काम में लौट गया — लेकिन अब उसकी मुस्कान के पीछे एक दर्द था।
वो अक्सर बालकनी में बैठकर आसमान की ओर देखता और सोचता —

“जिस उड़ान में मुलाक़ात हुई थी, वही ज़िंदगी की सबसे बड़ी गिरावट बन गई…”

धीरे-धीरे उसने अपनी ज़िंदगी को सँवारा।
प्यार अब भी उसके दिल में था, लेकिन वो जान चुका था —
“सच्चा प्यार वो नहीं जो साथ दे,
बल्कि वो है जो धोखे के बाद भी किसी को बुरा नहीं चाहता।”


एक साल बाद, लखनऊ के उसी एयरपोर्ट पर, अमित ने फिर एक उड़ान पकड़ी —
लेकिन इस बार बिना किसी उम्मीद, बिना किसी डर के।

उसने अपने मोबाइल में किंजल का पुराना मैसेज देखा —

“Good luck for your meeting.”

अमित मुस्कुरा दिया और खुद से कहा —

“हाँ किंजल, आज भी एक meeting है… अपने अतीत से, अपने आप से।”

फ्लाइट आकाश में उड़ चली।
नीचे शहर की बत्तियाँ चमक रही थीं,
और ऊपर आसमान में सिर्फ़ सन्नाटा था —
जैसे खुद ज़िंदगी कह रही हो —

“कुछ रिश्ते मुकम्मल नहीं होते,
पर उनकी यादें हमेशा ज़िंदा रहती हैं।”



रविवार, 5 अक्टूबर 2025

❤️ Love Now Days – एक आधुनिक प्रेमकहानी

 


 ❤️ Love Now Days – एक आधुनिक प्रेमकहानी




दिल्ली का ठंडा जनवरी महीना था। मेट्रो स्टेशन पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। हर किसी के हाथ में मोबाइल था—कोई इंस्टाग्राम स्क्रॉल कर रहा था, कोई रील बना रहा था, तो कोई कॉल पर बिज़ी था। इसी भीड़ में खड़ा था **आरव**, 27 साल का एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर।


आरव की दुनिया बहुत साधारण थी—ऑफिस, घर और कभी-कभार दोस्तों से मिलने का समय। लेकिन मोबाइल की स्क्रीन उसके जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा बन चुकी थी। इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप, लिंक्डइन—सब जगह वह मौजूद था, मगर असल ज़िंदगी में बेहद अकेला।


एक दिन उसने यूँ ही इंस्टाग्राम पर स्क्रॉल करते हुए देखा कि उसके कॉलेज की एक पुरानी जान-पहचान वाली लड़की, **सिया**, की प्रोफ़ाइल सामने आ गई। सिया अब मुंबई में जर्नलिस्ट थी।


आरव ने सोचा—

*"कितना बदल गई है ये… कॉलेज में तो कितनी चुप रहती थी। अब देखो, कितनी कॉन्फिडेंट और पब्लिक फिगर जैसी लग रही है।"*


उसने हिम्मत करके एक *‘Hi’* भेज दिया। जवाब तुरंत नहीं आया। लेकिन रात को करीब 11 बजे फोन पर नोटिफिकेशन बजा—

**सिया: Hi Aarav, long time! How are you?**


बस, वहीं से कहानी की शुरुआत हुई।



शुरू-शुरू में औपचारिक बातें हुईं—*“कहाँ हो?”, “क्या कर रहे हो?”, “परिवार कैसा है?”*।

लेकिन धीरे-धीरे ये बातें लंबी रातों तक खिंचने लगीं।


सिया अक्सर रात को ऑफिस से लौटकर आरव से बातें करती।

वो कहती—

*"दिनभर न्यूज़, पॉलिटिक्स और ब्रेकिंग स्टोरीज़ में दिमाग उलझा रहता है… लेकिन तुम्हारे साथ चैट करने पर लगता है कोई अपना है।"*


आरव हँसते हुए लिखता—

*"मुझे लगता है कि मैं तुम्हें फिर से जान रहा हूँ… पहले वाली सिया से बिलकुल अलग।"*


आजकल के प्यार की यही शुरुआत होती है—ना तो मोहल्ले की छत पर नज़रें मिलना, ना कॉलेज की कैंटीन में चुपके से बातें करना। बल्कि मोबाइल स्क्रीन और टाइप होते हुए ब्लू टिक ही इशारे बन जाते हैं।



दिन बीतते गए। दोनों की चैट कॉल्स में बदलीं, फिर वीडियो कॉल्स में।

आरव को लगता जैसे अब उसकी ज़िंदगी रंगीन हो गई हो। ऑफिस से लौटकर मोबाइल पर सिया का चेहरा देखना उसकी दिनचर्या का सबसे प्यारा हिस्सा था।


सिया ने एक दिन मज़ाक में कहा—

*"देखो आरव, हमें मिले हुए कितने साल हो गए। लेकिन अब लगता है हम रोज़ साथ रहते हैं।"*


आरव ने हल्की सी मुस्कान के साथ जवाब दिया—

*"हाँ, पर फर्क बस इतना है कि साथ मोबाइल स्क्रीन में है, हकीकत में नहीं।"*


दोनों के बीच एक अजीब सा खिंचाव था। मगर किसी ने सीधे-सीधे 'प्यार' शब्द नहीं कहा था।


करीब दो महीने बाद, सिया दिल्ली आई।

उसने मज़ाक करते हुए कहा—

*"चलो देखते हैं कि इंस्टाग्राम वाला आरव असल में कैसा दिखता है।"*


आरव बेहद नर्वस था। आजकल के प्यार में मिलने से पहले इंसान हजार बार सोचता है—*“वो मुझे देखकर निराश तो नहीं होगी? क्या असलियत में भी वैसा ही कनेक्शन होगा जैसा ऑनलाइन है?”*


उन्होंने कनॉट प्लेस में मिलने का तय किया।

जब सिया सामने आई—काले कोट में, खुले बालों के साथ—तो आरव कुछ पल के लिए बस देखता ही रह गया।


*"Hi,"* सिया ने मुस्कुराकर कहा।

*"Hi…,"* आरव की आवाज़ हल्की काँप रही थी।


दोनों ने कॉफी पी, घंटों बातें कीं। पुराने कॉलेज की यादें, नए सपने, काम की परेशानियाँ—सब कुछ।

और सबसे खास बात—दोनों ने यह महसूस किया कि स्क्रीन के बाहर भी वही जादू बरकरार है।


लेकिन ज़िंदगी हमेशा इंस्टाग्राम रील्स की तरह आसान नहीं होती।

सिया का करियर मुंबई में था, आरव का दिल्ली में। दोनों ही अपने-अपने परिवार की उम्मीदों से बँधे हुए थे।


सिया कहती—

*"मुझे नहीं पता आरव… ये रिश्ता कहाँ जाएगा। मैं करियर छोड़ नहीं सकती, और तुम भी यहाँ सब छोड़कर आ नहीं सकते।"*


आरव चुप रहता।

उसे लगता कि आजकल के प्यार की सबसे बड़ी परेशानी यही है—**दूरी और व्यावहारिकता**।



कॉफी शॉप से बाहर निकलते हुए आरव और सिया दोनों चुप थे।
भीड़भाड़ वाली सड़क, हॉर्न बजाते ऑटो, चमचमाती लाइट्स—सब कुछ उनके बीच की खामोशी को और गहरा कर रहे थे।

सिया ने आखिरकार कहा—
*"आरव, तुम जानते हो ना… आजकल रिश्तों को निभाना पहले जैसा आसान नहीं है। करियर, परिवार, टाइम… सबकुछ बीच में आ जाता है।"*

आरव ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—
*"जानता हूँ, लेकिन अगर चाहो तो रास्ता हमेशा निकल ही आता है।"*

सिया ने उसकी ओर देखा, आँखों में एक चमक और थकान दोनों साथ थीं।


उनकी मुलाक़ात भले ही छोटी रही, मगर असर गहरा था।
वापस मुंबई लौटने के बाद सिया और भी ज़्यादा चैट करने लगी।
वीडियो कॉल पर वह कहती—
*"तुम्हें पता है, मैं आज ऑफिस में कितनी थक गई थी… लेकिन जैसे ही तुम्हें देखती हूँ, लगता है सब ठीक है।"*

