यात्रा का दिनांक - वर्ष 1985, महीना मार्च, दिन तारीख क्या था याद नहीं
मित्रों मैं आज आप लोगों को अपनी पहली यात्रा के बारे मे बताना चाहता हूं यू तो घूमने का शौक मुझे बचपन से है लेकिन अभी तक घूमने का मौका नहीं मिला था बात उन दिनों की है जब मैं अपने गांव में रहता था उस समय मैं कच्छा - 8 में पढता था, मेरे गांव में मेरा एक मित्र था जिसका नाम अनिल उर्फ C. I. D. उसका उप नाम CID कैसे पड़ा उसकी भी एक छोटी सी कहानी है, हुवा यू की उस समय एक तरफ से दूसरे की जानकारी लाना जरुरी होता था तथा यह काम अनिल भाई बहुत बखूबी करते थे इस तरह कब उनका प्रचलित नाम CID हो गया किसी को पता नहीं, पीठ पीछे लोग CID नाम से ही बुलाते थे और मई तो उसके मुँह पर भी CID ही कहता था जिसे ओ बुरा नहीं मानता था,
मेरे गांव से करीब 40 किलोमीटर दूर ककरहवा में महाशिवरात्रि का मेला लगता था
हम लोगों ने तय किया कि अगले सोमवार को हम लोग मेला देखने साइकिल से जायेगें लेकिन समस्या ऐ थी कि हम लोग दो थे और साइकिल एक थी हम लोगों ने एक ही साइकिल से चलने का फैसला किया और नियत समय पर सुबह 6 बजे हम लोग अपनी यात्रा पर चल दिए, इसमें जो सबसे महत्तवपूर्ण बात थी वो ये की मैंने माता जी से बताया था लेकिन पिता जी से नहीं बताया था, माता जी ने डरते हुए जाने की आज्ञा दी थी, हम लोगों की यात्रा जब शुरू हुई तो यह तय किया गया की 5 - 5 किलोमीटर तक दोनों लोग साइकिल चलाएंगे, डबल सवारी साइकिल पर यात्रा जारी थी, करीब 10 किलोमीटर यात्रा पूरी होने पर एक जगह रूककर हम लोगों ने कुछ खाया पिया एवं थकन दूर की उसके बाद फिर चल दिए , डबल सवारी सायकिल चलाना काफी मेहनत का काम होता है, लेकिन उस समय का दौर ऐसा था कि डबल सवारी चलना आम बात थी, खैर हम लोग किसी तरह यात्रा करते हुये अपनी मंजिल ककरहवा मेला में पहुंच गए, वहां पर हम लोगों ने खूब मेला किया खाया पिया और कुछ खरीददारी करने के बाद वापसी के लिए चल दिये, रास्ता खराब था, साईकल एक थी एवं सवारी दो, इसलिए हम लोग दोपहर बाद वापसी की यात्रा शुरू कर दी, इस यात्रा की सबसे खास बात जो थी वो ये की हम लोगों के पास पैसे तो पहले ही कम थे और जो थे भी वह मेले में खर्च हो गए थे, वापसी में मात्र डेढ़ रुपये बचे थे जो रास्ते मे खर्च के लिए थे, हम लोग उसी सायकिल से वापस चल दिये, रास्ता ज्यादातर कच्चा या ऊबड़ खाबड़ था, करीब आधा रास्ता पूरा करने के बाद एक जगह सायकिल से हवा निकल गया, जिसका डर था वही हुवा, उस समय सायकिल बनाने की दुकानें मुख्य मुख्य कस्बों में हुआ करती थी, हम लोगों की सायकिल जहां पंचर हुई थी आगे का कस्बा वहाँ से लगभग तीन किलोमीटर दूर था, अब वहाँ से कस्बे तक पैदल जाने के अलावा कोई और दूसरा चारा नही था, हम लोग सायकिल लेकर पैदल आगे की तरफ चल दिये, करीब एक घंटे की पदयात्रा के बाद हम लोग चौराहें पर पहुंचे, वहां पहुँच कर पंचर बनाने की दुकान खोजी पंचर वाले ने जब सायकिल का tube खोला तो उसमें दो पंचर थे, उस समय के रेट के हिसाब से दो रुपये पंचर बनवाईं हुई लेकिन हम लोगों के पास कुल डेढ़ रुपये बचे थे, किसी तरह दुकान वाले से बात करने के बाद ओ उतने में पंचर बनाने में तैयार हो गया, पंचर बनाने के बाद जब सायकिल में हवा भरी गई तो उसमें हवा रूक ही नहीं रहीं थी, मिस्त्री ने चेक किया तो पता चला उसका वाल भी कट गया है, अब उसके लिये भी कुछ पैसे चाहिए थे लेकिन हम लोगों के पास अब और पैसा था ही नहीं, लेकिन दुकान वाला मददगार निकला उसने उतने ही पैसे में वो भी बदल दिया, अब हम लोग आगे की यात्रा के लिए चल दिये लेकिन तब तक अंधेरा होने लगा था और हम लोगों को अभी लगभग आधा सफर पूरा करना था, अब सायकिल की गति पहले से तेज थी क्योंकि घर जल्दी पहुचना था, डर भी था की कहीं रास्ते में सायकिल फिर कही खराब न हो क्योंकि अब न पैसा बचा था और न ही रास्ते में कहीं सायकिल बनाने की दुकान ही मिलती, खैर भगवान का नाम लेकर चलते रहे, रास्ते में अंधेरा होने के कारण कुछ डर भी लगने लगा था, लेकिन रास्ते में और कोई समस्या नही हुई और हम लोग लगभग आठ बजे घर पहुच गए, इधर घर के लोग रात होने के कारण परेशान हो रहे थे और खोजने जाने की सोच रहे थे, उस समय मोबाइल या टेलीफोन नही था कि देर से आने की सूचना घर दिया जा सके, हम लोग जब घर पहुंचे तो सब लोग बहुत खुश हुये थोड़ा बहुत डाट खाने के बाद हम लोग अपने अपने घर चले गए, ये यात्रा मेरी पहली यात्रा थी इससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
https://harilko.blogspot.com/2019/07/blog-post.html
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें