रविवार, 5 अक्टूबर 2025

❤️ Love Now Days – एक आधुनिक प्रेमकहानी

 


 ❤️ Love Now Days – एक आधुनिक प्रेमकहानी




दिल्ली का ठंडा जनवरी महीना था। मेट्रो स्टेशन पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। हर किसी के हाथ में मोबाइल था—कोई इंस्टाग्राम स्क्रॉल कर रहा था, कोई रील बना रहा था, तो कोई कॉल पर बिज़ी था। इसी भीड़ में खड़ा था **आरव**, 27 साल का एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर।


आरव की दुनिया बहुत साधारण थी—ऑफिस, घर और कभी-कभार दोस्तों से मिलने का समय। लेकिन मोबाइल की स्क्रीन उसके जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा बन चुकी थी। इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप, लिंक्डइन—सब जगह वह मौजूद था, मगर असल ज़िंदगी में बेहद अकेला।


एक दिन उसने यूँ ही इंस्टाग्राम पर स्क्रॉल करते हुए देखा कि उसके कॉलेज की एक पुरानी जान-पहचान वाली लड़की, **सिया**, की प्रोफ़ाइल सामने आ गई। सिया अब मुंबई में जर्नलिस्ट थी।


आरव ने सोचा—

*"कितना बदल गई है ये… कॉलेज में तो कितनी चुप रहती थी। अब देखो, कितनी कॉन्फिडेंट और पब्लिक फिगर जैसी लग रही है।"*


उसने हिम्मत करके एक *‘Hi’* भेज दिया। जवाब तुरंत नहीं आया। लेकिन रात को करीब 11 बजे फोन पर नोटिफिकेशन बजा—

**सिया: Hi Aarav, long time! How are you?**


बस, वहीं से कहानी की शुरुआत हुई।



शुरू-शुरू में औपचारिक बातें हुईं—*“कहाँ हो?”, “क्या कर रहे हो?”, “परिवार कैसा है?”*।

लेकिन धीरे-धीरे ये बातें लंबी रातों तक खिंचने लगीं।


सिया अक्सर रात को ऑफिस से लौटकर आरव से बातें करती।

वो कहती—

*"दिनभर न्यूज़, पॉलिटिक्स और ब्रेकिंग स्टोरीज़ में दिमाग उलझा रहता है… लेकिन तुम्हारे साथ चैट करने पर लगता है कोई अपना है।"*


आरव हँसते हुए लिखता—

*"मुझे लगता है कि मैं तुम्हें फिर से जान रहा हूँ… पहले वाली सिया से बिलकुल अलग।"*


आजकल के प्यार की यही शुरुआत होती है—ना तो मोहल्ले की छत पर नज़रें मिलना, ना कॉलेज की कैंटीन में चुपके से बातें करना। बल्कि मोबाइल स्क्रीन और टाइप होते हुए ब्लू टिक ही इशारे बन जाते हैं।



दिन बीतते गए। दोनों की चैट कॉल्स में बदलीं, फिर वीडियो कॉल्स में।

आरव को लगता जैसे अब उसकी ज़िंदगी रंगीन हो गई हो। ऑफिस से लौटकर मोबाइल पर सिया का चेहरा देखना उसकी दिनचर्या का सबसे प्यारा हिस्सा था।


सिया ने एक दिन मज़ाक में कहा—

*"देखो आरव, हमें मिले हुए कितने साल हो गए। लेकिन अब लगता है हम रोज़ साथ रहते हैं।"*


आरव ने हल्की सी मुस्कान के साथ जवाब दिया—

*"हाँ, पर फर्क बस इतना है कि साथ मोबाइल स्क्रीन में है, हकीकत में नहीं।"*


दोनों के बीच एक अजीब सा खिंचाव था। मगर किसी ने सीधे-सीधे 'प्यार' शब्द नहीं कहा था।


करीब दो महीने बाद, सिया दिल्ली आई।

उसने मज़ाक करते हुए कहा—

*"चलो देखते हैं कि इंस्टाग्राम वाला आरव असल में कैसा दिखता है।"*


आरव बेहद नर्वस था। आजकल के प्यार में मिलने से पहले इंसान हजार बार सोचता है—*“वो मुझे देखकर निराश तो नहीं होगी? क्या असलियत में भी वैसा ही कनेक्शन होगा जैसा ऑनलाइन है?”*


उन्होंने कनॉट प्लेस में मिलने का तय किया।

जब सिया सामने आई—काले कोट में, खुले बालों के साथ—तो आरव कुछ पल के लिए बस देखता ही रह गया।


*"Hi,"* सिया ने मुस्कुराकर कहा।

*"Hi…,"* आरव की आवाज़ हल्की काँप रही थी।


दोनों ने कॉफी पी, घंटों बातें कीं। पुराने कॉलेज की यादें, नए सपने, काम की परेशानियाँ—सब कुछ।

और सबसे खास बात—दोनों ने यह महसूस किया कि स्क्रीन के बाहर भी वही जादू बरकरार है।


लेकिन ज़िंदगी हमेशा इंस्टाग्राम रील्स की तरह आसान नहीं होती।

सिया का करियर मुंबई में था, आरव का दिल्ली में। दोनों ही अपने-अपने परिवार की उम्मीदों से बँधे हुए थे।


सिया कहती—

*"मुझे नहीं पता आरव… ये रिश्ता कहाँ जाएगा। मैं करियर छोड़ नहीं सकती, और तुम भी यहाँ सब छोड़कर आ नहीं सकते।"*


आरव चुप रहता।

उसे लगता कि आजकल के प्यार की सबसे बड़ी परेशानी यही है—**दूरी और व्यावहारिकता**।



कॉफी शॉप से बाहर निकलते हुए आरव और सिया दोनों चुप थे।
भीड़भाड़ वाली सड़क, हॉर्न बजाते ऑटो, चमचमाती लाइट्स—सब कुछ उनके बीच की खामोशी को और गहरा कर रहे थे।

सिया ने आखिरकार कहा—
*"आरव, तुम जानते हो ना… आजकल रिश्तों को निभाना पहले जैसा आसान नहीं है। करियर, परिवार, टाइम… सबकुछ बीच में आ जाता है।"*

आरव ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—
*"जानता हूँ, लेकिन अगर चाहो तो रास्ता हमेशा निकल ही आता है।"*

सिया ने उसकी ओर देखा, आँखों में एक चमक और थकान दोनों साथ थीं।


उनकी मुलाक़ात भले ही छोटी रही, मगर असर गहरा था।
वापस मुंबई लौटने के बाद सिया और भी ज़्यादा चैट करने लगी।
वीडियो कॉल पर वह कहती—
*"तुम्हें पता है, मैं आज ऑफिस में कितनी थक गई थी… लेकिन जैसे ही तुम्हें देखती हूँ, लगता है सब ठीक है।"*

आरव हँसकर जवाब देता—
*"तो फिर मेरे बिना तुम जी ही नहीं पाओगी।"*
और दोनों खिलखिला कर हँस पड़ते।

लेकिन यही हँसी, यही मीठी बातें धीरे-धीरे चिंता में बदलने लगीं।



एक दिन सिया ने मैसेज किया—
*"मम्मी-पापा मेरी शादी की बात करने लगे हैं। कहते हैं कि अब 28 की हो गई हूँ, तो और देर क्यों?"*

आरव के दिल में हलचल मच गई।
उसने लिखा—
*"और तुमने क्या कहा?"*

सिया: *"मैंने कह दिया कि अभी करियर पर ध्यान देना है। लेकिन सच बताऊँ तो मैं भी कंफ्यूज़ हूँ आरव। पता नहीं हम दोनों का रिश्ता कहाँ तक जाएगा।"*

आरव देर तक टाइप करता रहा लेकिन कुछ लिख नहीं पाया।
आजकल के प्यार की यही विडंबना है—दिल 'हाँ' कहता है लेकिन दिमाग 'शायद'।


आरव ने देखा कि सिया अक्सर अपनी इंस्टाग्राम स्टोरी पर नए-नए लोगों के साथ तस्वीरें डालती है—कभी ऑफिस पार्टी, कभी किसी इवेंट में सेलिब्रिटी इंटरव्यू।

एक रात उसने हिम्मत करके पूछ लिया—
*"तुम इतने लोगों के साथ हो, कहीं तुम्हें किसी और से… मतलब…"*

सिया ने तुरंत जवाब दिया—
*"आरव, प्लीज़! मेरी दुनिया सिर्फ स्क्रीन पर मत देखो। हाँ, मैं सबके साथ काम करती हूँ, हँसती हूँ, तस्वीरें खिंचवाती हूँ, लेकिन दिल में सिर्फ तुम हो।"*

आरव को चैन मिला, मगर मन में जलन का छोटा बीज फिर भी रह गया।
आजकल के रिश्तों में ये जलन और शक बहुत आम है—क्योंकि दुनिया का हर पल सबके सामने लाइव दिखता है।


करीब छह महीने बाद, सिया फिर दिल्ली आई।
इस बार उन्होंने दो दिन साथ बिताए।
कनॉट प्लेस की गलियों में घूमे, इंडिया गेट पर देर रात तक बैठे, और ढाबे पर छोले-भटूरे खाए।

उन पलों में दोनों ने महसूस किया कि उनका रिश्ता सिर्फ स्क्रीन का नहीं, हकीकत का भी है।

सिया ने धीमे से कहा—
*"आरव, काश हम इसी तरह हमेशा साथ रह पाते।"*

आरव ने उसकी हथेली थामते हुए कहा—
*"तो कौन रोक रहा है?"*

लेकिन अगले ही पल दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में झाँककर देखा—
रोकने वाला कोई और नहीं, उनकी अपनी परिस्थितियाँ थीं।


वापस लौटने से पहले, सिया ने कहा—
*"आरव, हमें सच का सामना करना होगा।
हो सकता है मैं किसी दिन मजबूरी में शादी के लिए हाँ कह दूँ। और तुम… तुम्हारे माता-पिता भी तो उम्मीद करते होंगे कि तुम शादी करोगे।"*

आरव चुप रहा।
वह जानता था कि यह सच है।
आजकल का प्यार अक्सर करियर और परिवार की दीवारों से टकरा जाता है।



उस मुलाक़ात के बाद उनके बीच बातें कम होने लगीं।
पहले जो चैट रात-दिन चलती थी, अब दिन में एक-दो मैसेज तक सीमित रह गई।
वीडियो कॉल्स भी कम हो गए।

आरव जब मैसेज करता, तो कभी-कभी घंटों जवाब नहीं आता।
और जब आता, तो बस इतना—
*"Sorry, बहुत बिज़ी थी।"*

आरव समझ गया कि धीरे-धीरे दूरी बढ़ रही है।
लेकिन उसका दिल मानने को तैयार नहीं था।


एक दिन आरव ने देखा कि सिया ने इंस्टाग्राम पर किसी इवेंट की तस्वीर डाली थी—एक साथी पत्रकार के साथ।
कैप्शन था: *“Great evening with colleagues”*।

आरव ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसके भीतर एक तूफ़ान चल रहा था।
वह सोचने लगा—
*"क्या मैं बस उसकी लाइफ का एक चैप्टर हूँ? या सच में उसकी कहानी का हिस्सा?"*

आजकल का प्यार अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर रह जाता है।



कुछ दिनों बाद, देर रात कॉल पर सिया ने कहा—
*"आरव, मुझे तुमसे कुछ कहना है।"*

*"क्या?"*

*"मेरे घरवाले फिर से शादी का दबाव डाल रहे हैं। और इस बार… शायद मैं उन्हें मना न कर पाऊँ।"*

आरव की साँसें रुक सी गईं।
*"मतलब…?"*

सिया चुप रही। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे, स्क्रीन पर धुंधले दिखाई दे रहे थे।




फोन पर लंबे समय तक खामोशी छाई रही।
आरव चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रहा था।
सिया की आवाज़ काँप रही थी—
*"आरव, प्लीज़ मुझे गलत मत समझना। मैंने जितना हो सका घरवालों को रोका, लेकिन… मम्मी बीमार रहती हैं, पापा का कहना है कि अब मुझे ज़िंदगी की स्थिरता चाहिए।"*

आरव ने धीरे से कहा—
*"और मैं? मैं तुम्हारे लिए क्या हूँ?"*

सिया की आँखें भर आईं।
*"तुम… तुम मेरे दिल के सबसे करीब हो। लेकिन कभी-कभी दिल से ज़्यादा दिमाग को सुनना पड़ता है।"*



उस रात के बाद से दोनों के बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई।
चैट पर वही 'गुड मॉर्निंग' और 'टेक केयर' जैसे औपचारिक शब्द रह गए।
आरव अक्सर उसके ऑनलाइन आने का इंतज़ार करता, लेकिन सिया शायद जानबूझकर कम ऑनलाइन रहने लगी।

आरव सोचता—
*"आजकल का प्यार शायद इसी को कहते हैं—जहाँ लोग दिल से जुड़े रहते हैं, लेकिन हालात उन्हें अलग करने लगते हैं।"*



एक शाम आरव अपने पुराने दोस्त कबीर से मिलने गया।
कबीर ने उसके चेहरे को देखकर ही समझ लिया कि कुछ गड़बड़ है।

*"भाई, तू इतना चुप क्यों है? सब ठीक तो है?"*

आरव ने पूरी कहानी कबीर को सुना दी।
कबीर ने लंबी साँस लेकर कहा—
*"यार, प्यार आज के दौर में आसान नहीं है। हर किसी के पास हज़ार जिम्मेदारियाँ हैं। लेकिन अगर तू सच में सिया से प्यार करता है, तो उसे खोने से पहले लड़ाई लड़नी चाहिए।"*