आरव हँसकर जवाब देता—
*"तो फिर मेरे बिना तुम जी ही नहीं पाओगी।"*
और दोनों खिलखिला कर हँस पड़ते।

लेकिन यही हँसी, यही मीठी बातें धीरे-धीरे चिंता में बदलने लगीं।



एक दिन सिया ने मैसेज किया—
*"मम्मी-पापा मेरी शादी की बात करने लगे हैं। कहते हैं कि अब 28 की हो गई हूँ, तो और देर क्यों?"*

आरव के दिल में हलचल मच गई।
उसने लिखा—
*"और तुमने क्या कहा?"*

सिया: *"मैंने कह दिया कि अभी करियर पर ध्यान देना है। लेकिन सच बताऊँ तो मैं भी कंफ्यूज़ हूँ आरव। पता नहीं हम दोनों का रिश्ता कहाँ तक जाएगा।"*

आरव देर तक टाइप करता रहा लेकिन कुछ लिख नहीं पाया।
आजकल के प्यार की यही विडंबना है—दिल 'हाँ' कहता है लेकिन दिमाग 'शायद'।


आरव ने देखा कि सिया अक्सर अपनी इंस्टाग्राम स्टोरी पर नए-नए लोगों के साथ तस्वीरें डालती है—कभी ऑफिस पार्टी, कभी किसी इवेंट में सेलिब्रिटी इंटरव्यू।

एक रात उसने हिम्मत करके पूछ लिया—
*"तुम इतने लोगों के साथ हो, कहीं तुम्हें किसी और से… मतलब…"*

सिया ने तुरंत जवाब दिया—
*"आरव, प्लीज़! मेरी दुनिया सिर्फ स्क्रीन पर मत देखो। हाँ, मैं सबके साथ काम करती हूँ, हँसती हूँ, तस्वीरें खिंचवाती हूँ, लेकिन दिल में सिर्फ तुम हो।"*

आरव को चैन मिला, मगर मन में जलन का छोटा बीज फिर भी रह गया।
आजकल के रिश्तों में ये जलन और शक बहुत आम है—क्योंकि दुनिया का हर पल सबके सामने लाइव दिखता है।


करीब छह महीने बाद, सिया फिर दिल्ली आई।
इस बार उन्होंने दो दिन साथ बिताए।
कनॉट प्लेस की गलियों में घूमे, इंडिया गेट पर देर रात तक बैठे, और ढाबे पर छोले-भटूरे खाए।

उन पलों में दोनों ने महसूस किया कि उनका रिश्ता सिर्फ स्क्रीन का नहीं, हकीकत का भी है।

सिया ने धीमे से कहा—
*"आरव, काश हम इसी तरह हमेशा साथ रह पाते।"*

आरव ने उसकी हथेली थामते हुए कहा—
*"तो कौन रोक रहा है?"*

लेकिन अगले ही पल दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में झाँककर देखा—
रोकने वाला कोई और नहीं, उनकी अपनी परिस्थितियाँ थीं।


वापस लौटने से पहले, सिया ने कहा—
*"आरव, हमें सच का सामना करना होगा।
हो सकता है मैं किसी दिन मजबूरी में शादी के लिए हाँ कह दूँ। और तुम… तुम्हारे माता-पिता भी तो उम्मीद करते होंगे कि तुम शादी करोगे।"*

आरव चुप रहा।
वह जानता था कि यह सच है।
आजकल का प्यार अक्सर करियर और परिवार की दीवारों से टकरा जाता है।



उस मुलाक़ात के बाद उनके बीच बातें कम होने लगीं।
पहले जो चैट रात-दिन चलती थी, अब दिन में एक-दो मैसेज तक सीमित रह गई।
वीडियो कॉल्स भी कम हो गए।

आरव जब मैसेज करता, तो कभी-कभी घंटों जवाब नहीं आता।
और जब आता, तो बस इतना—
*"Sorry, बहुत बिज़ी थी।"*

आरव समझ गया कि धीरे-धीरे दूरी बढ़ रही है।
लेकिन उसका दिल मानने को तैयार नहीं था।


एक दिन आरव ने देखा कि सिया ने इंस्टाग्राम पर किसी इवेंट की तस्वीर डाली थी—एक साथी पत्रकार के साथ।
कैप्शन था: *“Great evening with colleagues”*।

आरव ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसके भीतर एक तूफ़ान चल रहा था।
वह सोचने लगा—
*"क्या मैं बस उसकी लाइफ का एक चैप्टर हूँ? या सच में उसकी कहानी का हिस्सा?"*

आजकल का प्यार अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर रह जाता है।



कुछ दिनों बाद, देर रात कॉल पर सिया ने कहा—
*"आरव, मुझे तुमसे कुछ कहना है।"*

*"क्या?"*

*"मेरे घरवाले फिर से शादी का दबाव डाल रहे हैं। और इस बार… शायद मैं उन्हें मना न कर पाऊँ।"*

आरव की साँसें रुक सी गईं।
*"मतलब…?"*

सिया चुप रही। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे, स्क्रीन पर धुंधले दिखाई दे रहे थे।




फोन पर लंबे समय तक खामोशी छाई रही।
आरव चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रहा था।
सिया की आवाज़ काँप रही थी—
*"आरव, प्लीज़ मुझे गलत मत समझना। मैंने जितना हो सका घरवालों को रोका, लेकिन… मम्मी बीमार रहती हैं, पापा का कहना है कि अब मुझे ज़िंदगी की स्थिरता चाहिए।"*

आरव ने धीरे से कहा—
*"और मैं? मैं तुम्हारे लिए क्या हूँ?"*

सिया की आँखें भर आईं।
*"तुम… तुम मेरे दिल के सबसे करीब हो। लेकिन कभी-कभी दिल से ज़्यादा दिमाग को सुनना पड़ता है।"*



उस रात के बाद से दोनों के बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई।
चैट पर वही 'गुड मॉर्निंग' और 'टेक केयर' जैसे औपचारिक शब्द रह गए।
आरव अक्सर उसके ऑनलाइन आने का इंतज़ार करता, लेकिन सिया शायद जानबूझकर कम ऑनलाइन रहने लगी।

आरव सोचता—
*"आजकल का प्यार शायद इसी को कहते हैं—जहाँ लोग दिल से जुड़े रहते हैं, लेकिन हालात उन्हें अलग करने लगते हैं।"*



एक शाम आरव अपने पुराने दोस्त कबीर से मिलने गया।
कबीर ने उसके चेहरे को देखकर ही समझ लिया कि कुछ गड़बड़ है।

*"भाई, तू इतना चुप क्यों है? सब ठीक तो है?"*

आरव ने पूरी कहानी कबीर को सुना दी।
कबीर ने लंबी साँस लेकर कहा—
*"यार, प्यार आज के दौर में आसान नहीं है। हर किसी के पास हज़ार जिम्मेदारियाँ हैं। लेकिन अगर तू सच में सिया से प्यार करता है, तो उसे खोने से पहले लड़ाई लड़नी चाहिए।"*

आरव ने सोचा—
*"शायद कबीर सही कह रहा है। मैं कोशिश तो कर सकता हूँ।"*


अगले ही दिन आरव ने सिया को कॉल किया।
*"सिया, मैं तुमसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ।
क्या तुम मुझसे शादी करना चाहती हो?"*

सिया कुछ पल चुप रही, फिर बोली—
*"आरव, चाहती तो हूँ… लेकिन चाहना और करना दो अलग बातें हैं।"*

*"तो कर लो न! मैं दिल्ली छोड़कर मुंबई आ जाऊँगा। नई नौकरी ढूँढ लूँगा। बस तुम हाँ कह दो।"*

सिया की आँखों से आँसू बह निकले।
*"तुम इतना सब मेरे लिए क्यों करोगे?"*

*"क्योंकि आजकल के इस शोर-शराबे वाली दुनिया में तुम ही तो मेरी सच्चाई हो।"*

सिया ने कुछ नहीं कहा। कॉल कट हो गई।


अगले कई दिन तक सिया का कोई मैसेज नहीं आया।
उसकी प्रोफ़ाइल भी प्राइवेट हो गई।
आरव बेचैन था। हर पल लगता—*“क्या उसने मुझे ब्लॉक कर दिया?”*

