"राजीव और विनिता की प्रेम कहानी"
इंदौर—मध्यप्रदेश का एक खूबसूरत और जीवंत शहर।
यहां की गलियां, यहां
की सुबहें, यहां का स्वाद और
यहां के लोग—सबमें
कुछ खास बात है। इसी शहर की एक शांत कॉलोनी में रहता है राजीव मिश्रा, उम्र लगभग 45 वर्ष, एक सरल, जिम्मेदार और पारिवारिक व्यक्ति। वह पत्नी संध्या और दो बच्चों के साथ एक साधारण जीवन जी
रहा है। राजीव पेशे से एक निजी कंपनी में अकाउंटेंट है, जहां वह पिछले 7
वर्षों से कार्यरत है।
राजीव का जीवन रोज़
एक ही ढर्रे पर चलता है — सुबह
9 बजे तक तैयार होकर अपनी पैशन
प्रो बाइक से दफ्तर निकल जाना, शाम 6 बजे लौटकर बच्चों के साथ थोड़ा वक्त
बिताना और फिर रात के खाने के बाद टीवी या अखबार में खो जाना। ज़िंदगी ठहरी हुई थी,
लेकिन व्यवस्थित। वो अपनी जिम्मेदारियों
को अच्छी तरह निभा रहा था, लेकिन
कहीं अंदर से वो अकेला महसूस करता था। एक ऐसा खालीपन था जिसे वह शब्दों में बयां
नहीं कर सकता था — शायद
किसी ने उसे समझने की कोशिश ही नहीं की थी।
उसी के ऑफिस की बिल्डिंग में 6 वीं मंज़िल पर स्थित एक और ऑफिस में काम करती थी विनिता शर्मा, उम्र 35 वर्ष, एक विवाहित महिला। विनिता की शादी को भी करीब 10 साल हो चुके थे और उसका एक बेटा था जो अब स्कूल जाने लगा था। वो पेशे से एक ऑफिस असिस्टेंट थी और पिछले 5 वर्षों से उसी ऑफिस में कार्यरत थी।
विनिता की ज़िंदगी भी
राजीव से बहुत अलग नहीं थी — उसका
पति अक्सर ट्रेवलिंग में रहता था, दिनभर
ऑफिस, फिर घर आकर खाना
बनाना, बच्चे की पढ़ाई और
फिर नींद। उसके पास खुद के लिए कोई समय नहीं बचता था। हँसने की वजहें अब गिनती में
थीं, और सुनने वाला कोई
नहीं था।
राजीव और विनिता ने
एक-दूसरे को कई बार लिफ्ट में देखा था। ऑफिस का समय लगभग एक जैसा
था — सुबह 9:30 बजे। कई बार एक ही लिफ्ट में खामोशी से
चढ़ना और उतर जाना होता था, लेकिन कोई
बातचीत नहीं होती थी। दोनों अनजान थे, मगर कहीं ना कहीं... एक अदृश्य डोर
उन्हें जोड़ रही थी।
एक दिन ऐसा ही हुआ।
सुबह का समय था, राजीव
अपने हेलमेट को हाथ में पकड़े, लिफ्ट
का बटन दबाकर खड़ा था। लिफ्ट आई, और
अंदर विनिता खड़ी थी। उन्होंने हल्की मुस्कान दी। राजीव थोड़ा चौंका, पर मुस्कान का जवाब मुस्कान से दिया।
लिफ्ट का दरवाज़ा बंद
हुआ और तभी विनिता ने चुप्पी तोड़ी—
"सर,
आपका ऑफिस 4th
फ्लोर पर है ना?"
राजीव ने गर्दन घुमा
कर देखा, हल्का-सा मुस्कुराया।
"जी,
हाँ। और आप?"
"6th फ्लोर,
दूसरी कंपनी में...
पिछले पाँच साल से हूँ यहां।"
इतना ही संवाद था उस
दिन का, लेकिन किसी खामोश सी
दीवार में एक दरार ज़रूर पड़ी थी।
इसके बाद हर सुबह की
लिफ्ट अब थोड़ी सी जीवंत लगने लगी। दोनों जब मिलते, एक हल्की मुस्कान, एक नमस्ते या कभी-कभी मौसम पर
हल्की-फुल्की बातें होने लगीं।
राजीव ने गौर किया कि
विनिता के चेहरे पर एक अलग सी मासूमियत है, एक थकी हुई मुस्कान — वैसी जो लंबे समय से बोझ ढो रही हो,
फिर भी टूटी नहीं है। और विनिता को भी
राजीव में एक सहजता, शालीनता और आत्मीयता महसूस हुई।
धीरे-धीरे यह
छोटी-छोटी बातचीत ऑफिस की दिनचर्या का हिस्सा बनने लगी।
एक दिन दोपहर के समय राजीव बाहर चाय पीने गया हुआ था। तभी उसने देखा कि विनिता कुछ महिला सहकर्मियों के साथ ऑफिस से बाहर निकली। नज़रों का टकराव हुआ।विनिता ने हाथ हिलाकर अभिवादन किया, और राजीव ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया।
"आप
भी चाय पीने आए?" विनिता
ने पूछा।
"हाँ,
आदत है दोपहर की एक
चाय की। आप?"