आरव ने सोचा—
*"शायद कबीर सही कह रहा है। मैं कोशिश तो कर सकता हूँ।"*


अगले ही दिन आरव ने सिया को कॉल किया।
*"सिया, मैं तुमसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ।
क्या तुम मुझसे शादी करना चाहती हो?"*

सिया कुछ पल चुप रही, फिर बोली—
*"आरव, चाहती तो हूँ… लेकिन चाहना और करना दो अलग बातें हैं।"*

*"तो कर लो न! मैं दिल्ली छोड़कर मुंबई आ जाऊँगा। नई नौकरी ढूँढ लूँगा। बस तुम हाँ कह दो।"*

सिया की आँखों से आँसू बह निकले।
*"तुम इतना सब मेरे लिए क्यों करोगे?"*

*"क्योंकि आजकल के इस शोर-शराबे वाली दुनिया में तुम ही तो मेरी सच्चाई हो।"*

सिया ने कुछ नहीं कहा। कॉल कट हो गई।


अगले कई दिन तक सिया का कोई मैसेज नहीं आया।
उसकी प्रोफ़ाइल भी प्राइवेट हो गई।
आरव बेचैन था। हर पल लगता—*“क्या उसने मुझे ब्लॉक कर दिया?”*

वह दिनभर इंस्टाग्राम खोलता, फिर बंद करता।
व्हाट्सऐप पर 'लास्ट सीन' देखता।
आजकल के प्यार की सबसे बड़ी परीक्षा यही है—डिजिटल सन्नाटा।


करीब एक महीने बाद, दिल्ली एयरपोर्ट पर आरव अपने ऑफिस टूर के लिए खड़ा था।
वहीं सामने उसने देखा—सिया।
वो जल्दी-जल्दी गेट की ओर बढ़ रही थी, हाथ में लगेज और आँखों पर धूप का चश्मा।

आरव ने हिम्मत जुटाकर पुकारा—
*"सिया!"*

सिया ठिठक गई। धीरे-धीरे उसने चश्मा उतारा।
उसकी आँखें लाल थीं, जैसे रोते-रोते थक गई हो।

*"आरव… तुम यहाँ?"*

*"हाँ, और तुम?"*

सिया ने गहरी साँस ली—
*"मैं… शादी के लिए लड़के से मिलने जा रही हूँ।"*

आरव के कदम वहीं जम गए।



आरव ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखें सब कह रही थीं।
*"तो… बधाई हो,"* उसने किसी तरह कहा।

सिया की आँखों से आँसू टपक पड़े।
*"मैं मजबूर हूँ आरव। लेकिन एक सच बताऊँ? अगर जिंदगी में कभी किसी से दिल से प्यार किया है, तो वो सिर्फ तुम हो।"*

आरव का गला भर आया।
*"और मैं… शायद हमेशा तुम्हें ही चाहता रहूँगा।"*

इसी बीच फ्लाइट की अनाउंसमेंट हुई।
सिया ने अपना बैग उठाया, आखिरी बार आरव की ओर देखा और गेट के अंदर चली गई।


आरव देर तक उसी जगह खड़ा रहा।
लोग आते-जाते रहे, पर उसकी दुनिया जैसे ठहर गई थी।
उसने सोचा—
*"शायद यही आजकल के प्यार की हकीकत है। लोग दिल से जुड़ते हैं, पर हालात उन्हें जुदा कर देते हैं।"*


एयरपोर्ट की उस मुलाक़ात के बाद आरव की ज़िंदगी जैसे बदल गई।
उसके लिए अब सुबह की चाय, ऑफिस की भाग-दौड़, दोस्तों की बातें—सबकुछ खाली-खाली लगने लगा।

वह अक्सर खुद से सवाल करता—
*"क्या यही प्यार है? या यह सिर्फ एक खूबसूरत याद बनकर रह गया?"*



दिल के दर्द को भूलने के लिए आरव ने खुद को काम में झोंक दिया।
सुबह से देर रात तक लैपटॉप पर कोड लिखना, मीटिंग्स अटेंड करना और रिपोर्ट्स तैयार करना।
लेकिन जितना ज़्यादा वह काम में डूबता, उतना ही सिया की यादें सतातीं।

कभी अचानक नोटिफिकेशन की आवाज़ आती तो लगता—*“शायद सिया का मैसेज है।”*
लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती।


एक दिन हिम्मत करके उसने सिया की प्रोफ़ाइल खोजी।
अब वह प्राइवेट नहीं थी।
उसने देखा—सिया ने अपनी सगाई की तस्वीर डाली थी।
उसकी मुस्कान में खुशी थी, लेकिन आँखों में वही पुराना खालीपन।

आरव देर तक उस तस्वीर को घूरता रहा।
फिर फोन बंद कर दिया।
*"शायद यही आजकल का प्यार है—लोग इंस्टाग्राम पर मुस्कुराते हैं, लेकिन दिल में आँसू छुपा लेते हैं।"*



आरव ने कभी सिया से फिर बात नहीं की।
लेकिन उसके दिल में कई सवाल रह गए—
*"क्या उसने सच में मुझे भुला दिया?
क्या उसने मजबूरी में शादी की हाँ की?
या फिर… मैं ही उसके लिए कभी काफ़ी नहीं था?"*

इन सवालों के जवाब शायद कभी नहीं मिलते।
और शायद यही इस रिश्ते की असली कसक थी।



एक रात कबीर उससे मिलने आया।
*"भाई, तू अभी भी उसी में उलझा हुआ है?"*

आरव ने चुपचाप सिर हिलाया।

कबीर बोला—
*"देख, आजकल के प्यार की यही सच्चाई है। सबकुछ तेज़ी से बदलता है। कल कोई है, आज कोई और। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि तेरा प्यार झूठा था। जो तूने महसूस किया, वो असली था। बस उसका अंत वैसा नहीं हुआ जैसा तू चाहता था।"*

आरव ने गहरी साँस ली।
*"शायद तू सही कह रहा है। लेकिन दिल मानना इतना आसान नहीं है।"*



धीरे-धीरे समय बीतता गया।
आरव ने खुद को सँभालना शुरू किया।
वह जिम जाने लगा, नई किताबें पढ़ने लगा, और कुछ नए दोस्तों से भी मिला।

कभी-कभी ऑफिस की पार्टी में कोई लड़की उससे बात करती, तो वह मुस्कुरा देता।
लेकिन उसके दिल के किसी कोने में अब भी सिया ही बसी थी।



एक शाम जब बारिश हो रही थी, आरव ने खिड़की से बाहर देखते हुए अपने फोन में पुरानी चैट खोली।
वो सारे मैसेज—*“Good night Aarav”, “Take care”, “Miss you”*—फिर से आँखों के सामने तैरने लगे।

उसकी आँखें भर आईं।
*"आजकल का प्यार भी अजीब है…
लोग चले जाते हैं, लेकिन उनकी चैट और तस्वीरें हमेशा ज़िंदा रहती हैं।"*


करीब एक साल बाद, आरव मुंबई ऑफिस के प्रोजेक्ट पर भेजा गया।
वह कॉफी शॉप में बैठा लैपटॉप पर काम कर रहा था कि अचानक सामने से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई—
*"आरव?"*

उसने नज़र उठाई—वो सिया थी।
अब वह शादीशुदा थी, लेकिन चेहरे पर वही पुरानी चमक थी।

कुछ पल दोनों बस एक-दूसरे को देखते रहे।

*"कैसे हो?"* सिया ने पूछा।
*"ठीक हूँ… और तुम?"*
*"ठीक हूँ,"* सिया ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, लेकिन उसकी आँखें फिर वही कहानी कह रही थीं।


दोनों ने कॉफी ऑर्डर की और बातें करने लगे।
सिया ने कहा—
*"ज़िंदगी वैसी नहीं है जैसी मैंने सोची थी।
जिम्मेदारियाँ हैं, घर है, सबकुछ है… लेकिन कहीं न कहीं एक खालीपन भी है।"*

आरव चुपचाप सुनता रहा।
*"और तुम?"* सिया ने पूछा।
आरव ने धीरे से कहा—
*"मैं अभी भी तुझे याद करता हूँ।"*

सिया की आँखों से आँसू छलक पड़े।
*"काश ज़िंदगी हमें थोड़ा और वक्त देती…"*


कॉफी खत्म हुई।
दोनों उठे।
सिया ने कहा—
*"आरव, मुझे अब जाना होगा। लेकिन एक बात याद रखना—चाहे हालात जैसे भी रहे, तू हमेशा मेरी सबसे बड़ी सच्चाई रहेगा।"*

आरव ने उसकी ओर देखा।
*"और तू… मेरी अधूरी मोहब्बत।"*

दोनों ने बिना कुछ और कहे अलविदा कहा।
भीड़भाड़ वाली सड़क पर चलते-चलते दोनों अलग दिशाओं में खो गए।


सिया से मुंबई में हुई उस मुलाक़ात ने आरव की ज़िंदगी फिर से हिला दी।
वह सोच रहा था कि वक्त ने सब घाव भर दिए हैं, लेकिन सिया को देखकर सारे जज़्बात ताज़ा हो गए।

ऑफिस लौटकर भी वह बार-बार उसी कॉफी शॉप का ख्याल करता रहा—जहाँ दोनों ने फिर से एक-दूसरे की आँखों में छिपी नमी देखी थी।


कई दिनों तक दोनों ने एक-दूसरे से कोई संपर्क नहीं किया।
लेकिन उनके दिलों में एक गहरा बोझ था।

आरव ने डायरी में लिखा—
*"आजकल का प्यार अजीब है।
यह हमें जोड़ता भी है और तोड़ता भी।
हमारे पास मोबाइल हैं, सोशल मीडिया है, हर तरह की कनेक्टिविटी है…
लेकिन दिल का फासला कोई तकनीक मिटा नहीं सकती।"*



करीब दो हफ्ते बाद, एक रात अचानक आरव को व्हाट्सऐप पर सिया का मैसेज आया—
*"जाग रहे हो?"*

आरव का दिल धड़कने लगा।
*"हाँ, तुम?"*

*"हाँ… नींद नहीं आ रही। बस सोचा तुमसे बात कर लूँ।"*

उस रात दोनों ने घंटों बातें कीं।
सिया ने स्वीकार किया—
*"आरव, मेरी शादी से मुझे सबकुछ मिला, लेकिन दिल का सुकून नहीं।
पता नहीं क्यों, लेकिन मैं अब भी तुम्हारे बारे में सोचती हूँ।"*

आरव के लिए यह सुनना किसी मरहम जैसा था, लेकिन साथ ही दर्द भी था।



अगले दिन ऑफिस में आरव बार-बार यही सोचता रहा—
*"क्या हमारे बीच अब भी कोई संभावना है?
या यह बस एक अधूरी चाहत है जिसे पूरा करना असंभव है?"*

उसने खुद से सवाल किया—
*"क्या मैं सिया की ज़िंदगी में दखल दे रहा हूँ? या फिर यह प्यार इतना सच्चा है कि हक़दार है एक और मौका मिलने का?"*

आजकल के रिश्तों में यही सबसे बड़ा संघर्ष है—दिल और दिमाग की जंग।



कुछ समय बाद दोनों फिर से मिले—इस बार समुद्र किनारे, जुहू बीच पर।
लहरें किनारे से टकरा रही थीं, जैसे उनके दिलों की बेचैनी को आवाज़ दे रही हों।

सिया ने धीरे से कहा—
*"आरव, काश हम किसी और दौर में मिले होते। शायद तब ज़िंदगी आसान होती।"*

आरव ने उसकी ओर देखा—
*"लेकिन हमने तो अपना दौर खुद ही चुना है… मोबाइल, सोशल मीडिया, करियर, सबकुछ।
शायद यही आजकल का प्यार है—जहाँ लोग एक-दूसरे को पाकर भी खो देते हैं।"*

दोनों लंबे समय तक चुप बैठे रहे।


जब रात गहराने लगी, सिया उठ खड़ी हुई।
*"मुझे अब जाना होगा,"* उसने कहा।

आरव ने पूछा—
*"क्या यह हमारी आखिरी मुलाक़ात है?"*

सिया कुछ पल चुप रही।
फिर बोली—
\*"शायद… या शायद नहीं। ज़िंदगी का पता नहीं, आरव।"

उसने हाथ बढ़ाया। आरव ने थाम लिया।
दोनों की आँखों में आँसू थे, लेकिन होठों पर हल्की मुस्कान भी।



आरव उसे जाते हुए देखता रहा।
भीड़ में उसका चेहरा धीरे-धीरे गायब हो गया, लेकिन उसके दिल में उसकी मौजूदगी और गहरी होती चली गई।

उस रात आरव ने डायरी में लिखा—

*"आजकल का प्यार पूरा भी है और अधूरा भी।
यह हमें जोड़ता है, लेकिन हमें आज़माता भी है।
सिया मेरी ज़िंदगी से गई या नहीं, यह मैं नहीं जानता…
लेकिन इतना तय है कि वह हमेशा मेरी कहानी का हिस्सा रहेगी।
शायद किसी दिन हम फिर मिलेंगे, या शायद नहीं।
लेकिन यही प्यार की खूबसूरती है—इसका कोई अंत नहीं होता।"*




सोमवार, 22 सितंबर 2025

“पंद्रह साल बाद… अधूरी मोहब्बत की नई सुबह”

 “पंद्रह साल बाद… अधूरी मोहब्बत की नई सुबह”



पंद्रह साल बाद मुंबई एयरपोर्ट पर हुई एक मुलाक़ात ने दो पुराने दोस्तों—विनय और नेहा—की अधूरी मोहब्बत को फिर से जगा दिया।
कॉलेज के सुनहरे दिन, प्यार का इज़हार, जुदाई का दर्द और ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाई… यह मर्मस्पर्शी हिंदी प्रेमकथा दिल को छू लेती है।

यह कहानी सिर्फ़ रोमांस नहीं, बल्कि रिश्तों की गहराई, विश्वास और दूसरे मौके की ताक़त को भी दर्शाती है।
पढ़िए “पंद्रह साल बाद… अधूरी मोहब्बत की नई सुबह” और महसूस कीजिए प्यार, दर्द और उम्मीद से भरी यह दिल छू लेने वाली दास्तान।


रात के साढ़े दस बज रहे थे
मुंबई एयरपोर्ट का पैसेंजर लाउंज यात्रियों की भीड़, अनाउंसमेंट्स और भागते-दौड़ते कदमों से गूंज रहा था। सफ़ेद रोशनी में चमकती काँच की दीवारें और एयरकंडीशन की ठंडी हवा उस भीड़-भाड़ को भी सहज बनाने की कोशिश कर रही थीं।

विनय अपनी दिल्ली जाने वाली फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था। उसके हाथ में बोर्डिंग पास था और सामने रखी कॉफी टेबल पर उसने अपनी पुरानी डायरी खोल रखी थी। आदत से मजबूर, वह हर सफ़र के पहले कुछ पंक्तियाँ लिख लिया करता था—जैसे अपने मन को हल्का करने का कोई तरीका हो।

तभी अचानक लाउडस्पीकर से अनाउंसमेंट हुआ—
“Attention Please… Due to bad weather conditions, flight no. 305 to Delhi has been cancelled.”

यह सुनकर विनय चौंक गया।
उसने सोचा शायद उसने ग़लत सुना हो। जल्दी से उठकर वह Enquiry Counter की ओर बढ़ा ताकि पुष्टि कर सके।

वह अभी काउंटर तक पहुँचा भी नहीं था कि सामने से कोई महिला तेज़ी से दौड़ती हुई आती दिखी। उसकी चाल, उसकी घबराहट, सब कुछ विनय को कुछ जाना-पहचाना सा लगा। जैसे कोई बहुत पुराना चेहरा अचानक भीड़ में नज़र आ गया हो।

वह पास आई तो चेहरा साफ़ दिखा।
विनय की सांसें थम गईं।

“नेहा…” उसके होंठों से अनायास ही निकला।

महिला रुक गई।
उसने हैरानी से विनय की तरफ़ देखा। अगले ही पल उसकी आँखों में पहचान की चमक कौंधी।

“विनय…? अरे तुम??”

पंद्रह साल बाद, भीड़-भरे एयरपोर्ट के बीच ये दो पुराने चेहरे आमने-सामने खड़े थे। वक्त जैसे थम गया।

कुछ पल दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। चेहरों की झुर्रियाँ, आंखों की थकान, और होंठों पर हल्की मुस्कान—सब कुछ उन पंद्रह सालों की दूरी बयां कर रहे थे।

विनय ने धीरे से कहा—
“यक़ीन नहीं होता, सचमुच तुम हो नेहा? इतने सालों बाद…”

नेहा ने हल्की हंसी के साथ जवाब दिया—
“हाँ, मैं ही हूँ। और सोचो, हम दोनों एक ही वक़्त पर एक ही फ्लाइट के लिए… कितना अजीब संयोग है।”

दोनों पास के एक खाली सोफ़े पर बैठ गए। बाहर रनवे पर खड़े जहाज़ों की लाइटें टिमटिमा रही थीं, लेकिन दोनों के लिए उस वक़्त पूरी दुनिया बस एक-दूसरे के चेहरे में सिमट आई थी।

विनय ने धीरे से पूछा—
“तुम कैसी हो नेहा? ज़िन्दगी कैसी चल रही है?”

नेहा ने गहरी सांस ली।
“अभी सब बताऊँगी… लेकिन पहले तुम सुनाओ। इतने सालों बाद मिल रहे हैं। मुझे तो लग रहा है जैसे हम वापस कॉलेज के दिनों में पहुँच गए हैं।”

विनय मुस्कुराया।
उसकी आँखों में पुराने दिनों की चमक लौट आई।

और फिर, जैसे ही दोनों ने एक-दूसरे को गौर से देखना शुरू किया, उनका मन पंद्रह साल पीछे चला गया—दिल्ली, श्रीराम कॉलेज के सुनहरे दिनों की ओर।

विनय और नेहा दोनों की आंखें जैसे किसी अदृश्य परदे से ढँक गई थीं। एयरपोर्ट की आवाज़ें धीरे-धीरे धुंधली हो गईं और दिमाग़ में एक पुराना दृश्य उभरने लगा—


दिल्ली का श्रीराम कॉलेज
हरी-भरी कैंपस, चहल-पहल से भरी गलियां और हर ओर नए छात्रों की उत्सुकता।
विनय उसी भीड़ में खड़ा था, हाथ में एडमिशन की फाइल लिए।

तभी अचानक तेज़ हवा के झोंके से किसी की फाइल के सारे पन्ने उड़कर चारों ओर बिखर गए।
विनय तुरंत झुककर कागज़ समेटने लगा।
जैसे ही उसने ऊपर देखा, सामने खड़ी थी—नेहा

उसकी आँखों में घबराहट और होंठों पर हल्की मुस्कान।
“थैंक यू… अगर तुम न होते तो मेरे सारे पेपर उड़ जाते।”
विनय ने सिर हिलाया,
“कोई बात नहीं, वैसे भी कॉलेज का पहला दिन है… सबको मदद चाहिए।”

बस वहीं से दोस्ती की शुरुआत हुई।


अगले कुछ हफ्तों में दोनों कई क्लासेज़ में साथ बैठे।
लाइब्रेरी में बुक्स ढूँढना, नोट्स शेयर करना, और सबसे ज़्यादा मज़ेदार—कैंटीन में समोसे और चाय

नेहा को अदरक वाली चाय बेहद पसंद थी। हर बार वह वेटर को कहती—
“भैया, चाय में अदरक ज़रूर डालना।”
विनय हँसता,
“तुम्हारे बिना शायद कैंटीन वाले अदरक रखना ही भूल जाएं।”

धीरे-धीरे दोनों कॉलेज के सबको एक-दूसरे के साथ दिखने लगे।
लोग कहते—
“ये दोनों तो जैसे एक ही टीम हैं।”


ग्रेजुएशन के तीन साल की पढ़ाई में हर प्रोजेक्ट और प्रैक्टिकल दोनों साथ करते।
नेहा बेहद अनुशासित और सीरियस थी, जबकि विनय थोड़ा मस्तमौला।
नेहा अक्सर डाँटती—
“विनय, तुम इतनी लापरवाह क्यों रहते हो? अगर वक़्त पर काम नहीं किया तो मार्क्स कट जाएंगे।”
विनय मुस्कुराकर जवाब देता—
“तुम हो न, मेरे मार्क्स की गारंटी। वैसे भी तुम्हारी प्लानिंग के बिना मैं आधा भी काम नहीं कर पाता।”

यह तकरार ही उनकी दोस्ती की जान बन गई थी।


कॉलेज का कल्चरल फेस्ट—रंगमंच, नाटक, नृत्य और गाने
विनय और नेहा हमेशा साथ भाग लेते।
एक बार दोनों ने मिलकर डुएट सॉन्ग गाया। जब पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठा, नेहा की आँखें चमक उठीं।
विनय ने वहीं मन-ही-मन महसूस किया—उसकी खुशी ही मेरी खुशी है।


तीसरे साल में पहुँचते-पहुँचते, विनय का दिल धीरे-धीरे नेहा के लिए कुछ और महसूस करने लगा।
वह हर बात में उसे ढूँढने लगा—क्लास में, लाइब्रेरी में, यहाँ तक कि खाली गलियारों में भी।
नेहा को शायद अंदाज़ा था, लेकिन उसने कभी कुछ नहीं कहा।

एक दिन कैंटीन में बैठे-बैठे दोनों अपने भविष्य के बारे में बातें कर रहे थे।
विनय बोला—
“मेरा सपना है कि ग्रेजुएशन के बाद MBA करूँ, किसी बड़ी कंपनी में जॉब लूँ।”
नेहा ने जवाब दिया—
“और मैं चाहती हूँ पोस्ट-ग्रेजुएशन करूँ और फिर प्रोफ़ेसर बनूँ। मुझे हमेशा से पढ़ाना अच्छा लगता है।”

दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा।
उनमें एक अजीब सा सुकून था—जैसे ये सपने अकेले के नहीं, दोनों के हों।


साल का आखिरी क्लास ।

एग्ज़ाम्स में अब सिर्फ़ दस दिन बाकी थे।
कॉलेज कैंटीन में शोर-शराबे के बीच, विनय ने हिम्मत जुटाई।

उसने धीरे से कहा—
“नेहा… मुझे तुमसे कुछ कहना है।”
नेहा ने किताब बंद की और मुस्कुराई—
“क्या?”

विनय की आवाज़ काँप रही थी।
“मैं… मैं तुम्हें पसंद करता हूँ। सिर्फ़ दोस्त की तरह नहीं, उससे भी ज्यादा।”

नेहा कुछ पल चुप रही। उसकी आँखों में नमी और होंठों पर हल्की मुस्कान थी।
फिर धीरे से बोली—
“विनय, मुझे भी तुम अच्छे लगते हो… बहुत।”

उस दिन दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामकर वादा किया—
एग्ज़ाम के बाद, हम अपने रिश्ते को आगे बढ़ाएँगे।


एग्ज़ाम ख़त्म होते ही, नेहा ने विनय को अपने घर बुलाया।
माता-पिता से मिलवाया।
पिता ने पूछा—
“विनय, तुम्हारी आगे की योजना क्या है?”
विनय ने ईमानदारी से कहा—
“मैं MBA करना चाहता हूँ, सर।”

नेहा के पिता ने गंभीर स्वर में कहा—
“अच्छा है। पहले करियर बनाओ, फिर शादी की बात करेंगे।”

विनय और नेहा दोनों ने सिर हिलाया।
उनके दिल में एक विश्वास था—ये रिश्ता टिकेगा।

लेकिन ज़िन्दगी हमेशा वैसे नहीं चलती जैसे हम सोचते हैं।
समय की रफ़्तार तेज़ होती है, और सपनों की राहें कई बार अलग-अलग।

एग्ज़ाम ख़त्म हो चुके थे।
कॉलेज की कैंटीन, लाइब्रेरी, क्लासरूम—हर जगह अब खालीपन था।
तीन साल की यादें मानो दीवारों पर उभर आई थीं।

विनय और नेहा कैंपस में घूमते हुए आख़िरी बार सब कुछ देख रहे थे।
लाइब्रेरी के उस कोने को, जहाँ दोनों देर रात तक पढ़ाई किया करते थे।
कैंटीन की उस खिड़की को, जहाँ से बरसात देखते हुए अदरक वाली चाय पी थी।
और वो ऑडिटोरियम, जहाँ दोनों ने मिलकर डुएट गाया था।

नेहा बोली—
“विनय, सोचो, अब हम रोज़ यहाँ नहीं आएँगे। सब खत्म हो गया।”
विनय ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा—
“कुछ भी खत्म नहीं हुआ, नेहा। ये तो बस शुरुआत है। हमारी कहानी अभी लंबी है।”

लेकिन दोनों के दिल में पता था कि अब राहें अलग होने वाली हैं।


कुछ ही दिनों बाद विनय मुंबई चला गया।
उसने वहाँ की एक नामी यूनिवर्सिटी में MBA का एडमिशन लिया।
नई जगह, नए दोस्त, नया माहौल।

नेहा दिल्ली में ही रुकी। उसने पोस्ट-ग्रेजुएशन शुरू कर दिया।
उसका सपना था प्रोफ़ेसर बनने का, और वह उसी दिशा में बढ़ रही थी।

शुरू-शुरू में दोनों की खूब बातें होती थीं।
लंबे-लंबे फोन कॉल्स, देर रात तक चैटिंग, और हर छोटी-बड़ी बात शेयर करना।
विनय अक्सर कहता—
“बस दो साल, नेहा। MBA पूरा होते ही मैं तुम्हारे पापा से शादी की बात करने आऊँगा।”

नेहा मुस्कुराकर जवाब देती—
“मैं इंतज़ार करूँगी, विनय।”


लेकिन वक्त के साथ सब बदलने लगा।
MBA का कोर्स बेहद कठिन था।
केस स्टडीज़, प्रेज़ेंटेशन्स, प्रोजेक्ट्स—विनय दिन-रात इन्हीं में उलझा रहता।
वहीं नेहा भी अपनी पढ़ाई, रिसर्च पेपर्स और कॉलेज की ज़िम्मेदारियों में व्यस्त हो गई।

अब फोन कॉल्स कम हो गए।
चैटिंग में भी सिर्फ़ छोटे-छोटे मैसेज रह गए—
“कैसी हो?”
“ठीक हूँ, तुम?”