वह दिनभर इंस्टाग्राम खोलता, फिर बंद करता।
व्हाट्सऐप पर 'लास्ट सीन' देखता।
आजकल के प्यार की सबसे बड़ी परीक्षा यही है—डिजिटल सन्नाटा।


करीब एक महीने बाद, दिल्ली एयरपोर्ट पर आरव अपने ऑफिस टूर के लिए खड़ा था।
वहीं सामने उसने देखा—सिया।
वो जल्दी-जल्दी गेट की ओर बढ़ रही थी, हाथ में लगेज और आँखों पर धूप का चश्मा।

आरव ने हिम्मत जुटाकर पुकारा—
*"सिया!"*

सिया ठिठक गई। धीरे-धीरे उसने चश्मा उतारा।
उसकी आँखें लाल थीं, जैसे रोते-रोते थक गई हो।

*"आरव… तुम यहाँ?"*

*"हाँ, और तुम?"*

सिया ने गहरी साँस ली—
*"मैं… शादी के लिए लड़के से मिलने जा रही हूँ।"*

आरव के कदम वहीं जम गए।



आरव ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखें सब कह रही थीं।
*"तो… बधाई हो,"* उसने किसी तरह कहा।

सिया की आँखों से आँसू टपक पड़े।
*"मैं मजबूर हूँ आरव। लेकिन एक सच बताऊँ? अगर जिंदगी में कभी किसी से दिल से प्यार किया है, तो वो सिर्फ तुम हो।"*

आरव का गला भर आया।
*"और मैं… शायद हमेशा तुम्हें ही चाहता रहूँगा।"*

इसी बीच फ्लाइट की अनाउंसमेंट हुई।
सिया ने अपना बैग उठाया, आखिरी बार आरव की ओर देखा और गेट के अंदर चली गई।


आरव देर तक उसी जगह खड़ा रहा।
लोग आते-जाते रहे, पर उसकी दुनिया जैसे ठहर गई थी।
उसने सोचा—
*"शायद यही आजकल के प्यार की हकीकत है। लोग दिल से जुड़ते हैं, पर हालात उन्हें जुदा कर देते हैं।"*


एयरपोर्ट की उस मुलाक़ात के बाद आरव की ज़िंदगी जैसे बदल गई।
उसके लिए अब सुबह की चाय, ऑफिस की भाग-दौड़, दोस्तों की बातें—सबकुछ खाली-खाली लगने लगा।

वह अक्सर खुद से सवाल करता—
*"क्या यही प्यार है? या यह सिर्फ एक खूबसूरत याद बनकर रह गया?"*



दिल के दर्द को भूलने के लिए आरव ने खुद को काम में झोंक दिया।
सुबह से देर रात तक लैपटॉप पर कोड लिखना, मीटिंग्स अटेंड करना और रिपोर्ट्स तैयार करना।
लेकिन जितना ज़्यादा वह काम में डूबता, उतना ही सिया की यादें सतातीं।

कभी अचानक नोटिफिकेशन की आवाज़ आती तो लगता—*“शायद सिया का मैसेज है।”*
लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती।


एक दिन हिम्मत करके उसने सिया की प्रोफ़ाइल खोजी।
अब वह प्राइवेट नहीं थी।
उसने देखा—सिया ने अपनी सगाई की तस्वीर डाली थी।
उसकी मुस्कान में खुशी थी, लेकिन आँखों में वही पुराना खालीपन।

आरव देर तक उस तस्वीर को घूरता रहा।
फिर फोन बंद कर दिया।
*"शायद यही आजकल का प्यार है—लोग इंस्टाग्राम पर मुस्कुराते हैं, लेकिन दिल में आँसू छुपा लेते हैं।"*



आरव ने कभी सिया से फिर बात नहीं की।
लेकिन उसके दिल में कई सवाल रह गए—
*"क्या उसने सच में मुझे भुला दिया?
क्या उसने मजबूरी में शादी की हाँ की?
या फिर… मैं ही उसके लिए कभी काफ़ी नहीं था?"*