"आज
सहेलियों के साथ निकली थी, पर जल्दी फ्री हो गई।"
वो पहली बार था जब
दोनों ने थोड़ी देर साथ बैठकर बातें कीं। मौसम, काम, परिवार—सभी पर बातें हुईं। कोई व्यक्तिगत सवाल
नहीं, कोई अनुचित बात
नहीं... सिर्फ दो अकेलेपन के दरमियान थोड़ी सी मुलायम राहत।
अब राजीव और विनिता
की सुबह की शुरुआत लिफ्ट में हल्की-फुल्की बातों से होती थी। कभी मौसम का जिक्र
होता, कभी ट्रैफिक की
शिकायत, तो कभी ऑफिस के तनाव
पर चर्चा। कुछ हफ्तों में ही यह मुलाकातें फॉर्मल से फ्रेंडली हो चुकी थीं।
राजीव, जो पहले लिफ्ट में चुपचाप खड़ा रहता था,
अब सुबह विनिता की उपस्थिति को देखकर
उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान आ जाती थी।
"कल रात की बारिश ने
तो पूरी सड़कें गीली कर दीं,"
विनिता बोली।
"और मेरी बाइक कीचड़
से नहा गई,"
राजीव ने हँसते हुए जवाब दिया।
अब दोनों एक-दूसरे के
चेहरे पर पढ़ना सीख गए थे कि आज मूड कैसा है, नींद पूरी हुई या नहीं, कोई बात मन में है या नहीं। उनके संवाद
भले ही कुछ ही मिनटों के होते, लेकिन
उनके बीच का संबंध गहराता जा रहा था।
एक दिन, जब लिफ्ट कुछ समय तक अटक गई — शायद बिजली की कोई गड़बड़ी थी — दोनों को करीब पाँच मिनट वहीं खड़ा रहना
पड़ा।
इस छोटी-सी
"कैद" में बातों ने रफ्तार पकड़ ली।
राजीव ने हँसते हुए
कहा,
"लगता है अब हमें
लिफ्ट के भरोसे नहीं रहना चाहिए, सीढ़ियों
का विकल्प भी सोचना पड़ेगा।"
विनिता ने मुस्कुरा
कर जवाब दिया,
"हां, पर तब आपकी सुबह की हल्की मुस्कान मिस
हो जाएगी।"
इस हल्की सी चुटकी के
बाद विनिता ने कहा,
"वैसे अगर कभी कुछ
ज़रूरी हो, तो मेरा नंबर ले
लीजिए। कभी-कभी बिल्डिंग में कुछ दिक्कतें हो जाती हैं।"
राजीव ने भी संकोच
छोड़ा और विनम्रता से नंबर सेव किया। उस दिन शाम को राजीव ने विनिता को एक सादा सा
मैसेज भेजा —
"अच्छा लगा आज बात
करके, ध्यान रखना।"
विनिता का जवाब था —
"मुझे भी, थैंक यू। "
बस, यहीं से व्हाट्सएप पर कभी-कभार बातों का
सिलसिला शुरू हो गया। कोई शुभकामना, कोई मज़ाकिया स्टिकर, या कभी-कभी कोई ऑफिस की खबर — अब दोनों की ज़िंदगी में एक-दूसरे की
मौजूदगी स्थायी हो चुकी थी।
एक दिन दोपहर के समय
राजीव अकेले चाय पीने गया। तभी विनिता भी आई, वो शायद जानती थी कि राजीव वहीं होगा।
"अकेले?"