वो गहराई, वो लंबी बातें धीरे-धीरे गायब होने लगीं।
दोनों महसूस तो करते थे, पर कुछ कह नहीं पाते थे।


विनय का MBA अब अंतिम सेमेस्टर में पहुँच गया था।
वह भविष्य के सपनों में खोया था—जॉब, करियर, और नेहा के साथ शादी।

तभी एक दिन उसके फ़ोन पर व्हाट्सऐप का मैसेज आया।
भेजने वाली—नेहा

संदेश पढ़ते ही विनय की आँखें फटी की फटी रह गईं।
नेहा ने लिखा था—

“विनय, पापा ने मेरी शादी एक और लड़के से तय कर दी है। वह दिल्ली के एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर है। मैं उसे दो साल से जानती हूँ और मुझे लगता है कि मैं उसके साथ ज्यादा खुश रहूँगी।”

विनय के हाथ काँपने लगे।
उसने बार-बार मैसेज पढ़ा, उम्मीद की शायद ये मज़ाक हो।
लेकिन कुछ ही दिनों बाद, व्हाट्सऐप पर एक और मैसेज आया—
नेहा और संजय की शादी का कार्ड।


विनय का दिल चकनाचूर हो गया।
जिस लड़की के साथ उसने भविष्य के सारे सपने सजाए थे, वो अचानक किसी और की दुल्हन बनने जा रही थी।

उसने खुद को संभालते हुए सिर्फ़ इतना जवाब लिखा—
“नेहा, तुम्हें शादी की ढेरों शुभकामनाएँ। भगवान तुम्हें हमेशा खुश रखे।”

लेकिन अंदर से वह पूरी तरह टूट चुका था।

दिल्ली में शहनाई गूँज रही थी।
लाल जोड़े में सजी नेहा मंच पर बैठी थी। उसके चेहरे पर मुस्कान थी, पर आँखों में कहीं न कहीं एक अजीब सी उदासी भी।
सामने संजय बैठा था—लंबा, पढ़ा-लिखा, कॉलेज में प्रोफ़ेसर।
पर नेहा के दिल में सवाल था—क्या यही वो इंसान है जिसके साथ मैं सचमुच खुश रह पाऊँगी?

विनय शादी में नहीं आया।
हालाँकि उसे न्यौता मिला था, कार्ड पर उसका नाम भी था, लेकिन वह जानता था कि वहाँ जाकर उसका दिल और टूटेगा।
उसने खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया और सारी रात शराब के गिलास के साथ गुज़ारी।


शादी के बाद भी कभी-कभी नेहा के मैसेज विनय तक पहुँचते थे—
छोटी-मोटी बातें, हालचाल पूछना।
लेकिन विनय हर बार अंदर से बिखर जाता।

आख़िरकार उसने फैसला किया।
उसने अपना मोबाइल नंबर बदल दिया, ताकि नेहा से पूरी तरह दूर हो सके।
उसके दिल में एक ही बात घर कर गई—
“अब मैं कभी शादी नहीं करूँगा।”

MBA पूरा होने के बाद विनय को मुंबई में ही एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई।
उसका करियर सँवरने लगा, लेकिन दिल का खालीपन वही रहा।

दूसरी तरफ़, नेहा शादी के बाद अपने नए जीवन में व्यस्त हो गई।
उसके और विनय के बीच की सारी बातें, सारे वादे अब अतीत की धुंध में खो गए।


मुंबई की नई नौकरी, बड़ी कंपनी, शानदार ऑफिस—सब कुछ था।
सहकर्मी कहते—
“विनय, तुम्हारे पास तो सब कुछ है। बढ़िया करियर, अच्छा पैसा, बड़ा फ्लैट। और क्या चाहिए?”

लेकिन विनय हर बार मुस्कुराकर जवाब देता—
“हाँ, सब कुछ है…”
फिर रात को अपने खाली फ्लैट में लौटकर महसूस करता कि उसके पास कुछ भी नहीं है।

दीवारों पर सन्नाटा था।
डाइनिंग टेबल पर सिर्फ़ एक प्लेट रखी होती।
बिस्तर पर सिर्फ़ एक तकिया।

विनय की डायरी अब उसकी सबसे बड़ी दोस्त बन गई थी।
हर रात वह उसमें लिखता—
“नेहा, काश तुम होतीं।”


शादी के शुरुआती दिन ठीक-ठाक थे।
संजय अच्छा इंसान लगा, पढ़ा-लिखा, समझदार।
लेकिन वक्त बीतते ही उसकी असली तस्वीर सामने आने लगी।

संजय बहुत गुस्सैल था।
छोटी-छोटी बातों पर झगड़ता, और कई बार तो हाथ भी उठा देता।
नेहा ने शुरू में समझाने की कोशिश की—
“संजय, शादी प्यार और भरोसे से चलती है। तुम ऐसे क्यों करते हो?”
लेकिन संजय की आदतें नहीं बदलीं।

इसी बीच नेहा को एक बेटी हुई।
उस बच्ची की हँसी में नेहा को थोड़ी राहत मिलती, लेकिन संजय का क्रोध और बेरुख़ी कम नहीं हुई।

दस साल तक नेहा ने सब सहा।
लेकिन एक दिन उसने तय कर लिया—अब और नहीं।


आख़िरकार, कोर्टरूम में नेहा और संजय आमने-सामने खड़े थे।
कागज़ों पर दस्तख़त होते ही रिश्ता खत्म हो गया।

नेहा ने अपने छोटे से सामान के साथ मायके लौटने का फैसला किया।
अब वह दिल्ली में अपनी माँ और पाँच साल की बेटी के साथ रहती थी।
पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे थे।
नेहा अक्सर रात को सोचती—
“शायद पापा होते तो मेरा फैसला आसान होता। लेकिन अब मुझे ही अपनी बेटी के लिए मजबूत बनना होगा।”


मुंबई में विनय का करियर बुलंदियों पर था।
पदोन्नति पर पदोन्नति, मोटी सैलरी, विदेश यात्राएँ।
लेकिन उसके दिल में हमेशा खालीपन था।

लोग पूछते—
“विनय, अब शादी कर लो। उम्र निकल रही है।”
वह हर बार एक ही जवाब देता—
“शादी? नहीं… मैंने फैसला कर लिया है। अब मैं कभी शादी नहीं करूँगा।”

उसकी यह ज़िद किसी को समझ नहीं आती।
पर वह जानता था—जिसे चाहता था, वो अब उसकी नहीं है। और उसके जैसा कोई और है ही नहीं।


विनय और नेहा दोनों ने अपनी-अपनी दुनिया में समझौता कर लिया।
नेहा अपनी बेटी में खुशियाँ ढूँढती रही।
विनय अपने काम में डूबा रहा।

दोनों की ज़िन्दगियाँ अलग-अलग पटरी पर दौड़ रही थीं।
लेकिन दोनों के दिलों में कहीं न कहीं एक कोना अब भी खाली था—
एक-दूसरे के नाम का।


मुंबई एयरपोर्ट पर बैठा विनय अब भी हैरानी से नेहा को देख रहा था।
उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत तो थी, लेकिन उसमें ज़िन्दगी की थकान साफ़ झलक रही थी।
नेहा की आँखों के नीचे हल्के काले घेरे, माथे पर हल्की लकीरें—ये सब बता रहे थे कि उसने जीवन में बहुत कुछ सहा है।

विनय ने धीरे से कहा—
“नेहा… सच कहूँ तो मैंने कभी सोचा नहीं था कि हम दोबारा मिलेंगे। वो भी इस तरह।”
नेहा ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—
“हाँ, मैंने भी नहीं। लगता है किस्मत का खेल है।”


दोनों पास के सोफ़े पर बैठ गए।
बाहर बारिश की बूँदें एयरपोर्ट की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से टकरा रही थीं।
भीड़-भाड़ के बीच भी दोनों को ऐसा लग रहा था जैसे समय रुक गया हो।

नेहा ने कहा—
“मैं कॉलेज की तरफ़ से एक कॉन्फ़्रेंस में आई थी। अब वापसी की फ्लाइट पकड़नी थी, लेकिन वो कैंसिल हो गई। और देखो, उसी फ्लाइट से तुम भी जा रहे थे।”

विनय ने हँसते हुए कहा—
“कभी-कभी लगता है ऊपर वाला हमें मिलाने के लिए ही सारी फ्लाइट्स बिगाड़ देता है।”

दोनों हँसे, लेकिन उस हँसी में छिपा दर्द एक-दूसरे से छुपा नहीं था।


कुछ देर बाद विनय ने झिझकते हुए कहा—
“नेहा, मेरे पास एक सुझाव है। मैं यहीं मुंबई में रहता हूँ। मेरा फ्लैट पास ही है। अगर चाहो तो आज रात वहीं चलें। कल सुबह फिर से फ्लाइट ले लेंगे। होटल की झंझट से बच जाओगी।”

नेहा कुछ पल चुप रही।
उसके मन में असहजता थी—पंद्रह साल बाद, सीधे उसके घर?
लेकिन विनय की आँखों में उसे वही पुराना भरोसा दिखा।

नेहा ने धीरे से सिर हिलाया—
“ठीक है, लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि मुझे तुम पर भरोसा है।”


दोनों ने टैक्सी ली।
शहर की रोशनी, ट्रैफिक का शोर, और बारिश से भीगी सड़कों के बीच टैक्सी दौड़ रही थी।

विनय ने धीरे से पूछा—
“नेहा, तुम्हारी फैमिली कैसी है? तुम्हारे पति… सब ठीक है न?”

नेहा ने गहरी सांस ली।
उसकी आँखें झुक गईं।
“शुरुआत में सब ठीक था, विनय। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल गया। संजय और मेरे बीच दूरियाँ बढ़ती गईं। कई बार तो उसने मुझ पर हाथ भी उठाया। आखिरकार, चार साल पहले हमारा तलाक हो गया। अब मैं अपनी पाँच साल की बेटी के साथ दिल्ली में माँ के पास रहती हूँ।”

विनय सन्न रह गया।
उसने सोचा, किस्मत ने नेहा के साथ इतना कठोर क्यों किया?
धीरे से बोला—
“मुझे अफ़सोस है, नेहा। तुमने ये सब अकेले झेला।”

नेहा ने उसकी ओर देखा।
“और तुम? तुम्हारी शादी नहीं हुई?”

विनय हल्की हँसी हँस पड़ा।
“नहीं। मैंने तो निश्चय कर लिया था कि अब शादी नहीं करूँगा। सच कहूँ तो… तुम्हारे बाद मुझे कोई और मिला ही नहीं।”

नेहा की आँखें भर आईं।
टैक्सी के शीशे पर गिरती बारिश की बूँदें जैसे उसके आँसुओं को छुपा रही थीं।


कुछ देर बाद टैक्सी एक सोसाइटी के सामने रुकी।
विनय का फ्लैट साफ-सुथरा और बेहद व्यवस्थित था।
नेहा ने हैरानी से कहा—
“ये सचमुच तुम्हारा घर है? बिना किसी औरत के हाथों के इतना सजा-संवरा हुआ?”

विनय मुस्कुराया—
“हाँ, शायद मैंने रहना सीख लिया है। लेकिन सच्चाई ये है कि घर चाहे कितना भी सुंदर हो, अकेले रहने पर वो सिर्फ़ चार दीवारें ही लगता है।”

नेहा चुप हो गई।
उसे याद आया, कॉलेज के दिनों में विनय का कमरा हमेशा बिखरा हुआ रहता था।
आज का ये बदलाव उसे और भी भावुक कर गया।


विनय किचन में चला गया और बोला—
“तुम्हें तो अदरक वाली चाय बहुत पसंद है न? अभी बनाता हूँ।”

नेहा किचन तक आई।
उसकी आँखों में आँसू थे।
“नहीं विनय, आज मैं बनाऊँगी। बहुत दिन हो गए तुम्हारे लिए चाय बनाए।”

उस पल दोनों की आँखों से आंसू बह निकले।
किचन की छोटी सी जगह में खड़े होकर उन्हें लगा जैसे वे फिर से कॉलेज के दिनों में लौट आए हों।


किचन से अदरक वाली चाय की महक पूरे फ्लैट में फैल गई।
नेहा कप लेकर लिविंग रूम में आई और विनय के सामने रखते हुए बोली—
“याद है, कॉलेज कैंटीन में तुम हमेशा कहते थे कि मेरी बनाई चाय का कोई जवाब नहीं।”

विनय ने कप हाथ में लेते हुए मुस्कुराया—
“हाँ, और आज इतने सालों बाद फिर वही स्वाद मिला है। सच कहूँ तो… लगता है मैं फिर से वही पुराना विनय बन गया हूँ।”

दोनों ने एक साथ चाय की चुस्की ली।
चाय के हर घूँट के साथ जैसे उनके बीच की चुप्पियाँ पिघलती चली गईं।


नेहा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
“वो फेस्ट याद है? जब हम दोनों ने डुएट सॉन्ग गाया था और पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूँज उठा था?”
विनय की आँखों में चमक आ गई।
“कैसे भूल सकता हूँ? वो पहला दिन था जब मुझे लगा था कि तुम्हारी खुशी मेरी सबसे बड़ी जीत है।”

दोनों एक-दूसरे को देखते हुए हँस पड़े।
हँसी के बीच उनकी आँखों में आँसू भी थे।


कुछ देर चुप्पी रही।
फिर विनय ने धीरे से कहा—
“नेहा, मैं तुमसे एक सवाल पूछूँ? तुमने मुझे क्यों छोड़ा? जब हमने इतना कुछ सोचा था… तो अचानक सब क्यों बदल गया?”