इन सवालों के जवाब शायद कभी नहीं मिलते।
और शायद यही इस रिश्ते की असली कसक थी।



एक रात कबीर उससे मिलने आया।
*"भाई, तू अभी भी उसी में उलझा हुआ है?"*

आरव ने चुपचाप सिर हिलाया।

कबीर बोला—
*"देख, आजकल के प्यार की यही सच्चाई है। सबकुछ तेज़ी से बदलता है। कल कोई है, आज कोई और। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि तेरा प्यार झूठा था। जो तूने महसूस किया, वो असली था। बस उसका अंत वैसा नहीं हुआ जैसा तू चाहता था।"*

आरव ने गहरी साँस ली।
*"शायद तू सही कह रहा है। लेकिन दिल मानना इतना आसान नहीं है।"*



धीरे-धीरे समय बीतता गया।
आरव ने खुद को सँभालना शुरू किया।
वह जिम जाने लगा, नई किताबें पढ़ने लगा, और कुछ नए दोस्तों से भी मिला।

कभी-कभी ऑफिस की पार्टी में कोई लड़की उससे बात करती, तो वह मुस्कुरा देता।
लेकिन उसके दिल के किसी कोने में अब भी सिया ही बसी थी।



एक शाम जब बारिश हो रही थी, आरव ने खिड़की से बाहर देखते हुए अपने फोन में पुरानी चैट खोली।
वो सारे मैसेज—*“Good night Aarav”, “Take care”, “Miss you”*—फिर से आँखों के सामने तैरने लगे।

उसकी आँखें भर आईं।
*"आजकल का प्यार भी अजीब है…
लोग चले जाते हैं, लेकिन उनकी चैट और तस्वीरें हमेशा ज़िंदा रहती हैं।"*


करीब एक साल बाद, आरव मुंबई ऑफिस के प्रोजेक्ट पर भेजा गया।
वह कॉफी शॉप में बैठा लैपटॉप पर काम कर रहा था कि अचानक सामने से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई—
*"आरव?"*

उसने नज़र उठाई—वो सिया थी।
अब वह शादीशुदा थी, लेकिन चेहरे पर वही पुरानी चमक थी।

कुछ पल दोनों बस एक-दूसरे को देखते रहे।

*"कैसे हो?"* सिया ने पूछा।
*"ठीक हूँ… और तुम?"*
*"ठीक हूँ,"* सिया ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, लेकिन उसकी आँखें फिर वही कहानी कह रही थीं।


दोनों ने कॉफी ऑर्डर की और बातें करने लगे।
सिया ने कहा—
*"ज़िंदगी वैसी नहीं है जैसी मैंने सोची थी।
जिम्मेदारियाँ हैं, घर है, सबकुछ है… लेकिन कहीं न कहीं एक खालीपन भी है।"*

आरव चुपचाप सुनता रहा।
*"और तुम?"* सिया ने पूछा।
आरव ने धीरे से कहा—
*"मैं अभी भी तुझे याद करता हूँ।"*

सिया की आँखों से आँसू छलक पड़े।
*"काश ज़िंदगी हमें थोड़ा और वक्त देती…"*


कॉफी खत्म हुई।
दोनों उठे।
सिया ने कहा—
*"आरव, मुझे अब जाना होगा। लेकिन एक बात याद रखना—चाहे हालात जैसे भी रहे, तू हमेशा मेरी सबसे बड़ी सच्चाई रहेगा।"*

आरव ने उसकी ओर देखा।
*"और तू… मेरी अधूरी मोहब्बत।"*

दोनों ने बिना कुछ और कहे अलविदा कहा।
भीड़भाड़ वाली सड़क पर चलते-चलते दोनों अलग दिशाओं में खो गए।


सिया से मुंबई में हुई उस मुलाक़ात ने आरव की ज़िंदगी फिर से हिला दी।
वह सोच रहा था कि वक्त ने सब घाव भर दिए हैं, लेकिन सिया को देखकर सारे जज़्बात ताज़ा हो गए।

ऑफिस लौटकर भी वह बार-बार उसी कॉफी शॉप का ख्याल करता रहा—जहाँ दोनों ने फिर से एक-दूसरे की आँखों में छिपी नमी देखी थी।


कई दिनों तक दोनों ने एक-दूसरे से कोई संपर्क नहीं किया।
लेकिन उनके दिलों में एक गहरा बोझ था।