विनिता ने मुस्कुरा कर पूछा।
"अब तो आदत हो गई है
अकेलेपन की,"
राजीव ने कुछ गहरी बात कह दी।
विनिता चुप हो गई।
फिर बोली —
"कभी-कभी अकेलेपन को
कोई साथी चाहिए होता है, जो
सुने नहीं... सिर्फ मौजूद रहे।"
उस दिन दोनों ने बिना
ज़्यादा बोले ही चाय पी। सन्नाटा भी कभी-कभी बहुत कुछ कह जाता है।
इसके बाद यह एक रूटीन बन गया। हफ्ते में
दो-तीन बार दोनों लंच या शाम के समय एक ही जगह चाय पर मिलते। कभी ऑफिस की थकान बाँटते, कभी बच्चों की बातें करते, कभी-कभी बस ख़ामोशी साझा करते।
राजीव अब पहले की
तुलना में ज्यादा खुश दिखने लगा था। उसकी सुबह की शुरुआत चाय और अखबार से नहीं,
बल्कि विनिता के “गुड मॉर्निंग” मैसेज से होती थी।
संध्या — उसकी पत्नी — ने इस बदलाव को महसूस किया, लेकिन वो इस बदलाव का कारण नहीं समझ
पाई।
राजीव अब अक्सर घर पर
चुप रहता, लेकिन ऑफिस में
मुस्कुराता हुआ नजर आता। बच्चों से लगाव बना रहा, मगर बीच-बीच में वो खुद को कहीं और खोया हुआ
महसूस करता था।
उसे यह एहसास हो चुका
था कि विनिता के साथ बिताया हर पल उसे जीवित महसूस कराता है।
विनिता भी भावनात्मक
रूप से बहुत उलझ चुकी थी। उसका पति, जो अक्सर शहर से बाहर रहता था, अब धीरे-धीरे भावनाओं से दूर होता जा
रहा था।
घर में वो एक
जिम्मेदार मां थी, एक
कर्मठ पत्नी — लेकिन
एक औरत के तौर पर उसकी पहचान धुंधली होती जा रही थी।
राजीव के साथ कुछ
वक्त बिताकर उसे यह महसूस होता था कि कोई है जो बिना शर्त उसे समझता है,
सुनता है और उसकी
परवाह करता है।
एक बार बारिश हो रही थी, और विनिता के पास छाता नहीं था। ऑफिस खत्म हुआ तो वो बिल्डिंग के बाहर छत के नीचे खड़ी थी। तभी राजीव ने अपनी कार रोकी।
"बैठ जाइए, मैं छोड़ देता हूँ।"
विनिता ने पहले इंकार
किया, लेकिन जब बारिश तेज
हो गई, तो बैठ गई।
राजीव की कार धीमे-धीमे चल रही थी, और बग़ल में बैठी विनिता का हल्का हाथ पड़ा।
ये छुअन कोई गलत
भावना नहीं थी — यह
सिर्फ भरोसे और अपनत्व का एहसास था।
जब विनिता अपने घर
पहुंची, तो बिना कुछ कहे
सिर्फ मुस्कुरा कर "थैंक यू" कहा। लेकिन उस रात दोनों की नींद बहुत देर
से आई।
अब वे दोस्त नहीं,
"खास"
दोस्त बन चुके थे।
कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता था जब वे
एक-दूसरे से बात ना करते।
शब्द अब कम होने लगे थे, क्योंकि भावनाएं बढ़ चुकी थीं।
राजीव ने एक दिन कहा —
"तुम्हारे साथ थोड़ी
देर बैठता हूँ, तो
खुद को बेहतर महसूस करता हूँ।"
विनिता ने धीरे से
कहा —
"कभी-कभी लगता है,
शायद हमारी मुलाकात पहले होनी चाहिए थी…
किसी और मोड़ पर, किसी और समय में।"
राजीव कुछ नहीं बोला।
बस उसकी आंखों में एक गहराई
थी, जिसमें विनिता खुद को डूबता हुआ महसूस करने लगी
थी।
अब दोनों के बीच का
रिश्ता सिर्फ "दो सहकर्मियों" का नहीं रह गया था। वो एक-दूसरे के भावनात्मक
सहारे बन चुके थे।
लेकिन समाज, परिवार, मर्यादाएं और नैतिकताएं — ये सभी छायाएँ अब इस रिश्ते पर गहराने
लगी थीं।
अब सुबह लिफ्ट की
मुलाकातें, दोपहर की चाय,
और शाम के कुछ मेसेज – सब कुछ राजीव और विनिता की ज़िंदगी का
हिस्सा बन चुका था। हर रोज़ एक-दूसरे का इंतज़ार रहता था। कोई कहता
नहीं था, मगर दोनों को यह
एहसास था कि अब उनके दिन की शुरुआत और अंत एक-दूसरे की मौजूदगी से जुड़ी
हुई है।
विनिता कभी-कभी
व्हाट्सएप पर छोटी-छोटी बातें शेयर करती थी — बच्चे की तस्वीर, ऑफिस में हुआ कोई फनी वाकया, या रात का खाना।
राजीव भी उसे अपने बेटे के स्कूल का कोई
किस्सा, या किसी पुराने गाने
की यूट्यूब लिंक भेज देता।
छोटे-छोटे पल मिलकर
अब एक गहराते रिश्ते का रूप ले चुके थे।
एक दिन शनिवार को
राजीव ने हिम्मत करके पूछा —
"कल ऑफिस के बाद थोड़ा
समय है तुम्हारे पास?"
"शायद हाँ… क्यों?" विनिता ने पूछा।
"बस यूं ही… सोचा था एक पार्क में बैठेंगे।"
थोड़ी देर की चुप्पी
के बाद विनिता ने लिखा —
"ठीक है। लेकिन ज्यादा
देर नहीं बैठ सकती।"
अगले दिन शाम को
दोनों एक शांत पार्क में मिले, जो ऑफिस से कुछ दूर था।
राजीव पहले से वहां बैठा था, और विनिता ऑटो से आई थी। वो हल्के
गुलाबी सलवार-सूट में थी, और
चेहरे पर थोड़ी झिझक थी।
"तुम्हें असहज लगे तो
हम यहीं से चल सकते हैं,"
राजीव ने कहा।
"नहीं… अच्छा लग रहा है… बहुत दिनों बाद खुद के लिए वक्त निकाला
है,"
विनिता ने हल्के स्वर में जवाब दिया।
दोनों एक खाली बेंच
पर बैठ गए। चारों ओर हरियाली, हल्की
हवा, और पास में खेलते कुछ
बच्चे।
वो बात नहीं कर रहे
थे, बस एक-दूसरे के साथ मौजूद थे।
राजीव ने धीरे से
पूछा —
"कभी-कभी लगता है,
हम दोनों एक ही नाव में हैं।"
विनिता ने मुस्कुराकर
जवाब दिया —
"बस किनारे अलग-अलग
हैं।"
अब पार्क की
मुलाकातें हर सप्ताह का हिस्सा बन गई थीं। कभी शनिवार को, कभी शुक्रवार शाम को, कभी ऑफिस खत्म होने के बाद।
राजीव कभी-कभी अपने
साथ चाय
के दो कप लाता। विनिता उसके लिए घर से कुछ नमकीन या मिठाई लेकर आती।
उन मुलाकातों में कोई
दिखावटी बात नहीं होती थी। वो अपनी-अपनी ज़िंदगी की मुश्किलें साझा करते थे। कभी
राजीव अपने बच्चों की पढ़ाई की चिंता बताता, तो कभी विनिता अपने पति की बेरुखी की
शिकायत।
लेकिन इन बातों के
बीच जो अनकहा था, वो
सबसे भारी था।
एक ऐसा रिश्ता,
जिसका नाम नहीं था,
पर गहराई बहुत थी।
राजीव ने एक दिन कहा —
"तुम्हारे साथ जो वक्त
बिताता हूँ, उसमें
मैं खुद को भूल जाता हूँ… और
शायद वही तो ज़रूरी होता है — खुद
से मिलना।"
विनिता की आंखों में
नमी थी, पर होंठ मुस्कुरा रहे
थे।
"तुम मेरी लाइफ का वो
हिस्सा हो, जो सबसे शांत है…
और सबसे उलझा भी।"
समाज के पास कान बहुत
तेज होते हैं। एक ऑफिस में काम करने वाले दो व्यक्ति की नजदीकियां धीरे-धीरे कुछ
लोगों की नज़रों में आने लगीं।
एक दिन विनिता की एक
सहकर्मी ने कहा —
"वो अकाउंटेंट साहब से
तुम बहुत मिलने लगी हो न?"
विनिता ने हँसकर बात
टाल दी, लेकिन वो जान गई कि
अब निगाहें
पीछे चलने लगी हैं।
राजीव को भी एक बार
कंपनी के दूसरे विभाग में काम करने वाले व्यक्ति ने हँसी-मज़ाक में कहा —
"भाईसाहब, बड़े अच्छे दोस्त बनते जा रहे हैं आप
दोनों!"
राजीव ने बात को
हल्के में लिया, लेकिन
उस रात उसे नींद नहीं आई।
एक दिन पार्क में
मुलाकात के दौरान राजीव बहुत चुप था।
विनिता ने पूछा —
"क्या हुआ? कुछ परेशान लग रहे हो।"
राजीव ने धीरे से कहा
—
"डर लग रहा है…
कहीं हम कुछ ऐसा तो नहीं कर रहे जो नहीं
करना चाहिए?"
विनिता कुछ नहीं
बोली। उसने बस राजीव का हाथ पकड़ लिया।
"प्यार कोई गुनाह नहीं
होता… जब तक उसमें धोखा
नहीं हो, ज़रूरत नहीं हो,
और जब तक उसमें आत्मा हो।"
राजीव की आंखों से
आंसू बह निकले। वो नहीं जानता था कि वो किस रिश्ते में है, लेकिन वो ये ज़रूर जानता था कि उसका
दिल अब इस महिला में बस चुका है।
उस शाम राजीव बहुत देर
तक विनिता के साथ बैठा रहा। दोनों चुप थे, लेकिन एक-दूसरे की उपस्थिति को महसूस कर रहे थे।
विनिता ने अचानक कहा —
"अगर कभी हम बिछड़ गए
तो... याद रखना, तुम
मेरे जीवन की वो शांति हो, जो
मुझे सबसे ज़्यादा प्यारी थी।"
राजीव की आंखें भीग
गईं।
"और तुम मेरी वो कहानी
हो, जिसे मैंने कभी किसी
से नहीं कहा।"
एक दिन विनिता अपने
साथ एक पुरानी डायरी लेकर आई। उसमें एक तस्वीर थी — उस पार्क की, जहाँ वे अक्सर मिलते थे।
"मैं जानती हूँ ये
रिश्ता लंबा नहीं चलेगा। लेकिन इसे मैं याद रखना चाहती हूँ — अच्छे वक्त की तरह, गुनगुनी धूप की तरह।"
राजीव ने वह तस्वीर
हाथ में ली और धीरे से कहा —
"मैं इस रिश्ते को कोई
नाम नहीं देना चाहता… क्योंकि
नाम से लोग तोलने लगते हैं। ये जो है… बस है। और काफी है।"
अब राजीव और विनिता
का रिश्ता भावनात्मक चरम पर पहुँच चुका था। वो एक-दूसरे में शांति
ढूंढ चुके थे, लेकिन
अब परिस्थितियाँ
और समाज का दबाव उन्हें धीरे-धीरे एक मोड़ की ओर ले जा
रहा था — एक ऐसा मोड़, जो उन्हें अलग भी कर सकता था।
राजीव और विनिता के
रिश्ते ने अब वो गहराई छू ली थी जहाँ शब्द कम पड़ते थे, लेकिन एहसास भरपूर होते थे। दोनों अब
खुलकर हँसते थे, खुलकर
अपने दुख साझा करते थे, और
एक-दूसरे में सुकून ढूंढते थे।
लेकिन जैसे ही कोई
रिश्ता समाज के "स्वीकृत दायरे" से बाहर जाने लगता है, लोग उसे खामोश नहीं रहने देते।
ऑफिस की बिल्डिंग में
कई लोगों की निगाहें अब उनकी हरकतों पर थीं। लिफ्ट में साथ खड़े होने से लेकर चाय
की दुकान पर बैठने तक — हर
छोटी सी बात को अब नजरों में उतारा जा रहा था।
विनिता की एक सहकर्मी
ने एक दिन सीधे-सीधे तंज कस दिया —
"सुना
है आप अब अकेले चाय नहीं पीतीं? कोई स्पेशल साथ आता है क्या?"
विनिता मुस्कुराकर रह
गई, लेकिन दिल में कहीं
कुछ चुभ गया।
राजीव की पत्नी
संध्या अब उसके बदलते व्यवहार को महसूस कर चुकी थी। वो अब घर पर कम बात करता था,
मोबाइल लेकर देर रात तक बैठा रहता था,
और अकसर किसी "ऑफिस के काम"
का बहाना बनाकर बाहर निकलता था।
एक दिन उसने सीधे पूछ
लिया —
"राजीव,
क्या तुम किसी और से
बात करते हो?"
राजीव चौंक गया। उसकी
आंखों में झिझक और डर साफ था।
"नहीं…
ऐसा कुछ नहीं है। बस…
ऑफिस का स्ट्रेस है थोड़ा…"
संध्या ने कुछ नहीं
कहा, लेकिन अब वो राजीव को
समझ चुकी थी। भरोसा टूटता नहीं था, लेकिन दरारें ज़रूर पड़ चुकी थीं।
विनिता के पति भी अब
समय से पहले घर आने लगे थे। उन्होंने उसकी कॉल्स, व्हाट्सएप पर एक्टिविटी और ऑफिस से
लौटने का समय नोट करना शुरू कर दिया था।
एक दिन विनिता के पति
ने उसके फोन में एक राजीव का मैसेज पढ़ लिया
—
“तुमसे मिलकर आज बहुत
अच्छा लगा, दिल हल्का हो गया।”
विनिता की दुनिया
वहीं रुक गई।
"कौन है ये? और ये क्या रिश्ता है तुम्हारा इससे?"
पति ने गुस्से से पूछा।
विनिता ने चुपचाप फोन
रख दिया।
"कोई रिश्ता नहीं है…
बस एक इंसान है जो मुझे सुन लेता
है।"
"क्या मैं नहीं सुनता?"
पति ने चीखा।
"नहीं… तुम सिर्फ सुनते हो, समझते नहीं हो।"
उस रात घर में बहुत
बहस हुई, और
आखिरकार विनिता से कहा गया —
"या तो ये नौकरी छोड़
दो, या ये रिश्ता!"
विनिता ने अगले दिन
राजीव को मैसेज किया —
“आज मिल सकते हो थोड़ी
देर के लिए? ज़रूरी
है।”
शाम को दोनों उसी
पुराने पार्क में मिले।
विनिता शांत थी, लेकिन उसकी आंखें बहुत कुछ कह रही थीं।
"मुझे नौकरी छोड़नी
पड़ रही है,"
उसने धीमे स्वर में कहा।
राजीव स्तब्ध रह गया।
"क्यों? ऐसा क्या हो गया?"
"अब लोग हमारे बारे
में बातें करने लगे हैं… घर
पर सवाल उठ रहे हैं… और
मैं अब इस बोझ को और नहीं झेल सकती।"
"तो तुम छोड़ दोगी
मुझे?"
राजीव की आवाज़ कांप रही थी।
"नहीं राजीव, मैं तुम्हें नहीं छोड़ रही… मैं खुद से अलग हो रही हूँ।"
राजीव का गला भर आया।
"क्या कभी हम… कभी मिल पाएंगे फिर?"
"पता नहीं… लेकिन अगर कभी किसी जगह मिलूं, तो आंखें मिलाना ज़रूर।"
विनिता ने ऑफिस को
बिना ज्यादा बताए अचानक ही रेजिग्नेशन दे दिया। सहकर्मी
हैरान थे, पर कारण कोई नहीं
जानता था।
राजीव जब अपने ऑफिस से बाहर आया, तो विनिता जा चुकी थी।
उसने व्हाट्सएप पर बस
एक मैसेज देखा —
“विदा लेना आसान नहीं
था… लेकिन ज़रूरी था। तुम
हमेशा मेरे अच्छे दिनों की सबसे सुंदर याद रहोगे।”
राजीव उस दिन ऑफिस से
जल्दी घर लौट गया। रास्ते भर उसके कानों में सिर्फ विनिता की हँसी, उसकी आवाज़, और वो चाय की दुकान की खामोश बातें
गूंजती रहीं।
अब राजीव रोज़ उसी
बिल्डिंग में जाता, उसी
लिफ्ट में चढ़ता… मगर
अब वो साथ नहीं होता।
वो चाय की दुकान पर
जाता, और सामने की खाली
कुर्सी को देखता।
हर शनिवार जब पार्क
के पास से गुजरता, तो
उसकी चाल धीमी हो जाती।
कभी-कभी रात को वो
पुराने मेसेज पढ़ता, तस्वीरें
देखता, और आंखें भीग जातीं।
विनिता भी, अब किसी नई कंपनी में काम कर रही थी।
पर हर दिन सुबह व्हाट्सएप खोलती,
और बिना कोई मैसेज भेजे ही ऐप बंद कर
देती।
करीब छह
महीने बाद, राजीव
के फोन में एक मैसेज आया —
"कैसे
हो?"
— विनिता
राजीव का दिल धड़कने
लगा। जवाब भेजा —
"ठीक
हूं… पर
तुम्हारे बिना अधूरा।"
विनिता ने लिखा —
"मैं भी... लेकिन अब
हम उस मोड़ पर हैं जहाँ लौटना आसान नहीं। बस जानती हूँ… तुम थे, हो, और हमेशा मेरे अपने रहोगे।"
उस दिन राजीव बहुत
देर तक उस स्क्रीन को देखता रहा। अब उनके बीच कोई योजना नहीं थी, कोई मुलाकात तय नहीं थी।
बस एक रिश्ता था, जो अब शब्दों के परे था।
राजीव और विनिता अब अलग-अलग
रास्तों पर चल पड़े थे।
लेकिन उन रास्तों पर अब भी एक साया
चलता था, एक
एहसास जो शब्दों में नहीं ढलता।
उनका प्यार अब वजूद
से नहीं, यादों
से ज़िंदा था।
राजीव की ज़िंदगी फिर
उसी पुराने ढर्रे पर लौट आई थी —
सुबह जल्दी उठना, बच्चों को स्कूल भेजना, ऑफिस के लिए निकलना, और शाम को थका-हारा लौट आना। लेकिन अब
सब कुछ मशीनी हो गया था।
वो अब भी उसी
बिल्डिंग की 4वीं
मंज़िल पर काम करता था,
अब भी सुबह उसी लिफ्ट में चढ़ता था,
पर अब लिफ्ट में सिर्फ सन्नाटा होता था,
अब कोई "गुड मॉर्निंग" नहीं
होती थी,
अब किसी की नज़रें उसका इंतज़ार नहीं
करती थीं।
विनिता की
गैर-मौजूदगी ने सब कुछ बदल दिया था,
या यूं कहें कि अब वो ज़िंदा तो था,
पर जी नहीं रहा था।
राजीव अब भी कभी-कभी
उसी चाय की दुकान पर जाता था, जहाँ
वे दोनों बैठा करते थे।
चायवाला मुस्कुरा कर
पूछता —
“आज मैडम नहीं आईं?”