नेहा की आँखें झुक गईं।
उसकी आवाज़ काँप रही थी।
“विनय, उस वक़्त मैं कमज़ोर पड़ गई थी। पापा की बातों को मैंने अपनी किस्मत मान लिया। मुझे लगा शायद वही सही है। लेकिन… ये मेरी सबसे बड़ी भूल थी। और उसकी सज़ा मुझे मिल चुकी है।”

विनय ने गहरी सांस ली।
“मैंने भी कोशिश की थी तुम्हें भुलाने की, लेकिन कभी नहीं कर पाया। मैंने तो तय कर लिया था कि अब शादी नहीं करूँगा।”

नेहा ने उसकी ओर देखते हुए कहा—
“और मैंने सोचा था कि शायद तुम्हें भूल जाऊँगी… लेकिन सच तो ये है कि आज भी जब अकेली होती हूँ, तो तुम्हारी यादें ही साथ देती हैं।”


रात गहराती गई।
दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया।
कभी हँसते, कभी रोते, कभी खामोश हो जाते।

विनय बोला—
“तुम्हें पता है, मैंने कई बार सोचा कि तुमसे फिर मिलूँ। लेकिन डर लगता था कि कहीं तुम मुझे पहचानो ही न, या फिर कहो कि अब हमारी कहानी खत्म हो चुकी है।”

नेहा ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“विनय, हमारी कहानी कभी खत्म नहीं हुई। बस बीच में रुक गई थी।”

उस पल दोनों की आँखों से आँसू बह निकले।
लेकिन उन आँसुओं में ग़म से ज्यादा राहत थी—जैसे दिल का बोझ हल्का हो रहा हो।


घड़ी ने दो बजाए।
बाहर बारिश रुक चुकी थी, लेकिन दोनों की बातें रुकने का नाम नहीं ले रही थीं।

नेहा ने कहा—
“काश ये रात कभी खत्म न हो।”
विनय ने धीमे स्वर में जवाब दिया—
“हाँ, काश…”

सोफ़े पर बैठकर दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामे कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक की अधूरी दास्तान सुनी और सुनाई।
पूरी रात गुज़र गई—ना नींद आई, ना थकान महसूस हुई।

उनके लिए ये रात किसी नई सुबह की तरह थी।


रात लगभग ढल चुकी थी। खिड़की के बाहर हल्की-सी भोर की रौशनी दिखने लगी थी।
नेहा खामोश बैठी थी, उसकी उंगलियाँ कप के किनारे पर बार-बार घूम रही थीं।
विनय ने देखा, उसके चेहरे पर मुस्कान तो है, लेकिन आँखों के पीछे एक गहरा दर्द भी छिपा हुआ है।

विनय ने धीरे से कहा—
“नेहा… तुम सच बताओ। तुम खुश हो? तुम्हारी ज़िन्दगी ठीक है?”

नेहा ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखें अचानक भर आईं।
“खुश? हाँ, लोग यही मानते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि मेरी ज़िन्दगी… टूट चुकी है, विनय।”


नेहा ने काँपती आवाज़ में कहना शुरू किया—
“शादी के बाद शुरू में सब अच्छा था। मैंने सोचा था शायद पापा सही थे… लेकिन धीरे-धीरे हालात बदलते गए।
संजय… गुस्सैल इंसान था। छोटी-छोटी बातों पर चिल्लाना, अपमान करना, और कई बार हाथ भी उठाना… सब आम हो गया था।”

विनय की आँखों में हैरानी और गुस्सा दोनों थे।
“उसने तुम्हें मारा?”

नेहा ने सिर झुका लिया।
“हाँ… और मैं हर बार सोचती थी कि शायद अगली बार नहीं होगा। लेकिन हुआ… बार-बार हुआ।
फिर मेरी बेटी आई। मुझे लगा बच्ची आने से सब बदल जाएगा। पर कुछ भी नहीं बदला।
चार साल पहले मैंने हिम्मत की और तलाक ले लिया। अब मैं अपनी बेटी के साथ माँ के घर रहती हूँ।”

उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े।
विनय ने चुपचाप उसकी ओर रुमाल बढ़ा दिया।


कुछ देर चुप्पी रही।
फिर नेहा ने पूछा—
“और तुम, विनय? तुमने शादी क्यों नहीं की? ज़िन्दगी अकेले कैसे काटी?”

विनय ने गहरी साँस ली।
“मैंने कोशिश की थी, नेहा। लेकिन हर जगह मुझे तुम्हारा चेहरा नज़र आता था।
मैंने खुद को समझाया कि आगे बढ़ो, पर नहीं बढ़ पाया।
कई बार घर वालों ने दबाव डाला, लेकिन मैंने साफ़ कह दिया—शादी नहीं करनी।”

उसकी आवाज़ भारी हो गई।
“सच कहूँ, नेहा… तुम्हारे बाद मैंने कभी किसी और को अपना माना ही नहीं। अकेलापन तो था, लेकिन तुम्हारी यादें मेरे साथ थीं। और शायद इसी वजह से मैं जीता रहा।”


नेहा उसकी बातें सुनते हुए फूट-फूटकर रो पड़ी।
विनय ने उसका हाथ पकड़ लिया।
दोनों कुछ देर तक कुछ बोले ही नहीं। बस चुपचाप एक-दूसरे के करीब बैठे रहे।

उस खामोशी में भी बहुत कुछ था—
पछतावा, दर्द, मोहब्बत, और वो सुकून… जो सिर्फ पुराने और सच्चे रिश्तों में मिलता है।


बाहर सूरज निकल चुका था।

नेहा ने धीरे से कहा—
“विनय, कभी-कभी सोचती हूँ… अगर उस दिन मैंने तुम्हारा हाथ नहीं छोड़ा होता, तो शायद मेरी ज़िन्दगी बिल्कुल अलग होती।”

विनय ने उसकी ओर देखा और बोला—
“हो सकता है। लेकिन अब भी देर नहीं हुई है, नेहा। ज़िन्दगी हमें फिर से एक मौका दे रही है।”

नेहा ने उसकी आँखों में देखा।
उस पल उसे लगा जैसे 15 साल का फासला मिट गया हो।

सुबह की धूप खिड़की से अंदर आ रही थी।
नेहा चुपचाप खड़ी बाहर आसमान की ओर देख रही थी।
विनय सोफ़े पर बैठा उसे देख रहा था। इतने सालों बाद भी उसे लगता था कि नेहा वैसी ही है—सिर्फ चेहरे पर थोड़ी थकान और आँखों में छिपे दुख ने फर्क डाला था।

विनय के दिल में हलचल थी।
वो चाहता था कि आज सब कह दे, जो इतने सालों से दबा रखा था।


विनय उठकर नेहा के पास आया और धीमे स्वर में बोला—
“नेहा, मैं अब और चुप नहीं रह सकता।
मैंने तुम्हें हमेशा चाहा है। कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक… और सच तो ये है कि मैंने तुम्हारे अलावा कभी किसी और के बारे में सोचा ही नहीं।”

नेहा की साँसें तेज़ हो गईं।
उसने काँपते होंठों से कहा—
“विनय… मैं भी तुम्हें कभी भूल नहीं पाई। लेकिन मैं डरती हूँ… मैं एक तलाकशुदा औरत हूँ, एक बच्ची की माँ हूँ। क्या तुम सच में मुझे वैसे ही अपनाओगे?”


विनय ने दृढ़ता से कहा—
“नेहा, तुम्हारी बेटी मेरी अपनी होगी। और तुम्हारा अतीत? वो तुम्हारी गलती नहीं थी, बल्कि तुम्हारे हालात थे।
मैंने तो हमेशा तुम्हें वैसे ही चाहा है जैसे तुम हो। और आज भी वही चाहता हूँ।”

नेहा की आँखों से आँसू बह निकले।
वो रोते हुए बोली—
“काश मैंने ये पहले समझा होता… तो शायद आज ये हालात न होते। विनय, मैंने बहुत कुछ खोया है… लेकिन अब मैं और खोना नहीं चाहती।”


नेहा ने धीरे से विनय का हाथ पकड़ लिया।
“विनय, अगर तुम सच में मुझे अपनाना चाहते हो… तो मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ—मैं आज तुमसे पहले से भी ज़्यादा प्यार करती हूँ।”

विनय ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
“तो सुन लो, नेहा… मैं भी आज उतना ही नहीं, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा प्यार करता हूँ जितना कॉलेज के दिनों में करता था।”

दोनों के आँसू बह रहे थे।
वो एक-दूसरे के गले लग गए।
जैसे 15 साल का बोझ एक पल में उतर गया हो।


उस आलिंगन में ना कोई सवाल था, ना कोई डर।
सिर्फ भरोसा था—कि अब ज़िन्दगी उन्हें फिर से एक साथ जीने का मौका दे रही है।

बाहर धूप और तेज़ हो चुकी थी।
लेकिन उनके लिए आज की सुबह किसी नये सवेरा से कम नहीं थी।


सुबह का समय था।
नेहा अपना ट्रॉली बैग लेकर दरवाज़े की ओर बढ़ी।
चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन आँखों में भारीपन साफ़ झलक रहा था।

विनय ने बैग उठाकर बाहर तक पहुँचा दिया।
दोनों चुपचाप खड़े रहे—जैसे कुछ कहना चाहते हों लेकिन शब्द साथ न दे रहे हों।

नेहा ने मन ही मन सोचा—
“काश वो मुझे रोक ले…”
और विनय सोच रहा था—
“काश वो खुद कह दे कि मैं रुक जाऊँ…”


नेहा दरवाज़े से बाहर निकली ही थी कि अचानक उसका पाँव फिसल गया।
वो गिरने ही वाली थी कि विनय ने झट से उसे संभाल लिया।
दोनों एक-दूसरे से लिपट गए।

नेहा की आँखों से आँसू छलक पड़े।
विनय की आवाज़ भीग गई—
“नेहा, मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ जितना पहले करता था… बल्कि अब और ज़्यादा।”

नेहा ने सिर उठाकर उसकी आँखों में देखा और कहा—
“और मैं तुमसे पहले से भी ज़्यादा। मैंने जो गलती 15 साल पहले की थी, उसकी सज़ा मुझे मिल चुकी है। अब मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ना चाहती।”


विनय ने नेहा का हाथ थाम लिया।
“तो फिर अब कोई दूरी नहीं। तुम्हारी बेटी मेरी भी बेटी है, नेहा। और तुम… मेरी हमेशा की साथी।”

नेहा सिसकते हुए मुस्कुरा दी।
उसने अपना सिर विनय के कंधे पर रख दिया।
दोनों की आँखों से बहते आँसू इस बार दुख के नहीं, बल्कि सुकून और खुशी के थे।


उस पल उन्हें लगा मानो किस्मत ने 15 साल बाद उनकी अधूरी कहानी को फिर से जोड़ दिया हो।
बाहर सूरज पूरी तरह निकल चुका था।
रोशनी पूरे कमरे में फैल रही थी।

नेहा ने धीरे से कहा—
“विनय, अब हमारी ज़िन्दगी की नई शुरुआत है।”
विनय ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया—
“हाँ, नेहा। अब कोई जुदाई नहीं। बस साथ… हमेशा के लिए।”


उस सुबह दोनों ने तय किया कि अब वे मिलकर जीवन बिताएँगे।
नेहा अपनी बेटी के साथ एक नया घर बसाएगी और विनय, जो इतने सालों से अकेला था, अब उसका और उसकी बेटी का सहारा बनेगा।

यह नई शुरुआत थी—
जहाँ अधूरे सपने पूरे होंगे,
जहाँ अतीत की तकलीफ़ें पीछे छूट जाएँगी,
और जहाँ प्यार एक बार फिर अपनी असली मंज़िल पा लेगा।

सोमवार, 15 सितंबर 2025

रत्नागिरी की मर्मस्पर्शी प्रेमकहानी – सात दिन की मुलाकात एक अधूरी मोहब्बत की कहानी


जीवन में कभी-कभी ऐसी मुलाक़ातें होती हैं, जो पल भर के लिए ही सही, लेकिन दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यह कहानी है अरुण और अनु की – एक ट्रैवल ब्लॉगर और एक फैशन डिज़ाइनर, जिनकी मुलाक़ात रत्नागिरी की खूबसूरत वादियों में हुई। दोनों की यह मुलाक़ात धीरे-धीरे एक भावनात्मक यात्रा में बदल गई, जिसने उन्हें प्यार का नया अहसास कराया।




 यह कहानी है अरुण और अनु की, दो यात्रियों की, जिनकी मुलाक़ात पहाड़ों की यात्रा के दौरान हुई। साथ बिताए सात दिन उनके दिलों में अमर यादें छोड़ गए। समय बीत गया, अरुण अपनी ज़िम्मेदारियों में बंधा रहा और अनु ने अपना जीवन अकेले गुज़ार दिया। 



अरुण एक पचास वर्षीय व्यक्ति था। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर भी उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी और जिज्ञासा ज़िंदा थी। शादी को लगभग पच्चीस साल हो चुके थे। पत्नी, बच्चे, परिवार—सब कुछ था उसके पास। बाहर से देखने पर उसकी ज़िंदगी संतोषजनक और पूरी लगती थी, लेकिन भीतर कहीं न कहीं वह ख़ुद को अधूरा महसूस करता था।

अरुण एक ट्रैवल ब्लॉगर था। देश-विदेश की यात्राएँ करना, वहाँ की संस्कृति को जानना, स्थानीय खान-पान का स्वाद लेना और सबसे बढ़कर वहाँ के लोगों से बातचीत कर उनकी कहानियाँ सुनना—यही उसका जुनून था। परिवार को उसने हमेशा आराम और सुरक्षा दी थी, मगर दिल के किसी कोने में उसे लगता था कि यह यात्राएँ ही उसकी असली साँस हैं।

गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हुईं तो उसने तय किया कि इस बार वह रत्नागिरी जाएगा। पश्चिमी घाट की हरी-भरी पहाड़ियाँ, समुद्र का नीला विस्तार और वहाँ की अनूठी संस्कृति हमेशा से उसे आकर्षित करती रही थी।

उसने एक सप्ताह का पूरा कार्यक्रम बनाया।

  • पहले दिन आसपास के प्रमुख दर्शनीय स्थल देखना।

  • दूसरे दिन समुद्र तट और मंदिरों का भ्रमण।

  • तीसरे दिन स्थानीय गाँव और बाज़ार की खोज।

  • चौथे और पाँचवें दिन पहाड़ी इलाक़ों और झरनों की सैर।

  • आख़िरी दो दिन विश्राम और लेखन के लिए।

योजना तय करने के बाद उसने टिकट बुक कराई और तय दिन पर रत्नागिरी पहुँच गया। स्टेशन से बाहर निकलते ही नमकीन हवा के झोंके ने उसका स्वागत किया। समंदर की महक, आसपास की हरियाली और शहर की सादगी ने उसके मन को ताज़गी से भर दिया।

उसने अपने बजट के हिसाब से एक छोटे मगर साफ़-सुथरे होटल में कमरा लिया। कमरे की खिड़की से दूर पहाड़ियाँ दिखाई देती थीं, और नीचे सड़क पर लोग अपनी-अपनी रफ़्तार से ज़िंदगी जीते नज़र आते थे।

पहले दिन उसने होटल में थोड़ा आराम किया और फिर अपने कैमरे और नोटबुक के साथ निकल पड़ा। उसने समुद्र किनारे शाम बिताई, स्थानीय मछुआरों से बातचीत की, और फिर पास के बाज़ार से कुछ स्नैक्स लेकर होटल लौट आया। रात को थकान के बावजूद वह अपने लैपटॉप पर बैठा और दिनभर के अनुभवों को लिखने लगा।

अगली सुबह उसने तय किया था कि वह जल्दी उठकर एक टैक्सी किराए पर लेगा और शहर के प्रमुख स्थलों को देखने निकलेगा।

सूरज की पहली किरणें खिड़की से कमरे में आईं तो रुण उठ बैठा। नहाकर, कपड़े पहनकर और कैमरे को कंधे पर लटकाकर वह सड़क पर आ गया।

सड़क पर सुबह की हल्की ठंडी हवा बह रही थी। लोग अपने-अपने कामों में जुटे हुए थे। अरुण टैक्सी की तलाश में इधर-उधर देखने लगा। तभी उसकी नज़र एक और यात्री पर पड़ी—करीब पैंतीस साल की एक महिला, जो उसके पास आकर खड़ी हो गई थी।

उसके चेहरे पर एक आत्मविश्वास भरी चमक थी। वह अकेली थी, हाथ में एक छोटा बैकपैक और कंधे पर कैमरा लटकाए हुए। अरुण ने सोचा—

"शायद कोई सोलो ट्रैवलर है, मेरी तरह।"

कुछ ही देर में एक टैक्सी वहाँ आकर रुकी। दोनों लगभग एक साथ उसकी ओर बढ़े। टैक्सी ड्राइवर ने मुस्कुराते हुए कहा,
“कहाँ जाना है साहब? मैडम?”

अरुण ने कहा,
“मुझे रत्नागिरी और आसपास के दर्शनीय स्थल देखने हैं। क्या आप पूरा दिन घूमाने का चार्ज बताएँगे?”

तभी वह महिला भी आगे बढ़कर बोली,
“मुझे भी यही पूछना था। मैं कोलकाता से आई हूँ और रत्नागिरी घूमने का प्लान है।”

ड्राइवर ने दोनों को देखा और मुस्कुराते हुए बोला,
“तो फिर क्यों न आप दोनों साथ ही चलिए? एक ही गाड़ी में घूम लीजिए, खर्च भी बाँट जाएगा और सफ़र भी अच्छा कटेगा।”

अरुण ने हल्की-सी झिझक के साथ महिला की ओर देखा। उसने भी मुस्कुराकर हामी भर दी।

ड्राइवर ने गाड़ी चालू की और सफ़र शुरू हुआ।

रास्ते भर अरुण और वह महिला, जिसका नाम बाद में पता चला अनु, अपने-अपने कामों में व्यस्त रहे। अरुण अपने कैमरे से फोटो खींचता रहा, नोट्स बनाता रहा, जबकि अनु अपने मोबाइल से वीडियो शूट कर रही थी। दोनों ने ज़्यादा बातचीत नहीं की।

शाम तक वे कई जगह घूमे, लेकिन दोनों के बीच केवल औपचारिक-सी बातें हुईं—
“ये जगह अच्छी है।”
“हाँ, बहुत सुंदर है।”
“आप कहाँ से हैं?”
“दिल्ली।”
“मैं कोलकाता से।”

इतनी ही बातें।

दिन ढलने लगा। होटल लौटते हुए अरुण ने सोचा

"ये तो बिल्कुल चुप-चुप सी है। अगर यही साथ में घूमेगी तो मैं बोर हो जाऊँगा। कल से मैं दूसरी टैक्सी ले लूँगा।"

उस रात उसने होटल लौटकर डिनर किया और सोने से पहले डायरी में लिखा—
"रत्नागिरी सुंदर है, लेकिन आज का दिन बहुत अकेला गुज़रा। शायद कल मैं किसी और टैक्सी का इंतज़ाम कर लूँ।"

लेकिन उसे यह अंदाज़ा नहीं था कि अगला दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे यादगार दिन बनने वाला है।


सुबह सूरज की हल्की किरणें खिड़की से छनकर अरुण के चेहरे पर पड़ीं। वह नींद से जागा, स्ट्रेच किया और धीरे-धीरे तैयार होने लगा। पिछली रात उसके मन में यही तय था कि वह ड्राइवर से बात करके दूसरी टैक्सी कर लेगा, लेकिन उसने अभी कोई पक्का निर्णय नहीं लिया था।

नाश्ता कर वह फिर सड़क पर पहुँचा। टैक्सी वही थी, वही ड्राइवर, और हाँ—वही महिला भी।

अनु पहले से वहाँ खड़ी थी। इस बार उसने रुण को देखकर हल्की-सी मुस्कान दी। अरुण को कुछ अजीब-सा लगा। कल वह चुप-चुप सी थी, लेकिन आज उसके चेहरे पर अपनापन झलक रहा था।

ड्राइवर ने हँसते हुए कहा—
“साहब, मैडम, लगता है कि आज भी आप दोनों साथ ही घूमेंगे। मेरा तो काम आसान हो जाएगा।”

अरुण कुछ कह पाता उससे पहले अनु ने मुस्कुराकर कहा—
“जी हाँ, क्यों नहीं। कल का दिन तो अच्छा ही रहा।”

अरुण ने हैरानी से उसकी ओर देखा। “अच्छा? मैंने तो सोचा था वह तो बात भी नहीं करना चाहती।”
लेकिन 
अरुण ने कुछ कहा नहीं और बस गाड़ी में बैठ गया।

गाड़ी चली। रास्ते में कुछ देर तक खामोशी रही, फिर अनु ने धीरे से कहा—
“कल शायद मैं थोड़ी थकी हुई थी, इसलिए आपसे ठीक से बात नहीं कर पाई। दरअसल लंबी यात्रा के बाद मन ही नहीं कर रहा था बातचीत का। आज सोच रही हूँ, सफ़र लंबा है तो क्यों न थोड़ा एक-दूसरे को जानें।”

अरुण मुस्कुराया।
“बिल्कुल, यात्रा तभी यादगार बनती है जब हम साथियों को जानें-समझें। वरना तो सब कुछ बस तस्वीरों में सिमटकर रह जाता है।”

अनु ने अपनी आँखों में चमक लिए कहा—
“सही कहा आपने। तो शुरुआत मैं ही करती हूँ। मेरा नाम अनु है। मैं कोलकाता से हूँ। पेशे से फैशन डिज़ाइनर हूँ, लेकिन साथ ही यात्रा करना मेरा जुनून है। जब भी समय मिलता है, मैं बैग उठाती हूँ और किसी नई जगह चल पड़ती हूँ।”

अरुण ने गहरी साँस लेते हुए कहा—
“वाह! यह तो शानदार है। मैं भी कुछ-कुछ ऐसा ही करता हूँ। दरअसल मैं एक ट्रेवल ब्लॉगर हूँ। भारत के कोने-कोने में घूम चुका हूँ। अलग-अलग संस्कृति, खाना, लोग—यही सब मेरे ब्लॉग और चैनल का हिस्सा हैं।”

अनु ने उत्सुकता से कहा—
“ओह, तो आप ब्लॉगर हैं! अच्छा हुआ मैंने कल ही आपसे बातें शुरू नहीं कीं, वरना शायद मेरी ही तस्वीरें आपके कैमरे में भर जातीं।”

दोनों ज़ोर से हँस पड़े। हँसी की इस लहर ने जैसे उनके बीच की सारी झिझक तोड़ दी।

अब गाड़ी में लगातार बातचीत चलने लगी।

अरुण ने पूछा—
“तो अनु जी, आप सोलो ट्रैवल क्यों करती हैं? अकेले सफ़र करना थोड़ा मुश्किल नहीं होता?”

अनु ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा—
“मुश्किल तो होता है, लेकिन यही आज़ादी मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। किसी के बंधन में नहीं, किसी की योजना के हिसाब से नहीं—बस मैं और मेरी यात्रा। हाँ, कभी-कभी अकेलापन महसूस होता है, पर फिर वही अकेलापन मुझे अपने आप से जोड़ देता है।”

अरुण ने धीरे से कहा—
“आपकी बात सुनकर लगता है कि आप ज़िंदगी को गहराई से जीती हैं। मुझे तो अब तक यही लगा था कि यात्रा सिर्फ़ घूमने और फोटो खींचने का नाम है, लेकिन आपसे बात करके समझा कि यात्रा आत्मा से भी जुड़ सकती है।”

अनु ने हल्की मुस्कान दी—
“और आपको देखकर लग रहा है कि आप भी ज़िंदगी को बहुत करीब से जीते हैं। आपके कैमरे में सिर्फ़ तस्वीरें नहीं, कहानियाँ भी क़ैद होती होंगी।”

अरुण थोड़ा भावुक हो गया। सच तो यही था कि उसने अब तक अपनी यात्राओं में कई कहानियाँ सुनीं और लिखीं, लेकिन अपनी कहानी किसी से साझा करने का मौका नहीं मिला।

दिन भर वे दोनों अलग-अलग जगह घूमे। कभी मंदिर, कभी समुद्र किनारा, कभी कोई किला। हर जगह अरुण अनु की तस्वीरें खींचता, अनु हरी के वीडियो शूट करती। दोनों एक-दूसरे को सुझाव देते कि कहाँ से फोटो अच्छा आएगा, किस तरह वीडियो में पृष्ठभूमि सुंदर लगेगी।

धीरे-धीरे उनमें सहजता आ रही थी।

दोपहर को जब वे एक छोटे से ढाबे में स्थानीय भोजन करने बैठे, तब अनु ने कहा—
अरुण जी, आप तो बहुत यात्राएँ कर चुके हैं। कभी ऐसा हुआ कि कोई जगह आपके दिल में हमेशा के लिए बस गई हो?”