आरव ने डायरी में लिखा—
*"आजकल का प्यार अजीब है।
यह हमें जोड़ता भी है और तोड़ता भी।
हमारे पास मोबाइल हैं, सोशल मीडिया है, हर तरह की कनेक्टिविटी है…
लेकिन दिल का फासला कोई तकनीक मिटा नहीं सकती।"*



करीब दो हफ्ते बाद, एक रात अचानक आरव को व्हाट्सऐप पर सिया का मैसेज आया—
*"जाग रहे हो?"*

आरव का दिल धड़कने लगा।
*"हाँ, तुम?"*

*"हाँ… नींद नहीं आ रही। बस सोचा तुमसे बात कर लूँ।"*

उस रात दोनों ने घंटों बातें कीं।
सिया ने स्वीकार किया—
*"आरव, मेरी शादी से मुझे सबकुछ मिला, लेकिन दिल का सुकून नहीं।
पता नहीं क्यों, लेकिन मैं अब भी तुम्हारे बारे में सोचती हूँ।"*

आरव के लिए यह सुनना किसी मरहम जैसा था, लेकिन साथ ही दर्द भी था।



अगले दिन ऑफिस में आरव बार-बार यही सोचता रहा—
*"क्या हमारे बीच अब भी कोई संभावना है?
या यह बस एक अधूरी चाहत है जिसे पूरा करना असंभव है?"*

उसने खुद से सवाल किया—
*"क्या मैं सिया की ज़िंदगी में दखल दे रहा हूँ? या फिर यह प्यार इतना सच्चा है कि हक़दार है एक और मौका मिलने का?"*

आजकल के रिश्तों में यही सबसे बड़ा संघर्ष है—दिल और दिमाग की जंग।



कुछ समय बाद दोनों फिर से मिले—इस बार समुद्र किनारे, जुहू बीच पर।
लहरें किनारे से टकरा रही थीं, जैसे उनके दिलों की बेचैनी को आवाज़ दे रही हों।

सिया ने धीरे से कहा—
*"आरव, काश हम किसी और दौर में मिले होते। शायद तब ज़िंदगी आसान होती।"*

आरव ने उसकी ओर देखा—
*"लेकिन हमने तो अपना दौर खुद ही चुना है… मोबाइल, सोशल मीडिया, करियर, सबकुछ।
शायद यही आजकल का प्यार है—जहाँ लोग एक-दूसरे को पाकर भी खो देते हैं।"*

दोनों लंबे समय तक चुप बैठे रहे।


जब रात गहराने लगी, सिया उठ खड़ी हुई।
*"मुझे अब जाना होगा,"* उसने कहा।

आरव ने पूछा—
*"क्या यह हमारी आखिरी मुलाक़ात है?"*

सिया कुछ पल चुप रही।
फिर बोली—
\*"शायद… या शायद नहीं। ज़िंदगी का पता नहीं, आरव।"

उसने हाथ बढ़ाया। आरव ने थाम लिया।
दोनों की आँखों में आँसू थे, लेकिन होठों पर हल्की मुस्कान भी।



आरव उसे जाते हुए देखता रहा।
भीड़ में उसका चेहरा धीरे-धीरे गायब हो गया, लेकिन उसके दिल में उसकी मौजूदगी और गहरी होती चली गई।

उस रात आरव ने डायरी में लिखा—

*"आजकल का प्यार पूरा भी है और अधूरा भी।
यह हमें जोड़ता है, लेकिन हमें आज़माता भी है।
सिया मेरी ज़िंदगी से गई या नहीं, यह मैं नहीं जानता…
लेकिन इतना तय है कि वह हमेशा मेरी कहानी का हिस्सा रहेगी।
शायद किसी दिन हम फिर मिलेंगे, या शायद नहीं।
लेकिन यही प्यार की खूबसूरती है—इसका कोई अंत नहीं होता।"*




“दूर कहीं उजाला”

  कहानी: “दूर कहीं उजाला” (एक दीर्घ, मर्मस्पर्शी और मानवीय कथा) पहाड़ों की तलहटी में बसा था बरगड़िया गाँव —टूटी-फूटी गलियों वाला, मिट्टी...