राजीव हल्का सा मुस्कुराकर कहता —
“वो अब कहीं और हैं।”
अब वो वहां अकेले
बैठा करता, एक कप चाय के साथ,
और उन शामों को याद करता जब विनिता उसका चेहरा
पढ़ लिया करती थी — बिना
पूछे ही।
अब कोई ऐसा नहीं था
जो उसकी खामोशी सुन सके।
दूसरी तरफ, विनिता अब एक नए शहर की एक नई कंपनी में
काम कर रही थी। उसका बेटा अब बड़ा हो गया था, और उसकी ज़िम्मेदारियाँ और बढ़ गई थीं।
वो अब फिर से एक
जिम्मेदार पत्नी, मां
और कर्मचारी बन गई थी —
लेकिन एक औरत के रूप में, उसका दिल अब भी अधूरा था।
कभी-कभी काम के बीच
वो मोबाइल उठाकर राजीव की चैट खोलती, पुराना मैसेज पढ़ती और मोबाइल रख देती। कोई मैसेज भेजने की
हिम्मत नहीं होती, क्योंकि
उसे पता था कि अब लौटने का कोई रास्ता नहीं है।
दिवाली आई, तो राजीव ने घर पर लाइट्स सजाईं। बच्चे
खुश थे, पत्नी व्यस्त थी,
लेकिन राजीव की आँखें हर
कोने में किसी की कमी तलाश रही थीं।
उसने मोबाइल खोला,
और विनिता का नंबर देखा —
कुछ लिखने की कोशिश की, फिर मिटा दिया।
विनिता ने भी उसी रात
अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर एक लाईन डाली —
“कुछ
रिश्ते दिए नहीं जाते, बस दिल से जुड़े रहते हैं।”
राजीव ने वो स्टेटस
देखा और स्क्रीन को देर तक निहारता रहा।
शब्द नहीं थे, मगर वो सब कुछ कह गया।
राजीव ने अब एक छोटी
डायरी रखना शुरू कर दी थी।
उसमें वो हर वो दिन लिखता जब उसे विनिता
की याद आती।
“आज पार्क के पास से
गुज़रा। बेंच अब भी वहीं है, लेकिन
साथ खाली है।”
“चाय की दुकान पर गया, वो मिठाई नहीं थी जो तुम लाया करती थीं।”
“आज ऑफिस में सब हँस रहे थे, लेकिन मैं बस तुम्हें मिस कर रहा था।”
वो डायरी अब उसकी मौन
साथी बन चुकी थी।
एक दिन उसका बड़ा
बेटा, जो अब कॉलेज जा रहा
था, उससे बोला —
“पापा, आप कुछ सालों से बहुत बदल गए हैं…
पहले ज्यादा खुश रहते थे।”
राजीव थोड़ी देर चुप
रहा और फिर बोला —
“कुछ लोग हमारे जीवन
में आते हैं और हमें वो इंसान बना देते हैं, जो हम खुद को भी नहीं जानते थे… और फिर वो चले जाते हैं… तब समझ आता है कि हम कितने अधूरे थे।”
बेटे को शायद बात
पूरी समझ नहीं आई,
लेकिन राजीव की आंखें सब
कुछ कह गईं।
एक रात जब नींद नहीं
आ रही थी, राजीव ने फोन उठाया और विनिता
का नंबर खोला।
उसने सिर्फ एक शब्द
लिखा —
“याद
करता हूं।”
सुबह होते-होते जवाब
आया —
“मैं भी… लेकिन अब सिर्फ यादें बची हैं।”
उसके बाद कई दिनों तक
दोनों में कोई बात नहीं हुई।
अब ये रिश्ता
संवाद से नहीं, मौन
से चलता था।
समाज ने दोनों को अलग
कर दिया,
पर दिलों ने एक-दूसरे का साथ नहीं
छोड़ा।
हर साल राजीव वो
तारीख याद रखता था, जब
विनिता पहली बार लिफ्ट में उससे मुस्कुराकर मिली थी।
हर साल विनिता उस
पार्क की तस्वीर देखती थी, जो
अब भी उसकी डायरी में चिपकी थी।
उनका प्यार अब किसी
बातचीत या साथ के भरोसे नहीं था,
अब वो सिर्फ यादों में जिंदा था,
पर वो सच था… सच्चे रिश्ते की तरह।
राजीव और विनिता अब सामाजिक
रूप से दो अलग-अलग ज़िंदगियाँ जी रहे थे,
लेकिन उनके भीतर एक गुप्त कमरा था, जिसमें बस एक-दूसरे की तस्वीरें, शब्द, एहसास और यादें थीं।
उनकी प्रेम कहानी अब
चलती नहीं थी,
बस ठहर गई थी… लेकिन खत्म नहीं हुई थी।
समय ने बहुत कुछ बदल
दिया था।
राजीव अब 55 पार कर चुका था। बालों
में सफेदी थी, चश्मा
स्थायी हो गया था, और
चाल थोड़ी धीमी हो गई थी।
उसके बच्चे अब अपने जीवन में व्यस्त थे।
पत्नी अब भी साथ थी, लेकिन
दोनों के बीच का रिश्ता अब बस ज़िम्मेदारी जैसा था।
दूसरी ओर विनिता भी
अब 45 की हो चली थी। उसका
बेटा अब विदेश में पढ़ रहा था, और
पति रिटायरमेंट की तैयारियों में व्यस्त था।
वो भी अब अक्सर मंदिर जाया करती थी —
शांति की तलाश में।
एक दिन राजीव को ऑफिस
की तरफ से उज्जैन एक सेमिनार में बुलाया गया।
कार्यक्रम दो दिन का था।
दूसरे दिन सुबह, सेमिनार खत्म होने के बाद, उसने सोचा कि महाकालेश्वर मंदिर के दर्शन किए जाएं।
वो बचपन से ही वहां जाना चाहता था,
लेकिन कभी मौका नहीं मिला था।
उधर, उसी दिन विनिता भी अपने शहर से अपने भाई
के साथ उज्जैन आई थी।
परिवार के किसी काम से, लेकिन सोचा मंदिर दर्शन कर लिए जाएं।
राजीव मंदिर की
सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि अचानक उसकी नज़र एक हल्के नीले रंग की साड़ी में एक
स्त्री पर पड़ी —
जो कुछ जानी-पहचानी सी लगी।
उसने गौर से देखा —
वो विनिता थी।
उसके हाथ में पूजा की
थाली थी, माथे पर चंदन का तिलक,
आँखों में वही शांत चमक… और होंठों पर हल्की सी मुस्कान।
विनिता ने भी उसे
देखा।
और कुछ पल को समय वहीं थम गया।
भीड़ थी, लोग इधर-उधर भाग रहे थे, पर इन दो आँखों की मुलाकात ने बीते
दस साल जैसे एक पल में समेट दिए।
दोनों चुपचाप
एक-दूसरे के पास आए।
ना कोई "कैसे हो?"
ना कोई "तुम यहाँ?"
सिर्फ एक मौन, जो सब कह रहा था।
राजीव ने हल्के स्वर
में कहा,
“तुम बिलकुल नहीं
बदली।”
विनिता ने मुस्कुरा
कर कहा,
“तुम भी नहीं… बस आँखों में थोड़ी और गहराई आ गई है।”
फिर कुछ देर दोनों
मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए।
राजीव ने पूछा,
“कैसी हो? ज़िंदगी कैसी चल रही है?”
विनिता ने सिर झुकाया,
“ठीक हूँ… अब सब शांत है। लेकिन उस शांति में
कभी-कभी शोर भी होता है — यादों
का।”
राजीव ने कहा,
“मुझे हमेशा लगता था
कि कहीं ना कहीं, किसी
मोड़ पर फिर मिलेंगे… और
देखो, आज…”
विनिता ने उसकी ओर
देखा और बोली,
“भगवान के घर में,
शायद वही चाहते थे कि हम एक बार फिर…
आँखों से मिलें।”
मंदिर के दर्शन के
बाद, दोनों पास के एक छोटे
से ढाबे पर चाय पीने गए।
वो चाय शायद सबसे खामोश और सबसे स्वादिष्ट चाय थी उनके जीवन की।
राजीव ने कहा,
“इन दस सालों में बहुत
कुछ बदला… पर एक चीज़ अब भी
वैसी ही है।”
विनिता ने पूछा,
“क्या?”
राजीव ने मुस्कुरा कर
कहा,
“तुम्हारी मुस्कान…
और मेरा दिल।”
विनिता की आँखों में
नमी आ गई।
उसने धीरे से कहा,
“काश समय थोड़ा और
मेहरबान होता…”
समय कम था, दोनों को अपनी-अपनी दुनिया में लौटना
था।
राजीव ने कहा,
“क्या हम फिर मिलेंगे?”
विनिता ने सिर झुकाते
हुए कहा,
“अब ज़िंदगी में मिलना
नहीं, बस दुआओं
में जुड़ना है… जैसे
अब तक जुड़े हैं।”
राजीव ने उसकी ओर हाथ
बढ़ाया,
और दोनों ने हाथ थामे बिना, एक-दूसरे की हथेली में एक
पुरानी गर्माहट महसूस की।
फिर विनिता मुड़ी…
और भीड़ में धीरे-धीरे खो गई।
राजीव देर तक वहीं
बैठा रहा —
एक अजीब सी तसल्ली और टीस के साथ।
कुछ प्रेम कहानियाँ खत्म
नहीं होतीं,
वो बस रुक जाती हैं,
और समय के किसी कोने में दूसरे
रूप में बहती रहती हैं।
राजीव और विनिता अब
भी एक-दूसरे के जीवन में नहीं थे —
पर दिलों में…
एक-दूसरे की धड़कनों में…
वो अब भी जिंदा थे।
"राजीव
और विनिता की प्रेम कहानी"
शुरुआत से लेकर अंतिम मुलाकात तक —
ये सिर्फ एक प्रेम कथा नहीं थी…
ये उन हज़ारों अधूरी कहानियों की आवाज़
थी जो समाज, उम्र,
परिस्थितियों और समय के कारण साथ तो
नहीं रह पातीं,
लेकिन… सच्ची होती हैं।
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