अरुण ने चुपचाप कुछ पल सोचा और कहा—
“हाँ, हुआ है। कई जगहों ने मुझे छुआ है, लेकिन… सच कहूँ तो कभी-कभी इंसान ही जगह से ज़्यादा याद रह जाते हैं। किसी जगह की असली सुंदरता वहाँ के लोगों में होती है।”

अनु ने सिर हिलाया।
“बिलकुल सही। मुझे भी लगता है कि यादें जगहों से नहीं, लोगों से बनती हैं। शायद यही वजह है कि मैं अब तक अकेली हूँ, लेकिन जब भी सफ़र में कोई अच्छा इंसान मिलता है, तो लगता है यात्रा सफल हुई।”

अरुण ने उसकी आँखों में देखा। कुछ देर के लिए दोनों के बीच मौन छा गया।

शाम होते-होते वे फिर होटल लौट आए। लेकिन इस बार माहौल अलग था। अब दोनों के बीच चुप्पी नहीं थी, बल्कि एक नया अपनापन था।

रात को अरुण ने अपने डायरी में लिखा—

"आज का दिन खास रहा। अनु नाम की यह यात्री न जाने क्यों दिल के बहुत करीब लग रही है। उसकी बातें, उसका आत्मविश्वास और उसकी सादगी… सबकुछ अजीब-सा सुकून देता है। मैं सोच रहा था कि इसे छोड़ दूँगा, पर अब लगता है कि इसी के साथ घूमना ठीक रहेगा। शायद यही यात्रा मुझे यादगार बनने वाली है।"


तीसरा दिन था। सुबह-सुबह मौसम बेहद सुहावना था। रातभर हुई हल्की बारिश से रत्नागिरी की पहाड़ियाँ धुली-धुली लग रही थीं। हवा में मिट्टी और नमक की महक घुली हुई थी।

अरुण हमेशा की तरह तैयार होकर नीचे आया तो देखा कि अनु पहले से टैक्सी में बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह आज कुछ अलग ही लग रही थी—हल्की नीली ड्रेस, खुले बाल और चेहरे पर ताज़गी भरी मुस्कान।

“गुड मॉर्निंग, अरुण जी!” अनु ने हाथ हिलाते हुए कहा।

अरुण ने मुस्कुराकर जवाब दिया—“गुड मॉर्निंग, अनु जी। आज तो आप बिल्कुल… क्या कहूँ… जैसे बादलों के बीच इंद्रधनुष।”

अनु हँस पड़ी—“अरे, आप तो बड़े कवि निकले। मुझे तो लगा था आप सिर्फ़ ब्लॉग लिखते हैं।”
अरुण ने भी हँसते हुए कहा—“कभी-कभी दिल की बातें शब्दों में ढल जाती हैं।”

गाड़ी चल पड़ी। आज उनका प्लान था पास के एक झरने और गाँव को घूमने का। रास्ते भर दोनों लगातार बातें करते रहे। अब वह औपचारिकता नहीं रही थी, बल्कि सहज दोस्ती का भाव आ गया था।

अरुण ने पूछा—“तो अनु जी, आपने शादी क्यों नहीं की? मतलब, आपकी उम्र भी अब…”
अनु ने उसकी बात बीच में काटते हुए कहा—“हाँ हाँ, मुझे पता है, लोग यही सवाल पूछते हैं। दरअसल, मुझे कभी ऐसा साथी ही नहीं मिला जिसके साथ मैं सच में जुड़ सकूँ। सबको लगता था मैं बस घर संभालूँगी, उनके हिसाब से चलूँगी। लेकिन मैं तो अपने सपनों और आज़ादी को छोड़ नहीं सकती थी। और शायद इसी वजह से अब तक अकेली हूँ।”

अरुण ने उसकी बात ध्यान से सुनी। कुछ देर चुप रहा और फिर बोला—
“आपकी बात में सच्चाई है। ज़िंदगी साथी के साथ तभी खूबसूरत होती है जब दोनों एक-दूसरे को समझें, सपनों का सम्मान करें। वरना तो रिश्ते बोझ बन जाते हैं।”

अनु ने गहरी नज़र से उसकी ओर देखा—“और आपकी शादी? आप तो शादीशुदा हैं ना?”

अरुण ने लंबी साँस छोड़ी—“हाँ, हूँ। बीवी अच्छी है, बच्चे अच्छे हैं। लेकिन सच कहूँ तो… मैं कभी पूरी तरह उस रिश्ते में खुद को नहीं ढूँढ पाया। जिम्मेदारियाँ, समाज, परिवार—सबने मिलकर मुझे बाँध दिया। कभी-कभी लगता है जैसे मेरी ज़िंदगी मैंने नहीं, हालात ने तय की।”

अनु उसकी बात सुनकर चुप हो गई। उसकी आँखों में एक गहरी समझ थी। शायद उसने पहली बार किसी को इतना ईमानदार होकर यह कहते सुना था।

झरने के पास पहुँचकर दोनों उतर गए। पानी की कलकल धारा, हरे-भरे पेड़ और पक्षियों की चहचहाहट—सबकुछ जैसे किसी दूसरी दुनिया का हिस्सा था।

अनु पत्थरों पर बैठकर पैर पानी में डुबोए हुई थी। अरुण उसके पास आया और कैमरे से उसकी तस्वीर लेने लगा।

“आपके चेहरे पर जो मासूमियत है न, वही तस्वीर को खास बना देती है।”

अनु मुस्कुराई—“आप तो मुझे मॉडल बना देंगे।”
“क्यों नहीं? आपसे बेहतर मॉडल और कौन हो सकता है?”

धीरे-धीरे बातचीत का सिलसिला गहराता गया। दोनों ने अपने बचपन की कहानियाँ साझा कीं। अरुण ने बताया कि कैसे वह गाँव से निकलकर पढ़ाई करने शहर आया, फिर नौकरी की, फिर शादी हो गई और ज़िम्मेदारियों ने उसे घेर लिया।

अनु ने बताया कि कैसे उसने छोटे शहर से निकलकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष किया, अपने काम से पहचान बनाई, लेकिन अकेलेपन का सामना भी किया।

शाम को वे एक छोटे से गाँव में पहुँचे। वहाँ के लोग बेहद सादगी से रहते थे। अनु को यह सब देखकर बेहद अच्छा लगा। उसने गाँव की औरतों से उनके पहनावे और कढ़ाई के बारे में पूछा। अरुण ने बच्चों से बातें कीं और उनकी तस्वीरें खींचीं।

गाँव के बुज़ुर्ग ने दोनों को अपनी झोपड़ी में चाय पिलाई। अनु ने धीरे से कहा—“अरुण जी, कभी-कभी लगता है असली खुशी यहीं है। ये लोग कितने सादे हैं, लेकिन चेहरे पर सच्ची मुस्कान है।”

अरुण ने सहमति में सिर हिलाया—“हाँ, शायद यही ज़िंदगी है। हम शहर वाले तो दिखावे में उलझकर असली सुख भूल जाते हैं।”

होटल लौटते हुए अनु खामोश थी। अरुण ने पूछा—“क्या सोच रही हैं?”

अनु ने धीरे से कहा—“सोच रही हूँ कि कभी-कभी अजनबी भी कितने अपने से लगने लगते हैं। जैसे आप… दो दिन पहले तक बिल्कुल अजनबी थे, लेकिन अब लगता है कि मैं आपको बरसों से जानती हूँ।”

अरुण ने मुस्कुराकर कहा—“शायद यही यात्रा की खूबसूरती है। रास्ते में मिले लोग ही हमारी यादों का हिस्सा बन जाते हैं।”

उस रात अरुण ने अपनी डायरी में लिखा—

"आज अनु से बहुत बातें हुईं। मैंने अपना मन खोलकर रख दिया और उसने भी। यह अजीब है—कभी-कभी ज़िंदगी में ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे आप सबकुछ कह सकते हैं, जो बिना जज किए सुन लेते हैं। अनु… अब सिर्फ़ एक साथी यात्री नहीं, बल्कि मेरे दिल का हिस्सा बनती जा रही है।"


चौथा दिन था। सूरज की किरणें समंदर से उगते हुए सुनहरी गोले की तरह चमक रही थीं। रत्नागिरी की पहाड़ियों पर फैली हल्की धुंध अब धीरे-धीरे छंट रही थी। मौसम में एक अजीब-सी नमी थी जो दिल को रोमांचित कर रही थी।

अरुण सुबह उठकर होटल की छत पर खड़ा था। नीचे सड़क पर लोग अपनी दिनचर्या में लग चुके थे। लेकिन उसके दिल में आज कुछ और ही हलचल थी। पिछली रात अनु से हुई लंबी बातचीत ने उसके मन को अजीब-सी बेचैनी और सुकून दोनों दिया था।

“क्या यह सिर्फ दोस्ती है? या इससे आगे कुछ और?”—अरुण के मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा था।

आज का प्लान पास के पहाड़ी मंदिर और फिर समुद्र किनारे सूर्यास्त देखने का था। टैक्सी आ चुकी थी। अरुण नीचे पहुँचा तो अनु पहले से मौजूद थी। उसने हल्के पीले रंग की साड़ी पहनी थी, बाल खुले हुए थे और चेहरे पर वही सादगी भरी मुस्कान थी।

अरुण ने देखते ही मन ही मन सोचा—
"ये लड़की… क्यों इतनी खास लगने लगी है मुझे? मैं तो इसे बस तीन दिन से जानता हूँ।"

गाड़ी चल पड़ी। रास्ते में दोनों चुप थे, लेकिन यह चुप्पी अब अजीब नहीं लग रही थी। यह चुप्पी एक सहज मौन थी, जिसमें शब्दों से ज़्यादा भावनाएँ बह रही थीं।


पहाड़ी पर बने मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी थीं। दोनों धीरे-धीरे चढ़ रहे थे। हवा ठंडी थी, और चारों ओर हरियाली फैली हुई थी।

अनु अचानक रुक गई, साँस फुल गई थी।
“थोड़ा आराम करें?” उसने कहा।

अरुण ने मुस्कुराकर कहा—“हाँ, बिल्कुल। वैसे भी यात्रा का मज़ा तब है जब हम ठहरकर भी नज़ारे देखें।”

दोनों एक पत्थर पर बैठ गए। नीचे से समुद्र का नीला विस्तार दिखाई दे रहा था। अनु ने अरुण की ओर देखा और कहा—

अरुण जी, आपसे एक बात कहूँ? आपसे बातें करके लगता है कि मैं अकेली नहीं हूँ। इतने सालों में मैंने बहुत सफ़र किया, बहुत लोग मिले, लेकिन किसी से इतनी सहजता नहीं हुई।”

अरुण ने उसकी आँखों में देखा। उन आँखों में सच्चाई और अपनापन था। उसने धीरे से कहा—
“शायद इसलिए क्योंकि हम दोनों ही अपने भीतर कहीं अकेले हैं। और जब दो अकेलेपन मिलते हैं तो दोस्ती बनती है… या शायद उससे भी कुछ ज़्यादा।”

अनु कुछ पल तक चुप रही। फिर हल्की-सी मुस्कान दी।
“आप तो बहुत दार्शनिक बातें करते हैं।”

मंदिर पहुँचकर दोनों ने शांत वातावरण में पूजा की। घंटियों की आवाज़, मंत्रों की गूँज और धूप की महक ने वातावरण को पवित्र बना दिया। अनु ने आँखें बंद करके हाथ जोड़े। अरुण उसकी ओर देखता रहा। उसके चेहरे पर एक ऐसी मासूम आस्था थी कि अरुण का मन भर आया।

मंदिर से बाहर निकलते समय अनु ने कहा—
“काश, यह यात्रा कभी ख़त्म न हो।”

अरुण ने मन ही मन सोचा—
"काश सच में ऐसा हो पाता।"


शाम को दोनों समुद्र किनारे पहुँचे। सूरज डूब रहा था। आसमान नारंगी और लाल रंगों से भर गया था। लहरें किनारे से टकरा रही थीं।

दोनों रेत पर बैठ गए। कुछ देर तक बस लहरों की आवाज़ सुनते रहे।

अरुण ने धीरे से कहा—
“अनु, क्या आपने कभी किसी से प्यार किया है?”

अनु ने उसकी ओर देखा, फिर नज़रें झुका लीं।
“नहीं… मतलब, कॉलेज में कभी किसी पर क्रश हुआ था, लेकिन वह बस मोह था। सच्चा प्यार शायद कभी नहीं मिला। और आप?”

अरुण ने गहरी साँस ली।
“शादी तो हुई, लेकिन… प्यार? शायद नहीं। पत्नी से रिश्ते निभाए, पर दिल की गहराई में जो चाहत होती है, वह कभी नहीं मिली।”

अनु ने उसकी ओर देखा। दोनों की आँखें मिल गईं। कुछ पल के लिए जैसे समय ठहर गया। हवा, लहरें, सूरज—सब गवाह बन गए उस मौन के।

फिर अनु ने धीरे से कहा—
“तो क्या अब…?”

अरुण ने उसकी बात अधूरी ही पकड़ ली।
“अब शायद देर हो चुकी है। मैं शादीशुदा हूँ, जिम्मेदारियाँ हैं। लेकिन दिल… दिल तो उम्र नहीं देखता, हालात नहीं देखता।”

अनु की आँखों में नमी आ गई। उसने धीमे स्वर में कहा—
“आप सच कहते हैं। दिल तो बस धड़कता है। और कभी-कभी उस धड़कन की आवाज़ ही सबसे बड़ी सच्चाई होती है।”

अरुण ने अनायास उसका हाथ पकड़ लिया। अनु ने हाथ नहीं छुड़ाया। दोनों चुपचाप बैठे रहे। लहरें उनके पैरों से टकरा रही थीं, जैसे प्रकृति भी उनकी अनकही भावनाओं को सुन रही हो।


वापसी के रास्ते में दोनों ज्यादा बोले नहीं। लेकिन उनके बीच की खामोशी अब बोझ नहीं थी, बल्कि गहराई से भरी थी।

होटल पहुँचकर विदा लेते समय अनु ने धीमे स्वर में कहा—
अरुण जी, आज का दिन… मेरी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत दिनों में से एक रहेगा।”

अरुण ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा—
“मेरे लिए भी, अनु। मेरे लिए भी।”

उस रात अरुण ने अपनी डायरी में लिखा—

"आज अनु मेरे दिल के और भी करीब आ गई। शायद यह दोस्ती से आगे है। मैं जानता हूँ कि यह रिश्ता समाज के लिए गलत है, लेकिन दिल की दुनिया में कोई नियम नहीं चलते। अनु के साथ रहकर जो सुकून मिलता है, वह मैंने कभी महसूस नहीं किया।"


पाँचवाँ दिन था। अब यात्रा का आधा से अधिक समय बीत चुका था। अरुण और अनु के बीच की दूरी लगभग मिट चुकी थी। जो मौन पहले अजनबीपन का था, वह अब अपनापन बन चुका था। अब उनकी हँसी, बातचीत और साथ चलना-फिरना एक आदत-सा हो गया था।

सुबह टैक्सी में बैठते ही ड्राइवर ने मज़ाक किया—
“लगता है अब आप दोनों दोस्त से भी बढ़कर साथी बन गए हैं। हर जगह इतने अच्छे से घुलमिल जाते हैं।”

अनु शरमा गई और खिड़की की ओर देखने लगी। अरुण ने हल्की मुस्कान दी लेकिन भीतर कहीं उसका दिल तेज़ धड़कने लगा।


आज का प्लान पास के एक झरने और पहाड़ी ट्रेक का था। रास्ता लंबा था, लेकिन दोनों की बातें उसे छोटा बना रही थीं।

अनु ने अरुण से पूछा—

“आपके बच्चे कितने साल के हैं?”
अरुण ने जवाब दिया—“बड़ा बेटा कॉलेज में है और बेटी बारहवीं में। दोनों अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। कभी-कभी लगता है उन्हें मेरी ज़रूरत भी नहीं रही।”

अनु चुप हो गई। उसके मन में सवाल उठा—“अगर अरुण का परिवार उसे पूरी तरह बाँधकर रखता, तो क्या वह यहाँ मेरे साथ इतना खुल पाता?”

झरने तक पहुँचते-पहुँचते हल्की बारिश शुरू हो गई। दोनों ने पास के एक बड़े पेड़ के नीचे शरण ली। बारिश की बूँदें चारों ओर गिर रही थीं, मिट्टी की सोंधी खुशबू हवा में घुल गई थी।

अनु ने हाथ फैलाकर बारिश की बूँदें पकड़ीं। वह हँसते हुए बोली—
अरुण जी, मुझे बारिश बहुत पसंद है। लगता है जैसे आसमान अपने सारे दुख बहा रहा हो।”

अरुण ने उसकी हँसी को देखा। उसके भीतर जैसे कुछ पिघल गया।
“अनु, काश मैं भी ऐसे ही खुलकर हँस पाता। लेकिन मेरी हँसी पर हमेशा जिम्मेदारियों का बोझ रहता है।”

अनु ने धीरे से उसकी ओर देखा—
“तो आज हँसिए। आज आप कोई पति, कोई पिता, कोई ज़िम्मेदार इंसान नहीं… बस 
अरुण हैं, जो यात्रा कर रहे हैं, जो आज़ाद हैं।”

अरुण उसकी बातों में खो गया। वह पल उनके लिए समय से परे था—सिर्फ दो दिल, बारिश और प्रकृति।


झरने के पास पहुँचकर दोनों ने पानी में पैर डुबोए। अनु बाल बांध रही थी, तभी उसका पाँव फिसल गया। अरुण ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया। अनु उसके कंधे से टिक गई। दोनों की नज़रें मिलीं। पानी की आवाज़ के बीच वह मौन उनके दिलों की धड़कनों को और साफ़ सुना रहा था।

अनु ने धीरे से कहा—
अरुण जी, आप जानते हैं ना… मैं ये सब समझती हूँ। आप शादीशुदा हैं। ये रिश्ता कभी नाम नहीं पा सकता। फिर भी…”

अरुण ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया—
“हाँ, मैं जानता हूँ। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे बिना ये यात्रा अधूरी है। अनु, मैं तुम्हारे साथ बिताया हर पल अपनी साँसों में कैद कर लेना चाहता हूँ।”

अनु की आँखों से आँसू छलक आए। उसने सिर झुका लिया।
“काश… समाज, हालात, उम्र… ये सब न होते।”

अरुण ने उसके आँसू पोंछे और बस इतना कहा—
“प्यार इन सबसे बड़ा होता है। भले ही अधूरा रहे, लेकिन सच्चा रहता है।”


अब यात्रा के केवल दो दिन बचे थे। दोनों के बीच की नज़दीकियाँ अब साफ़ झलकने लगी थीं। अब वे मंदिरों या समुद्र के किनारों पर बैठकर बस बातें करते। फोटो और वीडियो कम होने लगे थे, हँसी और मौन ज़्यादा।

लेकिन हर हँसी के पीछे एक डर छुपा था—विदाई का डर।

अनु ने एक शाम कहा—
अरुण जी, सोचकर ही दिल काँप जाता है कि परसों आप चले जाएँगे। फिर शायद कभी मुलाक़ात न हो।”

अरुण ने गहरी साँस लेकर कहा—
“हाँ, यही सच है। हम दोनों जानते हैं कि यह रिश्ता सिर्फ इन सात दिनों का है। लेकिन इन सात दिनों ने जो हमें दिया है, वह सात जन्मों से कम नहीं।”

अनु ने उसके कंधे पर सिर रख दिया। हवा में नमक और आँसुओं की गंध थी।


उस रात दोनों होटल की छत पर बैठे थे। ऊपर पूरा आसमान तारों से भरा था। समुद्र की लहरों की आवाज़ दूर से आ रही थी।

अरुण ने अनु से कहा—
“अगर ज़िंदगी हमें पहले मिला देती तो शायद सब अलग होता।”

अनु ने कहा—
“लेकिन शायद तब हमारी कहानी इतनी खूबसूरत नहीं होती। अधूरी चीज़ें ही तो दिल में हमेशा ज़िंदा रहती हैं।”

अरुण ने अनु का हाथ थामकर कहा—
“तो वादा करो, चाहे जो हो जाए, ये सात दिन हमेशा याद रखोगी।”

अनु ने आँसुओं भरी मुस्कान के साथ कहा—
“वादा है, 
अरुण जी। ये सात दिन मेरी पूरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल पल रहेंगे।”


अरुण और अनु की मुलाकात किसी सपने जैसी थी — सात दिनों तक दोनों ने साथ-साथ घूमा, बातें कीं, हंसी-मजाक किया और जीवन के कुछ सबसे यादगार पल संजोए। परंतु जब विदा का समय आया, उन्होंने एक अनोखा वचन लिया —

वे न तो एक-दूसरे का मोबाइल नंबर लेंगे, न ही सोशल मीडिया पर जुड़ेंगे। क्योंकि उनका मानना था कि यह रिश्ता किसी “बंधन” से नहीं बंधा होना चाहिए, बल्कि **यादों और किस्मत के भरोसे** पर टिका होना चाहिए।


उन्होंने प्रण लिया कि अगर किस्मत ने चाहा तो वे फिर मिलेंगे, वरना यह मुलाकात उनकी आखिरी होगी। शायद अगला जन्म ही उनका सच्चा मिलन लेकर आए।


झपकते ही बीत गई वह रात, जैसे वक्त ने उनके लिए कदम रोकने से इंकार कर दिया हो।

सुबह की सुनहरी किरणें खिड़की से भीतर झांक रही थीं, पर दोनों के मन पर अंधेरे का साया था।


अरुण के चेहरे पर हल्की उदासी थी, मानो हज़ार बातें कहना चाहता हो पर शब्द उसके होंठों तक आते-आते खो जाते।

अनु की आँखों में नींद से ज़्यादा बेचैनी थी, जैसे वह अपने दिल के हर कोने में इस पल को कैद करना चाह रही हो।

“अरुण, अगर किस्मत ने चाहा तो फिर मिलेंगे, वरना अगला जन्म हमारा होगा।”


अरुण ने मुस्कराने की कोशिश की, पर आँखों की नमी छुपा न सका।


उस रात दोनों देर तक चुप बैठे रहे। चाँद उनके दिलों की बेचैनी का गवाह था।

 



सुबह अरुण ने होटल की खिड़की से झांकते हुए देखा— वातावरण एकदम शांत था।

रत्नागिरी की पहाड़ियाँ मानो विदाई का सगीत बजा रही थीं।

उसने धीमे से कहा,

“अनु, आज हमें आख़िरी जगह घूमना है। टैक्सी वाला दस बजे आएगा। चलो, तैयार हो जाओ।”


अनु उस समय आईने के सामने खड़ी थी। उसने हल्की मुस्कान के साथ अरुण की ओर देखा,

पर उस मुस्कान के पीछे छुपा दर्द दोनों समझ रहे थे।

सात दिनों की यह यात्रा जैसे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी बन चुकी थी।

हर जगह, हर मोड़, हर हंसी— सब उनके दिल की किताब में दर्ज हो चुके थे।


अनु ने धीरे से कहा,

“अरुण, ये सात दिन जैसे सात जन्मों के बराबर रहे। काश… वक्त यहीं थम जाता।”


अरुण उसके शब्दों को सुनकर खामोश हो गया।

उसने बस खिड़की से बाहर देखते हुए उत्तर दिया—

“हाँ, काश…”


कमरे में एक अजीब सी चुप्पी पसर गई।

सिर्फ घड़ी की सुइयाँ चल रही थीं, जैसे याद दिला रही हों कि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता।


अनु ने सिर हिलाया। दोनों ने बिना कुछ कहे सामान समेटा। उनके दिलों में बस एक ही ख्याल था—आज के बाद शायद हम कभी न मिलें।


आज का कार्यक्रम था शहर के सबसे प्रसिद्ध मंदिर का दर्शन करना। टैक्सी मंदिर के दरवाज़े पर रुकी। वहाँ सीढ़ियाँ थीं, जिन पर चढ़ते हुए दोनों ने महसूस किया कि हर कदम भारी है।

मंदिर में घनघनाती घंटियों की आवाज़, धूप-बत्ती की खुशबू और भक्तों की भीड़ थी। अरुण और अनु साथ खड़े होकर आरती में शामिल हुए।

आरती के बाद अनु ने आँखें बंद कर प्रार्थना की—
“हे भगवान, मुझे इतनी शक्ति देना कि इस जुदाई को सह सकूँ। और 
अरुण जी को हमेशा खुश रखना।”

अरुण ने भी मन ही मन प्रार्थना की—
“भगवान, यह रिश्ता शायद समाज की नज़रों में सही न हो, लेकिन मेरे दिल में यह सबसे पवित्र है। इसे अधूरा मत होने देना।”

दोनों ने प्रसाद लिया और मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए। अनु ने धीरे से कहा—
अरुण जी, क्या आप सच में  चले जाएँगे?”

अरुण ने लंबी साँस लेकर कहा—
“हाँ अनु, यही सच है। घर पर मेरा इंतज़ार है, परिवार है… और तुम्हारी भी अपनी दुनिया है। लेकिन ये सात दिन… ये हमेशा हमारे दिल में जिंदा रहेंगे।”

अनु की आँखों से आँसू छलक पड़े। अरुण ने उसका हाथ पकड़ लिया, लेकिन आसपास लोगों की भीड़ थी। दोनों ने अपने जज़्बात दबा लिए।


मंदिर से लौटते समय टैक्सी की खिड़की से बाहर देखते हुए अनु चुप रही।अरुण भी चुप था। बीच-बीच में सिर्फ़ टैक्सी का हॉर्न या सड़क की आवाज़ सुनाई देती थी।

टैक्सी वाले ने कहा—
“साहब, आप दोनों तो बहुत अच्छे लगते हैं। लगता ही नहीं पहली बार मिले हैं।”

अरुण और अनु ने एक-दूसरे की ओर देखा और हल्की मुस्कान दी। लेकिन उस मुस्कान में दर्द छुपा था।


शाम तक पैकिंग हो गई। टैक्सी उन्हें एयरपोर्ट तक छोड़ने आई। रास्ते भर अनु खामोश रही। वह बस बाहर देख रही थी, मानो हर पेड़-पौधे, हर मोड़ को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो।

एयरपोर्ट पर पहुँचकर दोनों ने सामान ट्रॉली पर रखा। अब वह वक्त आ चुका था, जिससे दोनों डर रहे थे।

अरुण ने धीरे से कहा—
“अनु, अलविदा कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन वादा करो, इस रिश्ते को बोझ नहीं बनाओगी। इसे अपनी ताक़त बनाना।”

अनु की आँखें भर आईं। उसने कांपते होंठों से कहा—
अरुण जी, आपसे मिलकर मैंने जाना कि सच्चा प्यार क्या होता है। मैं इन सात दिनों को अपनी पूरी ज़िंदगी जीऊँगी।”

भीड़ के बीच खड़े होकर दोनों कुछ पल मौन रहे। अरुण का दिल चाहता था कि वह अनु को गले से लगा ले, लेकिन आसपास लोगों की नज़रों ने उसे रोक दिया।

आख़िरकार अनु ने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया और फुसफुसाई—
“अलविदा… शायद हमेशा के लिए।”

अरुण ने उसकी हथेली दबाई और कहा—
“नहीं, अनु। यह अलविदा नहीं है। यह बस एक ठहराव है। हमारी यादें हमें हमेशा जोड़कर रखेंगी।”

फ्लाइट का अनाउंसमेंट हुआ। अरुण ने भारी कदमों से अंदर की ओर बढ़ना शुरू किया। अनु वहीं खड़ी रही। उसकी आँखें अरुण को तब तक देखती रहीं, जब तक वह भीड़ में गुम नहीं हो गया।


टैक्सी से लौटते समय अनु की गोद में सिर्फ़ उसकी साड़ी का पल्लू था और आँखों में ढेर सारे आँसू। उसे लग रहा था जैसे उसकी दुनिया फिर से खाली हो गई।

होटल के कमरे में पहुँचते ही उसने बिस्तर पर सिर रखकर रोना शुरू कर दिया। लेकिन रोते-रोते उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान भी थी—
अरुण जी, आपने मुझे वो एहसास दिया जो शायद किसी को ज़िंदगी में भी नहीं मिलता। मैं हमेशा आपको याद रखूँगी।”


 इस तरह उनकी यात्रा समाप्त हुई—प्यार में डूबी हुई, लेकिन अधूरी।
दोनों जानते थे कि वे अपनी-अपनी दुनिया में लौट जाएँगे, लेकिन उनका दिल हमेशा एक-दूसरे से जुड़ा रहेगा।

उनकी प्रेमकहानी अधूरी रही, लेकिन उसी अधूरेपन ने उसे अमर बना दिया।


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